आप भी प्रेस और पत्र-संचालक बन सकते हैं!

April 1959

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(श्री सत्यभक्त जी)

वर्तमान समय आन्दोलन और प्रचार का युग है। जब तक देश में राजाओं या बादशाहों की हुकूमत थी तब तक लोगों को राजनीति, अर्थनीति और धर्म आदि के सार्वजनिक मामलों में किसी तरह का दखल देने का अधिकार न था। इसलिये देश और विदेशों में होने वाली घटनाओं या परिवर्तनों की तरफ ध्यान देने की न कोई जरूरत थी और न उसका कोई महत्व ही जान पड़ता था। पर जब से जन-सत्ता का उदय होने लगा, शासन प्रबन्ध जनता के चुने हुये प्रतिनिधि करने लगे, शासकों को जनता के सामने अपने कामों को कैफियत देने का नियम बनाया गया, तब से परिस्थिति में क्राँतिकारी परिवर्तन होने लगे। अब सिद्धाँत की दृष्टि से सार्वजनिक विषयों में प्रत्येक देशवासी का समान अधिकार माना जाता है और यदि मनुष्य साहस तथा व्यावहारिक बुद्धि से काम ले तो उनकी बात न्यूनाधिक अंशों में सुनी ही जाती है। अब सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने से किसी को रोका नहीं जा सकता और अनेक साधारण अथवा निम्न श्रेणी के व्यक्ति भी ऊँचे से ऊँचे दर्जे पर पहुँच जाते हैं। विदेशों में हिटलर, मुसोलिनी और हमारे देश में सरदार पटेल, डॉ. अम्बेडकर आदि इस तथ्य के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि यदि मनुष्य में वास्तविक योग्यता और कार्यक्षमता हो तो उसको उन्नति के उच्च शिखर की तरफ अग्रसर होने से को रोक नहीं सकता।

वर्तमान समय में सार्वजनिक जीवन में प्रविष्ट होने और सफलता प्राप्त करने के मुख्यतः दो ही मार्ग हैं एक वाणी का और दूसरा कलम का। इसका आशय यही है कि आप में ऐसी कोई शक्ति होनी चाहिए कि जिसके द्वारा आप अपने विचारों या मन्तव्यों को जनता के सामने प्रभावशाली रूप में उपस्थित कर सकें और लोगों को उनकी उपयोगिता तथा श्रेष्ठता का विश्वास दिला सकें। एक तीसरा मार्ग अपने कार्यों और कर्तव्यपालन द्वारा लोगों का प्रभावित और आकर्षित करने का भी है और वास्तव में यही सबसे उच्चकोटि का सत्य मार्ग है। पर खेद से कहना पड़ता है कि संसार की वर्तमान परिस्थिति में इस मार्ग का महत्व कम पड़ गया है, क्योंकि जो व्यक्ति चुपचाप काम करता है उसकी तरफ जनता का ध्यान बहुत देर से जाता है और तब तक प्रचार और आँदोलन कार्य में निपुण लोग बाजी मार ले जाते हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं कि ठोस सेवा कार्य करना आवश्यक अथवा निरर्थक है। जनहित का निःस्वार्थ भाव से कार्य करना तो सदैव प्रशंसनीय माना ही जायगा, पर उसके साथ प्रचार कार्य का भी संयोग होना चाहिये। वास्तविक बात यह है कि न तो चुपचाप कर्तव्यपालन करने वाले को और न कर्तव्यशून्य कोरे प्रचारक और आन्दोलनकारी का सफलता मिल सकती है। सफलता उसी को प्राप्त होगी जो कर्तव्यपालन और प्रचार का उचित सामञ्जस्य कर सकता है। मुख्य चीज जनसेवा और कर्तव्य पालन ही है पर सार्वजनिक क्षेत्र में सफल होने के लिये उसके साथ प्रचार कार्य भी अनिवार्य है।

प्रचार के उपर्युक्त दोनों साधनों—वाणी और कलम में से प्रथम साधन में प्रकृतिदत्त अंश अधिक माना जाता है। वैसे लगातार अभ्यास और सतत् प्रयत्न से भी मनुष्य काम लायक अच्छा वक्ता बन सकता है पर स्वाभाविक वक्तृत्व-शक्ति कुछ और ही चीज होती है। हम सभा सम्मेलनों में प्रायः देखा करते हैं लोग विद्वानों और शास्त्र के मर्मज्ञों के भाषण से उठकर चले जाते हैं और अनेक साधारण विद्या बुद्धि के वक्ताओं पर जनता लट्टू हो जाती है।

