ब्राह्मणत्व का अर्थ है-त्यागमय जीवन

April 1959

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री शिवप्रकाश शर्मा)

समाज में चार वर्णों की स्थापना हिन्दू धर्म की एक बहुत बड़ी विशेषता है। वैसे तो सभी देशों में सामाजिक व्यवस्था के संचालन के लिये समाज में विभिन्न श्रेणियाँ पाई जाती हैं, पर उनकी, हमारी वर्ण व्यवस्था के साथ तुलना करना सर्वथा असंगत है। उन समाजों का श्रेणी-विभाग केवल सामयिक सुविधा की दृष्टि से किया गया होता है और उसमें प्रायः सौ दो सौ वर्ष के भीतर ही अनेक परिवर्तन हो जाते हैं। पर हिन्दू-धर्म की वर्ण व्यवस्था ऐसी स्थायी बनाई गई है कि हजारों वर्षों के पिछले इतिहास में उसका प्रमाण मिलता है और आज भी लोग सिद्धान्त रूप से उसे आदर्श मानते हैं। भारत-वर्ष का कोई भी उल्लेख-योग्य सम्प्रदाय या समुदाय ऐसा नहीं जो वर्ण व्यवस्था की निन्दा करता हो अथवा उसे पूर्णतया हानिकारक बतलाता हो। यदि कुछ लोग उसका विरोध करते हैं तो उसका कारण वर्ण-व्यवस्था में समय के प्रभाव उत्पन्न हो गई अनेक प्रकार की विकृतियाँ ही हैं।

प्राचीन काल में चारों वर्णों में ब्राह्मणों की ही प्रधानता थी और समाज का संचालन करने की शक्ति उन्हीं के हाथ में रहती थी। पर वह शक्ति वर्तमान समय की राजनैतिक शक्ति से सर्वथा भिन्न प्रकार की थी। आजकल तो जिस समुदाय के हाथ में धन, सम्पत्ति, उत्पादन के साधन होते हैं वही प्रायः राजनीतिक सत्ता को भी अपने हाथ में रखता है, और उसके द्वारा सबसे पहला काम यह करता है कि कोई दूसरा समुदाय या व्यक्ति उसके स्वार्थों को हानि न पहुँचावे। इसके परिणाम स्वरूप अन्य समुदायों में स्वभावतः ईर्ष्या और द्वेष की उत्पत्ति होती है और वे सत्तारूढ़ दल को नीचे गिराने की कोशिश करने लगते हैं। वैसे संघर्ष बुरी बात नहीं है और उसी के द्वारा मनुष्य ने इतनी प्रगति की है, पर इस प्रकार तुच्छ स्वार्थभाव का संघर्ष समाज में दोषों की उत्पत्ति का कारण ही बनता है और उससे लोगों में अनैतिकता, संकीर्णता, छल, कपट आदि की प्रवृत्तियों की वृद्धि होती है।

पर वर्ण-व्यवस्था के सिद्धान्तानुसार समाज की संचालन शक्ति जिन ब्राह्मणों के हाथों में रखी गई थी वे धन सम्पत्ति के उत्पादन और स्वामित्व से कोई सम्बन्ध नहीं रखते थे। उन लोगों ने राज्य क्षत्रियों के लिये छोड़ दिया था, वाणिज्य, कृषि आदि वैश्यों के सुपुर्द कर दिये थे, शारीरिक श्रम द्वारा अर्थोपार्जन का कार्य शूद्रों को सौंप दिया था। ब्राह्मणों के लिये केवल त्याग ही त्याग रखा गया था। उनके लिये जीवन निर्वाह के साधन भी बहुत थोड़े और बड़े कठिन रखे गये थे, जिससे भोग विलास में लिप्त हो सकने की संभावना ही नहीं रहती थी। ब्राह्मण अपना उदर पोषण किस प्रकार करे इस सम्बन्ध में “मनुस्मृति” में लिखा है—

ऋतामृताभ्याँ जीवेन्तु मृतेन प्रमृतेन वा।

सत्यानृताव्यामपि व न श्ववृत्या कदाचन॥

ऋतमुच्छशिलं क्षेयममृतं स्यादयाचितम्।

मृतं तु याचितं भक्षं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्॥

सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीव्यते।

सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात्ताँ परिवर्जयेत॥

(मनु 4। 4-6)

अर्थात् “ब्राह्मण ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत या सत्यामृत से अपना जीवन बितावें परन्तु श्ववृत्ति अर्थात् सेवावृत्ति (नौकरी) न करे। उच्छ (खेतों में पड़े दाने बीन लाना) और शिल (खेतों में पड़ी हुई बालें बीन लाना) को ऋत जानना चाहिये। बिना माँगे मिला हुआ अमृत कहलाता है। माँगी हुई भिक्षा मृत कही जाती है और खेती को प्रमृत कहते हैं। वाणिज्य को सत्यामृत कहते हैं और विवशता के समय उससे भी जीविका चला सकते हैं। पर सेवा (श्ववृत्ति) का आश्रय कदापि नहीं लेना चाहिये।

