साधक इन भ्रान्तियों से बचें!

April 1959

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(श्री स्वामी शिवानन्द जी सरस्वती)

आध्यात्मिक साधक का मार्ग अत्यन्त दुर्गम है, ‘क्षुरस्यधारा’ इसका श्रुति प्रमाण है। यह मार्ग अनेकों बाधाओं,समस्याओं तथा संशयात्मक भीषण अरण्यों से होकर जाता है। इसमें एक विरोधी तत्त्व यह है कि हमारा मन ही हमारा शत्रु है, जिसे हमारा मित्र बनना चाहिए था और सद्परामर्श देना चाहिए था। यदि इस मन का संस्कार किया जाय तो यह हमारा वास्तविक मित्र बन जाता है। परन्तु यह तभी होता देखा गया है, जबकि साधक आध्यात्मिक-साधना में पर्याप्त रूप से अवसर हो जाता है। उस समय मन उसकी सहायता करने लगता है। जब तक यह अवस्था न आवे तब तक हमें अत्यन्त सावधान रहना चाहिये और उसकी कपट-क्रियाओं से सचेत रहना चाहिये। न जाने किस समय वह विद्रोह कर दे। यह अत्यन्त कूटनीतिज्ञ और वाममार्गी है। इसे महात्माओं ने प्रवंचक की संज्ञा भी दी है। मन की कला-कुशलता को जानने के लिये सर्वप्रथम सिद्धान्त यह है कि साधक यह अनुभव करले कि वह मन को अच्छी तरह जानता है, अतः मन उसको धोखा नहीं दे सकता। साधारणतः ऐसा नहीं होता। असावधान साधक यह विश्वास करने लगता है कि मैं मन का स्वामी हूँ। फल यह होता है कि मन उसकी बौद्धिकता को अपहृत कर लेता है और अपना कपटजाल सूक्ष्म-विधान से बिछा देता है।

आपने यह तो सुना होगा कि शैतान भी अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये धर्म-शास्त्र का उद्धरण दे सकता है। इसी प्रकार मन बुराइयों में लिप्त होने के लिये तत्कथित गुण का प्रयोग करता है। इसमें वाद-विवाद की स्वाभाविक इच्छा होती है, यह भ्रान्ति है। अपने पक्ष में गर्हित-कार्य को न्यायसंगत सिद्ध करने के लिए अच्छे सिद्धान्तों का उपयोग करता है और जब तक इसकी गम्भीर समीक्षा न की जाय, यह कपट नहीं प्रकट होता।

इन वाद-विवादात्मक सिद्धान्तों का (कुछ का ही) वर्णन नीचे किया जाता है। यह वास्तविक साधकों के लिये, जो आपने मन का अध्ययन करना चाहते हैं तथा तत्सम्बन्धी दोषों तथा त्रुटियों का परिहार करना चाहते हैं, उपयोगी सिद्ध होंगे। जो साधक व्यवहार परायण है उनके लिये भी यह सिद्धान्त विशेष लाभदायक सिद्ध होंगे।

(1) विवादात्मक भ्रांति

साधकों से कहा जाता है, जब तुम स्त्रियों में रहो तो देवीभाव अथवा मातृभाव की अनुभूति करो। यह आपकी पवित्रता तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिये महान् सिद्धान्त है। किन्तु इससे यह अर्थ नहीं कि आप स्त्रियों में रहो और इसका यह तात्पर्य भी नहीं कि आप अपने विरोधी लिंग से सीमा को तोड़कर बिना किसी मर्यादा के मिलते जुलते रहो। मन यह प्रश्न करेगा-क्यों नहीं? यदि करूं तो कैसा? उनकी उपस्थिति में अपसरण सर्वथा कायरता है। जब हम देवी-भाव से विचार करते हैं तो भय कैसा? सावधान साधकवृन्द ! इन विचारों से सावधान ! ईश्वरीय भाव इस बात का प्रमाण नहीं है कि साधक के मार्ग की सम्पूर्ण बाधायें दूर हो गयीं। अतः साधकों के लिये स्थायी नियम यही है कि विरोधी लिंग के साथ समस्त संपर्क त्याग दें। हाँ जब कभी ऐसा संपर्क अनिवार्य हो जाय तो देवी-भाव रखना न्यायसंगत है। इसके साथ ही साधकों को स्त्री-विरोधी होने अथवा उनसे घृणा करने से निषेध किया गया है। पूजा करो, जैसा कहा गया है, किन्तु कुछ दूर से। देवी भाव तथा मातृ-भाव के सिद्धान्त से यह विचार नहीं करना कि तुम सदा उन्हीं के साथ रहो। अपने मन की इस विवादात्मक प्रवृत्ति को रोको।

