प्राचीन भारत में गणतन्त्र शासन

April 1959

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आजकल लोग ऐसा समझने लगे हैं कि गणतन्त्र नामक शासन व्यवस्था आज के युग की ही एकमात्र देन है। ऐसा समझना वास्तव में भ्रान्ति मूलक ही है क्योंकि हमारे प्राचीन ग्रन्थों में यत्र तत्र इसका वर्णन मिलता है। “महाभारत” के शाँति पर्व में भीष्म पितामह ने गणराज्यों के विषय में बतलाया था कि—

‘ज्ञानवृद्ध पुरुष गणराज्य के नागरिकों की प्रशंसा करते हैं। संघबद्ध लोगों के मन में आपस में एक दूसरे को ठगने की दुर्भावना नहीं पैदा होती। वे सब एक दूसरे की सेवा करते हुये सुखपूर्वक उन्नति कर सकते हैं।’

‘गणराज्य के श्रेष्ठ नागरिक शास्त्र के अनुसार धर्मानुकूल व्यवहारों की स्थापना करते हैं। वे यथोचित दृष्टि से सबको देखते हुये उन्नति की दिशा में आगे बढ़ते जाते हैं।

‘गणराज्य के श्रेष्ठ पुरुषों और भाइयों को भी यदि वे कुमार्ग पर चलें तो दंड देते हैं। सदा उन्हें उत्तम शिक्षा प्रदान करते हैं। उनके शिक्षित एवं मर्यादित हो जाने पर उन सबको बड़े आदर से अपनाते हैं। इसलिये वे विशेष उन्नति करते हैं।’

‘गणराज्य के नागरिक गुप्तचर या दूत का काम करने, राज्य के हित के लिये गुप्त मंत्रणा करने, विधान बनाने तथा राज्य के लिये कोष संग्रह करने आदि के लिये सदा उद्यत रहते हैं, इसलिये सब ओर से उनकी उन्नति होती है।’

‘संघ राज्य के सदस्य सदा बुद्धिमान, शूरवीर; महान उत्साही और सभी कामों में दृढ़ उत्साह का परिचय देन वाले लोगों का सदा सम्मान करते हुये राज्य की उन्नति के लिए उद्योगशील बने रहते हैं। इसीलिये वे शीघ्र आगे बढ़ जाते हैं।’

‘गणराज्य के सभी नागरिक धनवान, शूरवीर, अस्त्रों-शस्त्रों के ज्ञाता तथा शास्त्रों के पारंगत विद्वान होते हैं। वे कठिन विपत्ति में पड़े लोगों का उद्धार करते रहते हैं।’

‘गण के मुख्य व्यक्तियों को परस्पर मिलकर समस्त गणराज्य के हित का साधन करना चाहिये। अन्यथा यदि संघ में फूट होकर पृथक् पृथक् कई दलों का विस्तार हो जावे तो इनके सभी कार्य बिगड़ जाते हैं और बहुत से अनर्थ पैदा हो जाते हैं।’

‘जाति और कुल में सभी एक समान हो सकते हैं, परन्तु उद्योग, बुद्धि और रूप सम्पत्तियों में सबका एक-सा होना संभव नहीं है। शत्रु लोग गणराज्य के लोगों में भेद बुद्धि पैदा करके तथा उनमें से कुछ लोगों को धन देकर भी समूचे संघ में फूट डाल देते हैं, अतः संघ-बद्ध रहना ही गणराज्य के नागरिकों का महान् आश्रय है।’

—महाभारत


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