इस प्रकार आदर्श और उच्चश्रेणी का ब्राह्मण वही है जो अपने लिये कभी किसी प्रकार की संपत्ति तथा अन्य वस्तुओं का संग्रह न करके कम से कम सामग्री में अपना निर्वाह करता रहे। उसका मुख्य कार्य वेदाध्ययन तथा यज्ञ-कर्म में संलग्न रहना है। यदि कोई आपत्ति काल आ जाय तो वह क्षत्रिय अथवा वैश्य की वृत्ति द्वारा भी जीवन धारण कर सकता है, पर सेवावृत्ति (नौकरी) उसके लिये सर्वथा त्याज्य मानी गई है। कारण यह है कि नौकरी में मनुष्य दूसरे का वशीभूत हो जाता है उसकी स्वतंत्र विचार करने और सम्पत्ति देने की शक्ति कुँठित हो जाती है और तब वह समाज का संचालन करने में अयोग्य हो जाता है।

इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन ग्रंथों और पुराणादि में ब्राह्मण की अत्यंत प्रशंसा लिखी है और उसे लोकोत्तर अधिकार प्रदान किये हैं, पर साथ ही उनमें ब्राह्मणों के लिये ऐसे आदर्श भी बतलाये गये हैं कि जिनका पालन साधारण व्यक्तियों के लिये संभव ही नहीं है। “श्रीमद्भागवत्” में भगवान स्वयं कहते हैं—

धृता तनूरुशती में पुराणी

येनेह सत्वं परमं पवित्रम्॥

शमो दमः सत्यमनु ग्रहश्च

तपस्तितिक्षानुभवश्च यत्र॥

मत्तौऽप्यनन्ता त्पयरत.परस्मा

त्स्वर्गापवर्गा धिपतेर्न किंचित्।

येषाँ किमु स्यादि तेरण तेषा-

मकिञ्चनानाँ मयि भक्तिभाजाम्।

अर्थात्—”उन ब्राह्मणों ने इस लोक में मेरी अति सुन्दर और पुरातन वेद रूपी मूर्ति को अध्ययनादि द्वारा धारण किया है। उन्हीं में परम, पवित्र, सत्त्वगुण, शम, दम, सत्य, अनुग्रह, तप, सहनशीलता और अनुभव आदि पाये जाते हैं। वे ब्राह्मण द्वार-द्वार पर भिक्षा माँगने वाले नहीं होते, साधारण मनुष्य से कुछ माँगना तो दूर रहा, मुझ अनन्त और सर्वेश्वर परमेश्वर से भी वे कुछ नहीं चाहते। वे अकिञ्चन (सर्वत्यागी) महात्मा विप्रगण केवल मेरी भक्ति में ही संतुष्ट रहते हैं।”

अन्य ग्रंथों में भी ऐसे ही वचन स्थान-स्थान पर पाये जाते हैं—

ब्राह्मणस्य तु देहोऽयं न सुखाय कदाचन।

तपः क्लेशाय धर्माय प्रेत्य मोक्षाय सर्वदा॥

(वृहर्द्धम पुराण 2। 44)

“ब्राह्मण की देह विषय सुख के लिये कदापि नहीं है। वह तो सदा सर्वथा तपस्या का क्लेश सहने, धर्म का पालन करने और अन्त में मुक्ति के लिये ही उत्पन्न होती है।”

सम्मानादि ब्राह्मणो नित्यभुद्विजेत विषादिव।

अमृतस्येव चाकाँक्षे दव मानस्य सर्वदा॥

(मनुस्मृति 2। 162)

“ब्राह्मण को चाहिये कि वह सम्मान से सदा विष के समान डरता रहे और अपमान की अमृत के समान इच्छा करता रहे।”

हम नहीं समझते कि त्याग और तपस्या का इससे बढ़कर और कोई आदर्श हो सकता है। ऐसे ब्राह्मण केवल किसी एक समाज के ही नहीं वरन् मनुष्य मात्र के लिये वन्दनीय समझे जाने चाहिये। यही कारण था कि प्राचीन काल में ऐसे ब्राह्मणों का सम्मान मनुष्य तो क्या देवता तक करते थे। पर आज अवस्था सर्वथा विपरीत हो गई है। विश्वामित्र, वशिष्ठ, पाराशर आदि के वंशज बनने वाले ब्राह्मण चपरासी और सिपाही की छोटी-छोटी नौकरी कर रहे हैं, जूते बनाने तथा धोबी की दुकान में भी काम करते दिखलाई पड़ते हैं और दो चार पैसे के लिये झूठ और बेईमानी करने को तैयार रहते हैं। ऐसे लोगों को किस प्रकार ब्राह्मण माना जाय, किस प्रकार उनको लोकोत्तर सम्मान दिया जाय और किस प्रकार उन्हें समाज का सर्वोच्च संचालक बनाया जाय? यदि कोई समाज ऐसा करेगा तो उसका पतन सुनिश्चित है। इसलिए हमको ब्राह्मण के वास्तविक आदर्शों का ध्यान रखते हुए अधिकाधिक तप व त्याग का उदाहरण उपस्थित करना चाहिए तभी ब्रह्मणत्व की रक्षा हो सकेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles