मानवता का अभिनन्दन (kavita)

April 1959

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प्यार करो जीवन से साथी भय न मरण से मानो।

कर्म-साधना के रहस्य को अंतर में पहचानो॥

जीवन के संकल्प नियम के सदृश अनित्य बनाओ।

बनो नहीं देवता स्वयं को मानव किंतु बनाओ॥

व्यर्थ न जाय किसी तरह भी यह जीवन की थाती।

पथ का अंधकार हरने को जलो स्वयं बन बाती॥

आओ जीवन की कर्मठता को दो नूतन भाषा।

अमृत-घट से भरो मनुजता का मानस चिर प्यासा॥

यह विभेद, विद्वेष, विषमता के सब बंधन तोड़ो।

नहीं चरण को पथ पर, पग की ओर पंथ को मोड़ो॥

लक्ष्य-तीर्थ-पाथेय बने अभिनव अभियान तुम्हारा।

नव सर्जन का भवन बने अब संस्कार की कारा॥

युग के मोहक आमंत्रण को तुमने यदि स्वीकारा।

जन-जन में,कण-कण में जय-जागृति का स्वर गुँजारा॥

अरुण उषा का चेतनता अंतस में स्वयं उतारी।

तब यह मरुस्थल बन जायेगा कुँकम-केसर क्यारी॥

याद रखो जन-जन मिलकर ही अजय राष्ट्र रचते हैं।

जनता में ही राष्ट्र-देवता मोद सहित बसते हैं॥

“पंचायती राज्य”


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