हम व्रत धारण करेंगे-आगे बढ़ेंगे?

April 1959

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अपना परिवार जागृत आत्माओं का संगठन है। जो जितना ही जागृत एवं विवेकशील है उसकी जिम्मेदारी भी उतनी ही बड़ी होती है। पागल और बच्चे कोई बहुत बुरी बात कर बैठें तो भी उनको विशेष दोष नहीं दिया जाता क्योंकि उनका चेतना केन्द्र अविकसित है। पशु और भी गंदे काम करते हैं पर उनकी क्रियाओं की कोई निन्दा नहीं करता। वे जहाँ भोजन करते हैं वही मलमूत्र भी त्यागते रहते हैं, भोजन और मल त्याग की क्रियाएं साथ-साथ चलाते रहते हैं, सब के सामने बिना वंश गोत्र कुटुम्ब का विचार किये काम सेवन में कोई लज्जा या संकोच नहीं करते, गुप्त अंगों को ढकने की भी उन्हें आवश्यकता अनुभव नहीं होती। पशुओं की यह बातें मनुष्यों की आचार संहिता के सर्वथा प्रतिकूल हैं कोई मनुष्य ऐसा ही पशुओं जैसा आचरण करे तो उसकी सर्वत्र निन्दा की जायगी। मनुष्य का विवेक जागृत है इसलिए उससे अनेकों मर्यादाएं पालन करने की आशा की जाती हैं। वह यदि उसमें उपेक्षा बरतता है तो सामाजिक एवं राजकीय दंड और निन्दा का भागी बनता है पर अविवेकी पशु के सामने इस प्रकार की कोई कठिनाई नहीं आती।

विवेकशीलता और आत्मिक जागृति के आधार पर जिम्मेदारी बढ़ती है। ब्राह्मण की नैतिक जिम्मेदारी अन्य वर्णों की अपेक्षा कहीं अधिक मानी गई है। फल की चोरी कर लेने पर साधारण लोगों के लिए बहुत हलके दंड विधान की व्यवस्था है पर महाभारत में शंख और लिखित की कथा जिसने पढ़ी है वे जानते हैं कि सगे भाई के बगीचे से बिना पूछे फल तोड़ लेने के प्रायश्चित में “लिखित ने अपने फल चुराने वाले हाथ कटवाकर प्रायश्चित किया था। सिंह, सुअर आदि हिंसक एवं हानिकारक पशुओं को तथा सर्प बिच्छू आदि कीड़ों को मारने की साधारण लोगों को धार्मिक छूट है, क्षत्री के लिए तो इस प्रकार की हिंसा-प्रजा की रक्षा की दृष्टि से कर्तव्य भी मानी गई है, पर ब्राह्मण की उच्च आध्यात्मिक स्थिति के कारण प्राणिमात्र पर दया करना ही उसका धर्म ठहराया गया है।

एक ऋषि द्वारा नदी में बहते हुए बिच्छू के निकलने और डंक मारने पर भी उसे क्षमा कर देना, इतना ही नहीं बार-बार नदी में बहने लगने पर उसे बार-बार निकालने की कथा प्रसिद्ध है। शाप देकर या युद्ध करके राक्षसों को मार डालने की शक्ति से सम्पन्न होते हुए भी विश्वामित्र ने यह कार्य अपने लिए अनुपयुक्त समझा और यज्ञ रक्षा के लिए राम लक्ष्मण के लिवा कर लाये। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें जागृत आत्माओं की विशेष जिम्मेदारी स्पष्ट होती है। फौजी कप्तान अपने कर्तव्य में जरा भी उपेक्षा करे तो उसे गोली से शूट कर देने का कोर्ट मार्शल किया जाता है पर चुँगी का चपरासी भारी लापरवाही करने पर भी एक दो रुपया जुर्माने की सजा पाकर छूट जाता है। जागृत आत्माओं की जिम्मेदारी निश्चय ही बहुत अधिक है। उनके लिए उस जिम्मेदारी की उपेक्षा उतनी ही बुरी है जितनी साधारण लोगों के लिए चोरी, डकैती आदि बुराइयाँ।

अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य—अपनी विवेकशीलता और उच्च आध्यात्मिक स्थिति के कारण भारतीय तत्व ज्ञान के आधार पर ब्राह्मण संज्ञा में ही आते हैं। ब्राह्मण की यह परम पवित्र जिम्मेदारी है कि आध्यात्मिक गुणों में अपने आपको साधारण लोगों की उपेक्षा ऊँचा कर ले और दूसरे लोग जिस प्रकार भौतिक सुख साधनों को प्रधानता देते हैं उसी प्रकार वह धर्म एवं समाज की सेवा को अपने कर्तव्य क्षेत्र में प्रधानता दे। जिस प्रकार किसी परिवार के गृह संचालन में बुजुर्ग को अपने कुटुम्ब के प्रत्येक सदस्य पर दृष्टि रखनी पड़ती है उसी प्रकार ब्राह्मण सारे समाज की सुख-शाँति का जिम्मेदार है। कुटुम्ब के लोग कुमार्गगामी, निन्दित, दीन दुःखी फिरें तो उस घर का बुजुर्ग—इसमें अपनी असफलता और निन्दा समझता है तथा उन परिस्थितियों को संभालने की वैसी ही चिन्ता करता है, जैसे कोई साधारण मनोभूमि का व्यक्ति अपने निज के शरीर को सुखी बनाने के बारे में सोचता और करता है।

ब्राह्मण सारे समाज की चिन्ता और सार-सँभाल करने का जिम्मेदार है। विशेषतया समाज के भावना क्षेत्र को सुव्यवस्थित रखने की जिम्मेदारी उसी की है। यदि कोई समाज नैतिक, चारित्रिक, साँस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टि से गिरता है तो समझना चाहिए कि उस राष्ट्र का ब्राह्मण पतित हो गया। जिस समाज में जागरुकता हो, वहाँ सत्पुरुषों की बहुलता रहेगी और वह समाज सब प्रकार सुखी, समृद्ध, समुन्नत एवं अग्रगामी रहेगा।

आज हमारा राष्ट्र शारीरिक, आर्थिक, बौद्धिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि में दुर्बल है पर वह उतनी चिन्ता की बात नहीं, जितनी कि उसकी नैतिक, सामाजिक एवं साँस्कृतिक दुर्बलता। इस दुर्बलता के कारण में प्रधान कारण यहाँ के ब्राह्मण वर्ग की कर्तव्यशीलता से शिथिलता ही हैं। इन पंक्तियों से हमारा मतलब किसी वंश या जाति में उत्पन्न होने वाले लोगों से नहीं है। हम जाति का प्रधान आधार गुण, कर्म, स्वभाव को मानते हैं।

ब्राह्मण वे हैं जिनकी आत्मा जागृत हैं। जिनका विवेक ऊँचा है, जो समाज की उन्नति अवनति में सुख-दुःख अनुभव करते हैं, जिन्हें विलासिता की अपेक्षा तपस्या प्रिय है और जिनमें निज की वासना एवं तृष्णा को पूरा करने में ही लगे रहने की अपेक्षा लोक सेवा एवं परमार्थ प्रवृत्तियों में अधिक अभिरुचि है। ऐसे ब्राह्मण ही किसी राष्ट्र के उज्ज्वल रत्न माने जाते हैं। उन्हीं की न्यूनता बहुलता पर समाज की उन्नति अवनति निर्भर रहती है। वे ही राष्ट्र की सच्ची दौलत माने जाते हैं। अखण्ड-ज्योति-परिवार ऐसे नर रत्नों का भाण्डागार है। इस संगठन को यदि राष्ट्र का एक विशेष सौभाग्य एवं उज्ज्वल भविष्य का आशादीप कहा जाय तो इसमें कुछ अत्युक्ति न होगी। भावी इतिहासकार ही इस श्रेष्ठ संगठन की महत्वपूर्ण सेवाओं का मूल्याँकन कर सकेंगे, आज तो उनकी स्थिति बहुत ही साधारण जैसी दीखती है।

गत बीस वर्षों में अखण्ड-ज्योति-परिवार के कर्म-ब्राह्मण सदस्यों ने अपनी जिम्मेदारी को जिस प्रशंसनीय ढंग से निवाहा है, उस पर हर्षोल्लास न सही, सन्तोष अवश्य प्रकट किया जा सकता है। अखबार पढ़ने के बुद्धि-विलास के लिए कोई इस परिवार का सदस्य नहीं बनता, कलेवर, मनोरंजन, आकर्षण आदि की दृष्टि में अखण्ड-ज्योति को एक घटिया पत्रिका कहा जा सकता है, उसमें बुद्धि विलासी लोगों को कुछ आकर्षण लगे ऐसी कोई बात दिखाई नहीं पड़ती। इस संगठन के सदस्य तो ब्राह्मण अभिरुचि के साथियों को एक सूत्र में आबद्ध होने, अपनी आन्तरिक स्थिति को अधिक अग्रगामी बनाने एवं मिल-जुलकर कुछ ठोस सेवा करने की दृष्टि से ही सम्मिलित होते हैं। अखण्ड-ज्योति पत्रिका तो इस योजना का एक संबंध सूत्र मात्र हैं। उसे अखबार, मासिक पत्र न कहकर एक चेतना, प्रेरणा एवं योजना कहा जाय तो उत्तम है अखण्ड-ज्योति की वास्तविक स्थिति यही है। इसके सदस्यों को अपने कर्तव्य के प्रति जागरुक कर्म ब्राह्मण कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

