ऋषि ही धर्म की स्थापना करेंगे

April 1959

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(स्वामी विवेकानन्द जी)

यह एक प्राकृतिक नियम है कि जिस अवसर पर विश्व के जिस भाग को जिस वस्तु की आवश्यकता होती है, उसी समय वह वहाँ पहुँचकर उसे नया जीवन देने का मार्ग ढूँढ़ लेता है। यह नियम भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार के क्षेत्रों पर समान रूप से लागू होता है। उदाहरणार्थ संसार के अमुक भाग में आध्यात्मिकता का अभाव है, और दूसरे किसी भाग में उसका प्राचुर्य है, तो यह आध्यात्मिकता अभाव वाले भाग तक पहुँचने का मार्ग निकाल लेगी और इस प्रकार सामञ्जस्य स्थापित हो जायगा। मानव जाति के अब तक के इतिहास में एक दो बार नहीं, अनेकों बार भारतवर्ष को प्रकृति ने यही कार्यभार सुपुर्द किया है कि यह जगत के विभिन्न देशों को आध्यात्मिकता की शिक्षा प्रदान करे। इस प्रकार संसार में ऐसी अनेकों घटनायें मिलती हैं कि किसी विशेष जाति ने सैनिक शक्ति से या व्यापार द्वारा संसार के भिन्न-भिन्न भागों में पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित किया और उसके परिणामस्वरूप दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक दान का भंडार खुल गया, अर्थात् एक जाति को दूसरी जाति के लिये कुछ देने या सिखाने का अवसर आया, तब प्रत्येक जाति ने दूसरी जातियों को, राजनीतिक, सामाजिक या आध्यात्मिक, जिसके पास जिस विषय का ज्ञान था, उसी विषय का ज्ञान दिया। इस लेन-देन में भारत ने सम्पूर्ण मनुष्य जाति के सम्मिलित ज्ञान-भंडार में आध्यात्मिकता और दर्शन का ही दान दिया है। प्राचीन पारस्य (पारसी) साम्राज्य के उदय काल के बहुत पहले ही वह इस प्रकार का दान दे चुका था। फारस साम्राज्य के विकास-काल में भी उसने ऐसा दान दिया और उसके बाद तीसरी बार यूनान के अभ्युदय काल में उसने ऐसा ही दान किया। हाल के ऐतिहासिक काल अंग्रेज युग में भी विधि विधान के अनुसार उसे वही कार्य करना पड़ रहा है। जिस प्रकार इस युग में प्रजातंत्र शासन तथा सभ्यता के बाहरी भाव ने भारत की नस-नस को प्रभावित किया, उसी प्रकार यहाँ की आध्यात्मिकता और दर्शन ने पश्चिमी देशों को सराबोर कर दिया। यह एक ऐसी धारा है जिसकी गति को कोई रोक नहीं सकता। हम भी पश्चिम की जड़वाद प्रधान सभ्यता का पूर्ण प्रतिरोध नहीं कर सकते। सम्भव है इसका कुछ अंश हमारे लिये अच्छा हो और हमारी आध्यात्मिकता का कुछ अंश सम्भव है पश्चिम वालों के लिये कल्याणकारी सिद्ध हो। इसी विधि से सामञ्जस्य की रक्षा हुआ करती है। इसका आशय यह नहीं कि हर एक विषय हमको पश्चिम वालों से सीखना चाहिये अथवा पश्चिम वालों को जो कुछ सीखना है वह हमीं से सीखें। पर इन दोनों भागों का कर्तव्य है कि गत शताब्दियों में संसार की विभिन्न जातियों में सामञ्जस्य की स्थापना करके एक आदर्श संसार के निर्माण का जो स्वप्न उन्होंने देखा है, उसकी पूर्ति के लिये जिसके पास जो कुछ उपयोगी हो उसे भावी संतानों को अर्पण कर दें।