(2) विवादात्मक भ्राँति

इसके पश्चात् एक शिक्षा इस प्रकार है—तुम फुफकार सकते हो परन्तु काटना नहीं। अर्थात् तुम दूसरे को उसके सामने धमका सकते हो, उसको अपमानित भी कर सकते हो, किन्तु उसके विनाश के लिए कर्त्तव्यपरायण न होना। फुफकारने का यह सद्परामर्श उस सर्प को दिया गया है, जो अधिक धार्मिक बनने के फेर में ऐसा निरीह और निर्बल बन गया कि कुछ दुष्ट बालकों ने उसे उत्पीड़ित करना प्रारम्भ कर दिया था। जानते हो यह केवलमात्र भीत गृहस्थों को जो अपने व्यावहारिक जीवन में कठिन परिस्थितियों का सामना करते हैं एक परामर्श मात्र है। यदि इस व्यावहारिक जीवन में अवन्ती के ब्राह्मण की भाँति अत्यधिक मात्रा में विनम्रता का अनुसरण किया जायगा तो सर्वत्र-व्याप्त आसुरिक-तत्वों के बीच जीवन धारण करना असम्भव हो जायगा। अतएव जहाँ तक हो सके तुम्हारी मौलिक-भद्रता तथा भ्राततत्व पर प्रभाव न पड़े, बाहरी निरपेक्षता का प्रदर्शन क्षम्य है, किन्तु साधना तथा निवृत्ति मार्ग पर चलने वाले साधक को यह परामर्श नहीं दिया जा सकता। अवश्यमेव नहीं। साधकों को इस बात पर ध्यान रखना चाहिए कि साधक के लिए दंशन तो दूर रहा फुफकार की भी आज्ञा नहीं है, क्योंकि फुफकारना शीघ्र ही उसके स्वभाव का अंग हो जायगा और समय-असमय तुम हर वस्तु पर, हर बात के लिये हर एक फुफकार छोड़ने लगोगे। इस फुफकार में सब प्रकार की उद्दंडता-प्रचण्ड तर्क वितर्क, चुभते व्यंग्य, कठोर उत्तर, चिल्लाहट तथा कटु शब्द भी सम्मिलित हो जायेंगे। अन्त में शारीरिक-हिंसा तथा मारपीट, प्रत्येक प्रकार की अमानुषिक निर्दयता फुफकार की ही श्रेणी में रख दी जायगी और इससे आध्यात्मिकता का सर्वनाश हो जायगा। मन इसके लिये सदा प्रतीक्षा करता रहता है कि वह आपके अनुग्रह का अनुचित लाभ उठाये। इसकी स्वाभाविक गति अधोमुखी है। अतः न तो दंशन करो और न फुफकार ही। मधुर-स्वभावी, विनम्र तथा सभ्य बनो। यदि फुफकारना ही चाहते हो तो अपने ही मन पर फुफकारो। अहंकार त्याग करते हुए, षड्वैरियों का दमन करो। मन से सावधान रह इस विवादात्मक-प्रवृत्ति के दास मत बनो।