राष्ट्र के भावना क्षेत्र को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करने की दिशा में अब तक इस परिवार ने बहुत कुछ काम किया है। पर आगे जो करना है—जो शेष पड़ा हैं—वह अत्यन्त ही महान, विशाल एवं आवश्यक है। सहस्र कुँडी गायत्री महायज्ञ द्वारा अब इसी शेष कर्तव्य को पूरा करने के लिए सुनिश्चित योजना के अनुसार ठोस कदम आगे बढ़ाने का परिवार ने शपथ पूर्वक संकल्प किया है। अब उसे पूरा करने के लिए हम सबको अग्रसर होना है। इसमें उपेक्षा या ढील करना अब किसी भी प्रकार हमारे लिए शोभनीय न होगा।

महायज्ञ की पूर्णाहुति के समय उपस्थित परिजनों ने विधिवत् तीन प्रतिज्ञाएं लीं थी; पर मौन स्वीकृति के रूप में अपना सारा परिवार ही उन प्रतिज्ञाओं से आबद्ध है। (1) अपने निज के जीवन को अबकी अपेक्षा और भी अधिक आदर्श बनाने (2) सामाजिक जीवन में सत्प्रवृत्तियाँ पैदा करने (3) फैली हुई बुराइयों को मिटाने के लिए संघर्ष करने, के लिये अपनी प्रतिज्ञाओं के अनुसार हमें कार्य संलग्न होकर अपनी ब्राह्मण जिम्मेदारी को निवाहना है। परिवार के प्रत्येक सदस्य को अब इसके लिए जागरुक ,तत्पर एवं अग्रसर होना है।

हमें अब विधिपूर्वक यह व्रत लेना है कि अपने दैनिक जीवन में—अन्य आवश्यक कार्यों की भाँति धर्म कर्तव्यों को पूरा करने के लिए भी समय निकालना है। त्याग करना है, प्रयत्नशील रहना है। जिस प्रकार भोजन, स्नान, निद्रा, आजीविका, शरीर रक्षा, परिवार व्यवस्था आदि को दैनिक कर्तव्य माना जाता है, उसी प्रकार धर्म सेवा को भी अपना एक आवश्यक कर्तव्य मानेंगे। उसकी भी वैसी ही चिन्ता रखेंगे जैसी स्वास्थ्य, व्यापार या परिवार की रखते हैं। यह व्रत यदि भावना क्षेत्र में सुदृढ़ हो जाय, इस कर्तव्य को निवाहने की सच्ची इच्छा हो जाय तो समझना चाहिए कि ब्राह्मणत्व का, देवत्व का, ईश्वरीय प्रकाश अपनी आत्मा में प्रकाशवान हो गया। अपने परिवार के सदस्य जागृत एवं विवेकशील तो बहुत पहले से हैं, ब्राह्मणत्व के गुण और स्वभाव भी उनमें मौजूद हैं, पर अब तो एक कदम आगे बढ़ाना है। अब ऋषि जीवन में प्रवेश करना है। धर्म सेवा का व्रतधारी बनना है। व्रतधारी का तात्पर्य है दैनिक जीवन में धर्मसेवा के लिये स्थान रखना। विचार जब कार्य रूप में परिणत होते हैं तो वे शक्ति बन जाते हैं। अब लोगों की ब्राह्मण बुद्धि ऋषि प्रक्रिया में धार्मिक शक्ति के रूप में प्रकट होनी चाहिए। अब हमारा अन्तःकरण सद्भावनाओं का केन्द्र बने रहने तक ही सीमित न रहकर उस प्रकाश ज्योति से प्रकाशवान होगा। यह अपनी आत्मा का ही प्रकाश स्वरूप नहीं बनायेगा वरन् समीपवर्ती क्षेत्र को भी आलोकित कर देगा।

व्रतधारी बनने की पुनीत बेला आ पहुँची, युग निर्माण के लिए—नैतिक क्राँति के लिए—धर्म सेवा के लिए—जीवन का लक्ष प्राप्त करने के लिए हमें कदम बढ़ाना है। इस व्रत को जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता बनाना है। मानव जीवन के सुरदुर्लभ सौभाग्य को हम मिट्टी के मोल बर्बाद नहीं होने दे सकते, अपने परम पवित्र कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की उपेक्षा करना अब हमारे लिए सम्भव नहीं। चलिए, आगे चलें—कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ें। ईश्वरीय कर्तव्यों को पूरा करने के उद्देश्य से उपलब्ध इस जीवन यज्ञ में अपनी आहुतियाँ श्रद्धापूर्वक चढ़ाने की बेला में अब हममें से किसी को भी आगा पीछा नहीं सोचना है। संकोच, उपेक्षा या आलस्य को आड़े नहीं आने देना है। हमारे कदम बढ़ेंगे—आज से ही बढ़ेंगे। 


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