पर दूसरा साधन कलम प्रायः इसके विपरीत है। इसमें प्रकृतिदत्त अंश कम और अभ्यास का महत्व ही विशेष समझना चाहिये। हम बिल्कुल कूढ़मगज लोगों की बात तो नहीं कहते पर जो लोग पढ़ने-लिखने में सामान्यतः सफल हों और जिनकी औसत दर्जे की तीक्ष्ण बुद्धि हो वे इस कार्य में भली प्रकार अग्रसर होकर उल्लेखनीय सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इस मार्ग को ग्रहण करने वाले व्यक्तियों में सबसे पहला गुण स्वाध्याय-प्रेम होना आवश्यक है। हम जितना अधिक सद्ग्रन्थों को, विभिन्न विषयों पर विद्वानों की कृतियों को पढ़ेंगे उतना ही अधिक हमारा ज्ञान-भंडार बढ़ेगा और हम अपने लेखों में उपयुक्त सामग्री इकट्ठी कर सकेंगे। दूसरे, इसी प्रकार के स्वतंत्र और पर्याप्त परिमाण में किये गये अध्ययन से हमारा भाषा ज्ञान परिपक्व हो सकेगा और हम विभिन्न शैलियों का अनुशीलन करके अपने लिये भी किस एक शैली का अभ्यास दृढ़ कर सकेंगे। हमारा एक यही अनुमान है कि जिस व्यक्ति को स्कूल या कालेज में कुछ पढ़ने-लिखने का अभ्यास हो चुका है, वह इस कार्य में मन लगाकर उद्योग करने से चार-छह महीने में पत्रकार कला के साधारण नियमों को जान सकता है और धीरे-धीरे थोड़े समय में पत्र संचालन का अनुभव प्राप्त कर सकता है। यदि यह अभ्यास किसी संस्था या योग्य विद्वान की देख-रेख में किया जाय तो शीघ्र ही उन्नति हो सकती है और सीख ने वाला विधिवत् मार्ग से अग्रसर होकर एक-दो वर्ष में ही सफल पत्रकार बन सकता है।

यों तो प्रेस और पत्रकार के कार्य की हमारे देश में पिछले पचास-साठ वर्षों में काफी प्रगति हुई और समाचार पत्रों तथा पाठकों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है, पर जब से देश ने स्वाधीनता की है और शासन की बागडोर पूर्णतया भारतीयों के हाथ में आई है तब से समाचारपत्रों का महत्व बहुत बढ़ गया है और उनके पाठकों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। अब से बीस पच्चीस वर्ष पहले जहाँ प्रथम श्रेणी के हिन्दी पत्रों की 8-10 हजार प्रतियाँ बिक जाना बड़े सौभाग्य की बात समझी जाती थी, अब 25-30 हजार प्रतियों वाले कई पत्र निकल रहे हैं। इसका कारण यही है कि स्वाधीन भारत में जहाँ की प्रजा शासन पर थोड़ा बहुत नियंत्रण रखती है, अथवा विरोधी प्रदर्शन करके अपनी माँगों को मनवा सकती है, वहाँ सभी को—चाहे वह नौकर हो, चाहे व्यापारी-चाहे किसान, शासन की गतिविधि और नये-नये सरकारी नियमों की जानकारी रखना आवश्यक समझा जाता है। इसके बिना जन साधारण अपने प्राप्त अधिकारों से कोई लाभ नहीं उठा सकते और न हानिकारक कार्यों को रुकवा सकते हैं।

इन कारणों से आजकल समाचार पत्रों की आवश्यकता बढ़ती जाती है और पिछले दस वर्षों में सैकड़ों नये पत्र निकले भी हैं। पर अभी तक ये बड़े या छोटे शहरों से ही निकले हैं। साथ ही एक बात यह भी है कि छोटे शहरों में समाचारपत्रों का खर्च नहीं निकल पाता, इसलिये समाचारपत्र वालों को पहले जमाने में तो देश हितैषी या समाज हितैषी लोगों की सहायता से काम चलाना पड़ता था और आजकल किसी राजनीतिक पार्टी का सहारा लेना पड़ता है या किन्हीं बड़े आदमियों की खुशामद करके खर्च वसूल करना पड़ता है। पर ये दोनों ही तरीके प्रशंसनीय नहीं कहे जा सकते। हमारी सम्मति में अब देश के अधिकाँश भाग में ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गई है कि वहाँ गाँवों में भी छोटे-छोटे समाचार पत्र ईमानदारी के साथ चलाये जा सकते हैं और उनके द्वारा जनता की सेवा करते हुये अपना भी जीवन निर्वाह सुगमतापूर्वक किया जा सकता है।

पर इस प्रकार की योजना तभी सफल हो सकती है कि जब कार्यकर्ता जनता की सेवा को अपना लक्ष्य बना लेवें, झूँठे अहंकार को त्यागकर छोटा और बड़ा सब काम अपने हाथ से करने को तैयार हों, और व्यवहार में सचाई का पूरा ध्यान रखें। ऐसे कार्यकर्ता को प्रेस के कम्पोज और छपाई का अभ्यास स्वयं कर लेना चाहिये और स्वयं ही समाचार इकट्ठे करके लिखने और पत्र-सम्पादन का कार्य सीख लेना चाहिये। इसका कारण यह है कि छोटे स्थानों में समाचारपत्र निकालने में इतनी आमदनी नहीं हो सकती कि उससे कई व्यक्तियों का खर्च चल सके। साथ ही उन पत्रों में इतना काम भी नहीं होता कि उसमें कई व्यक्ति लगे रहें। अमरीका के गाँवों में इस प्रकार के पत्र निकलते हैं जिनकी छपाई और सम्पादन का कार्य एक ही व्यक्ति कर लेता है और स्वयं ही जाकर अपने ग्राहकों को अखबार पहुँचा आता है। ऐसे व्यक्ति कुछ ही समय में अपने छोटे से क्षेत्र के लोक प्रिय कार्यकर्ता (और वास्तविक अर्थों में वहाँ के नेता) बन जाते हैं। स्वामी सत्यदेव जी ने अपनी “अमरीका भ्रमण” नामक पुस्तक में एक ऐसे ही वृद्ध सज्जन का जिक्र किया है जो एक छोटे से गाँव में एक अखबार निकालते थे और उसका समस्त काम स्वयं ही अपने हाथ से कर लेते थे।