(3)विवादात्मक-भ्राँति

एक परामर्श यह है कि दृढ़ निश्चयी बनो, अपने सिद्धान्तों में दृढ़ रहो, एक अणु भी विचलित न होना। यह सिद्धान्त सत्यशील साधक के लिए सर्वोत्तम परामर्श है, किन्तु अभाग्यवश यह हठवादिता का आदेश बन गया है। यह तामसिक गुण है। किन्तु मन तुम्हें यह निश्चय करा देगा कि तुम आत्म-बल प्रकट कर रहे हो। यह आपको अहंकार के साथ संश्लिष्ट करा देगा। परन्तु सत्यशील साधक सात्विक-निष्ठा तथा हठवादिता में सावधानी के साथ विवेक करता है। आत्मबल ऐसी सस्ती वस्तु नहीं है, जो बिना किसी नियंत्रण तथा साधन के तथा बिना इच्छाशक्ति की पवित्रता के प्राप्त हो सके। इसके लिए समस्त साँसारिकता तथा अपने जीवन का मूल्य त्यागना पड़ता है तथा आत्म बलिदान करना पड़ता है। इन सिद्धान्तों से यही अर्थ निकलता है कि सत्य तथा दृढ़प्रतिज्ञ रहो, परन्तु आत्म-प्रपंचक भावनाओं के प्रति नहीं। सब प्रकार के योगानुष्ठानों से दृढ़ बर्द्धित रहो, किन्तु हठवादिता से बचो। हठवादिता तो भ्रममूलक विवादात्मक प्रवृत्ति है और सत्यानुशीलन तथा सद् निष्ठा आत्म जागृति का साधन है।

(4)विवादात्मक-भ्राँति

सदा सत्य बोलो तथा स्पष्टवादी बनो। यह भी एक उपदेश है। इसका यह अर्थ है कि जब तुम्हें बोलने की आवश्यकता हो तो केवल सत्य बोलो। इसमें यह तात्पर्य नहीं कि किसी स्त्री अथवा किसी पुरुष के सामने तुम्हारा जो विचार हो उसे उसके मुँह पर कहते फिरो। यह तो अनावश्यक व्यवहार है। स्पष्टता के बहाने दूसरों की भावनाओं का विचार किए बिना ही अपनी स्वतन्त्र-सम्मतियों को प्रकट करना आर्जव तथा स्पष्टवादिता नहीं है, वरन् यह एक प्रकार की विचार हीनता और निर्दयता की सीमा है। इससे साधक की प्रशंसा नहीं होती।

जो उपदेशक आपको सत्य एवं स्पष्ट बोलने का आदेश देता है, वही यह भी उपदेश देता है कि मिष्ठ-भाषण और मधुर वचन कहो। मैं तो इस विचार का हूँ कि अरुचिकर सत्य का अकथित रहना ही श्रेयस्कर है। यदि यह अनिवार्य हो जाय तो उसके अभिप्रकाशन की रीति है, वह है नम्र विज्ञप्ति, जिससे दूसरों की भावनाओं पर चोट न लगे। यह भी तो सत्य भाषण है। याद रखो कि सत्यात्मकता तथा अहिंसा साथ-साथ चलनी चाहिए।

(5) विवादात्मक -भ्राँति

यह सत्य है कि वैराग्य एक मानसिक अवस्था एवं अनासक्ति है। मनुष्य का स्वभाव है कि इस परिभाषा का उपयोग इंद्रिय-जीवन की उपयोगिता को सिद्ध करने के लिए करता है। अतः तर्क किया जाता है कि मैं इन सबमें आसक्त नहीं हूँ, मैं एक क्षण में इनसे ऊपर उठ सकता हूँ। मैं तो स्वामी के समान इनका आनन्द लेता हूँ। मान से तो मैं अनासक्त हूँ। साधकों! क्या आपको स्मरण नहीं है कि विषयों के संपर्क से विश्वामित्र के समान तपस्वी भी पतित हो गए। अतः वैराग्य को साधारण भाव से ग्रहण मत करो। श्रमपूर्वक वैराग्य का अर्जन करना पड़ेगा और सावधानी से उसकी रक्षा करनी पड़ेगी।

तपस्या की चरम सीमा तक जाने पर भी यही दशा होती है। मनुष्य की साधारण प्रकृति इन्द्रियजन्य है। मन आनन्द से प्रेम तथा संयम से घृणा करता है। अविवेकी साधक निज विशेषता को सत्वर ही भूल जाता है और सभी तपस्याओं को अप्रियकर ही समझता है। तत्परिणामतः वह भोग में लिप्त हो जाता है और तितिक्षा-शक्ति का त्याग कर देता है तथा सहस्रों आवश्यकताओं का दास बन जाता है। यहाँ मूर्खतापूर्ण अति से सावधान किया गया है किन्तु यह भी साथ-साथ समझना कि साधना की प्रारम्भिक अवस्था में विकास के निमित्त कुछ अंशों तक तितिक्षा अनिवार्य है। मन गीता का उदाहरण भी देगा कि भगवान् ने तामसिक तप की निन्दा की है। उन्होंने शरीर, वाणी तथा मन के सात्विक-संयम की प्रशंसा की है। अतः सावधानी से विचार स्थिर करना चाहिए।

(6) विवादात्मक-भ्राँति

अन्त में सबसे भयंकर धोखा, जो मन देता है वह स्वयं साधना के सम्बन्ध में है। साधक जिस साधन का उपयोग अपने जीवन के उत्थान तथा उस को दिव्यतम बनाने के लिये करता है, वही अहंकार तथा इन्द्रियों का कौतुक बन जाता है। यह जाल ऐसा है, जिसको क्षत-विक्षत करना अत्यन्त दुरूह है। यहाँ तक कि साधक की सालों की साधना का विकास रुक जाता है। उदाहरण के लिए देखिए, कोई साधक मधुर राग तथा संगीत प्रियता के कारण अपनी साधना के लिए कीर्तन चुनता है। कला के प्रशंसक तो मिल ही जाते है। अतः प्रत्येक अवसर पर उसको निमन्त्रण आने लगता है। सत्संगियों को उससे प्रेम भी होने लगता है। अब मन अपना जाल बिछाता है। कीर्तन दिन-पर-दिन मधुरतर होता जाता है, उसमें नित्य नवीन राग और आलाप का संयोग होता जाता है। इस प्रकार साधना दुमुखी हो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि साधक जाल में पूरी तरह फँस जाता है और उसकी साधना मोक्ष के स्थान पर बन्धन का कारण बन जाती है।

निष्काम कर्म योग ही लो। बिना किसी प्रतिफल के परोपकार तथा सेवा करना इस संसार में नहीं सुना जाता। अतः निष्काम सेवक असाधारण माने जाते हैं। उनके लिये सभी के द्वार खुले हैं। सभी लोग अपनी कष्ट गाथायें उसे सुनाते हैं, अपना अन्तर खोल देते हैं तथा अपनी व्यक्तिगत गोपनीय समस्यायें भी उसके समक्ष उपस्थित कर देते हैं। क्योंकि उनका विचार रहता है कि निष्काम योग सभी बातों में पवित्र है। यहाँ साधकों को छुरे की धार पर चलना पड़ता है। सेवा के लिए तत्कथित पथ पर अभिन्न हृदयता तथा दम्भ का परिपोषण होता है और साधक भी निष्काम सेवा में अत्यन्त प्रेम रखता हुआ प्रतीत होता है। परन्तु मैं यह बताना चाहता हूँ कि यह अनुराग इन्द्रिय परायणता के कारण ही है न कि सेवा भावना के कारण।

इसी प्रकार से तितिक्षु साधक भी इसमें रत रहता है, क्योंकि उसकी प्रसिद्धि जो हो जाती है। उसकी आप पूजा करने लगते हैं। साधना का लक्ष्य ही बदल जाता है।


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