अगर दस-बारह छोटे गाँवों का केन्द्र बनाकर एक गाँव में ऐसा प्रेस स्थापित किया जाय तो उसे अखबार के सिवाय समय-समय पर छपाई का भी थोड़ा सा काम मिल सकता है। अब गाँव-गाँव में पंचायतें कायम हो गई हैं और उनको बहुत से महत्वपूर्ण कार्य करने पड़ रहे हैं, विवाह शादी में भी शहरों की देखा देखी अनेक लोग निमंत्रण बधाई आदि छपाने लगे हैं, छोटे स्थानों के व्यवसायी भी अब छोटे बड़े पर्चे छापने लगे हैं। अगर अपने निकट ही कम खर्चे में छपने की व्यवस्था हो तो इस प्रकार की अनेक नई-नई चीजें छापने को मिल सकती हैं और उनसे भी साधारण आमदनी हो सकती है।

इस प्रकार का प्रेस वर्तमान समय में पाँच सौ से लेकर एक हजार रु. में आरम्भ किया जा सकता है। इसमें एक छोटे हैण्डप्रेस से काम चलाना होगा। जहाँ दो तीन मित्र-मिल कर काम करना चाहें और ढाई तीन हजार रु.लगाना चाहें वहाँ पैर से चलने वाली छोटी ट्रेडिल की व्यवस्था हो सकती है। ये दोनों प्रकार की व्यवस्थाएं स्थान की छोटाई-बड़ाई की दृष्टि से और अपने पास की पूँजी के अनुसार पसन्द की जा सकती हैं; पर मुख्य बात अपने क्षेत्र की जनता से संपर्क स्थापित करना, उनके सुख-दुख की, उनके लाभ-हानि की बातों पर ध्यान देना तथा अपने पत्र द्वारा उनकी शिकायतों और असुविधाओं का सुधार करना ही है। इसी से आपका पत्र और स्वयं आप उस क्षेत्र में प्रभाव जमा सकेंगे और वहाँ की जनता से आपको सब प्रकार का आवश्यकीय सहयोग प्राप्त हो सकेगा। हम फिर यह बतला देना चाहते हैं कि सर्वदेशीय समाचार पत्र, जिलों के समाचार पत्र और ग्रामीण समाचार पत्र-ये सब भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से सम्पादित किये जाते हैं। ग्रामीण पत्र तभी सफल हो सकेगा जब उसमें मुख्य रूप से स्थानीय महत्व की तथा वहीं के जनहित की बातों और समस्याओं की चर्चा होगी। देश और विदेश की प्रमुख घटनाओं और मनोरंजक समाचारों के लिये पत्र का अधिक से अधिक चौथाई भाग देना चाहिये। आजकल हमने कितने ही स्थानीय पत्रों में देखा है कि दो-चार स्थानीय विषयों पर साधारण या जोरदार खबरें छाप कर स्थान भरने के लिये चाहे जिस विषय पर लम्बा-सा लेख दे दिया जाता है। ऐसे पत्र यदि न बिकें और केवल किसी की सहायता या चन्दे पर ही चलें तो इसमें आश्चर्य ही क्या? हमारा विश्वास है कि जो व्यक्ति स्वार्थ और पक्षपात पूर्ण दलबन्दी की नीति को त्यागकर बुद्धिमानी-पूर्वक जनता की समस्याओं और अभावों की पूर्ति की दृष्टि से पत्र प्रकाशित करेगा तो वह अवश्य सफल होगा और जीवन-निर्वाह के लायक आमदनी के साथ ही प्रतिष्ठा और सर्वसाधारण के सम्मान का पात्र भी बनता चला जायगा।

छोटे रूप में प्रेस और समाचार पत्र के संचालन के विषय में मोटी-मोटी बातें यहाँ बतलाई गई हैं। जो व्यक्ति वास्तव में इस कार्य का करना चाहें उन्हें कुछ दिन तक किसी पत्र के कार्यालय या इस विषय की शिक्षा देने वाली संस्था में रहकर अनुभव प्राप्त करना आवश्यक है। हो सका तो इस सम्बन्ध में कुछ व्यावहारिक बातें किसी आगामी लेख में पाठकों की सेवा में उपस्थित करने का प्रयत्न करेंगे।


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