ऐसा आदर्श संसार कभी आयेगा या नहीं-यह मैं नहीं जानता। इतना ही नहीं मुझे तो यह भी सन्देह है कि संसार कभी ऐसी पूर्णता तक पहुँच सकेगा भी या नहीं? परन्तु चाहे ऐसा हो या न हो, हम में से प्रत्येक को इसी विचार को सत्य मानकर काम करना चाहिये, और प्रत्येक मनुष्य को अपने हृदय में ऐसी भावना रखना चाहिये कि यह कार्य मुख्यतः उसी को करना है। हम में से प्रत्येक मनुष्य को ऐसा ही विश्वास को रखना चाहिये कि संसार के अन्य सभी लोगों ने अपना अपना कार्य पूरा कर डाला है, केवल मेरे ही हिस्से का शेष है और जब मैं अपने हिस्से का कार्य भाग पूरा कर दूँगा तभी संसार सम्पूर्ण होगा। अगर हमको अपने सिर पर कोई दायित्व लेना है तो उसे ऐसी ही भावना से ग्रहण करना चाहिये।

भारत में वर्तमान युग में धर्म की एक नवीन धारा प्रवाहित हुई है। इसमें कुछ गौरव भी है और विपत्ति भी है। कारण यह कि धर्मोदय के साथ-साथ अनेक बार उसमें घोर कट्टरता आ जाती है, और कभी-कभी यह इतना बढ़ जाता है कि जिन लोगों द्वारा उसका अभ्युत्थान होता है, कुछ आगे निकल जाने पर वे भी उसे रोकने में असमर्थ होते हैं, उसका नियंत्रण नहीं कर सकते। अतएव इस सम्बन्ध में पहले से ही सावधान रहना चाहिये। हमें बीच के मार्ग से चलना चाहिये। एक ओर तो कुसंस्कारों अथवा अज्ञानता पूर्ण रूढ़ियों से भरा हुआ प्राचीन समाज है दूसरी ओर है जड़वाद, नास्तिकता के और ऐसे ही अन्य संस्कार जो पश्चिमी उन्नति के मूल तक में समाये हैं। इन दोनों से खूब बचकर चलना चाहिये। प्रथम बात तो यह है कि हम पश्चिमी नहीं हो सकते, इसलिये पश्चिम वालों की नकल करना वृथा है। यह निश्चय समझ लीजिये कि आप ज्यों ही पश्चिम वालों की नकल करेंगे आपकी मृत्यु हो जायगी और फिर आप में जीवन का लेश भी न रहेगा। दूसरे ऐसा हो सकना सम्भव भी नहीं है। थोड़ी देर के लिए कल्पना कीजिए कि लाखों वर्षों से एक नदी हिमालय से बहती चली आ रही है, क्या तुम धक्के लगाकर उसको फिर हिमालय की तुषार मण्डित चोटी पर वापस ले जा सकते हो? चाहे एक बार यह संभव भी हो जाय, पर तुम योरोपियन नहीं हो सकते। यदि कुछ शताब्दियों की शिक्षा का संस्कार त्याग सकना योरोपियनों के लिये संभव नहीं तो सैंकड़ों शताब्दियों का संस्कार छोड़ सकना तुम्हारे लिये कैसे सम्भव हो सकता है?

हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि हम प्रायः जिन बातों को इस समय धर्म मान रहे हैं, वे केवल हमारे गाँव के छोटे-छोटे देवताओं से सम्बन्ध रखने वाली बातें या कुसंस्कारों से पूर्ण देशाचार मात्र हैं। ऐसे देशाचार असंख्य हैं और वे एक दूसरे के विरुद्ध हैं। इनमें से किसको माना जाय और किसको गलत बताया जाय? उदाहरण के लिये यदि एक दाक्षिणात्य ब्राह्मण किसी अन्य ब्राह्मण को माँस का एक ग्रास खाते हुये देखे तो डर के मारे सिकुड़ जाता है। पर आर्यवर्त के अनेक ब्राह्मण महाप्रसाद के बड़े भक्त हैं, पूजा के नाम पर सैंकड़ों बकरों की बलि चढ़ाकर चट कर जाते हैं। अगर एक अपने देशाचर को सम्मुख रखेगा तो दूसरा भी वैसा ही करेगा। तमाम भारत में हजारों तरह के आचार हैं, पर उनकी सीमा अपने-अपने स्थानों तक परिमित है। सब से बड़ी भूल यही है कि अज्ञान ग्रस्त साधारण जनता हमेशा केवल अपने प्रान्त के आचार को ही हमारे धर्म का सार समझ लेती हैं।

दूसरी बात यह है कि धर्म के दो रूप होते हैं। एक की नींव मनुष्य के नित्य स्वरूप पर स्थित है, उसकी विचार परम्परा परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति के सर्वकालिक सम्बन्ध से होती है। दूसरी प्रकार का धर्म किसी देश काल या आस्था विशेष पर टिका हुआ होता है। पहला मुख्यता वेदों या श्रुतियों में संग्रहीत है, दूसरा स्मृतियों और पुराणों में। हमें स्मरण रखना चाहिये कि सब समय वेद ही हमारे चरम लक्ष्य और मुख्य प्रमाण रहे हैं। यदि किसी प्रकार पुराणों का कोई हिस्सा वेदों के अनुकूल न हो तो निःसंकोच उस अंश को त्याग देना चाहिये। इसी प्रकार हम यह भी देखते हैं कि सभी स्मृतियों की शिक्षा पृथक्-पृथक् है। पहिले ऐसे आचार प्रचलित थे जिनको अब हम वीभत्स मानते हैं। जब समय का परिवर्तन होगा तब ये स्मृतियाँ न रहेंगी और उनकी जगह दूसरी स्मृतियों की योजना की जायगी। इसलिये विशेष ध्यान देने योग्य बात यही है कि वेद चिरकालिक सत्य होने के कारण सदा समभाव से विद्यमान रहते हैं किन्तु स्मृतियों की प्रधानता युग परिवर्तन के साथ ही जाती रहती है। समय ज्यों-ज्यों व्यतीत होता जायगा त्यों-त्यों प्राचीन स्मृतियाँ लुप्त होती जायेंगी, ऋषियों का उदय होगा और वे उन्हें बदलकर समाज को समयानुकूल कर्तव्य के उस पथ पर चलायेंगे जिसकी उस समय के लिये आवश्यकता होगी और जिसके बिना समाज का जीना असम्भव समझा जायगा।

मेरे कहने का यह भी आशय नहीं कि हम अपने प्राचीन आचारों और पद्धतियों की निन्दा करें, नहीं ऐसा हर्गिज मत करो। उनमें अत्यन्त हीन जान पड़ने वाले आचार को भी तिरस्कार की दृष्टि से मत देखो, न उसकी निन्दा करो, क्योंकि जो प्रथा आज निन्दनीय जंच रही है वही किसी समय समाजोपयोगी और जातीयता की रक्षक रही होगी। क्योंकि इन प्राचीन पद्धतियों के प्रणेता ऋषि थे जिन्होंने धर्म को प्रत्यक्ष अनुभव से जाना था और निःस्वार्थ भाव से उसी का उपदेश दिया था। यही ऋषित्व है और यह किसी आयु, काल, सम्प्रदाय या जाति की अपेक्षा नहीं रखता। वात्स्यायन ने कहा है “सत्य का साक्षात्कार करना चाहिये और स्मरण रखना चाहिये कि तुम सब को ऋषि होना है” हमें अपने पर विश्वास रखना चाहिये कि हम अवश्य संसार में उथल-पुथल मचा सकते हैं, क्योंकि सब शक्ति हम में विद्यमान है। हमें भी धर्म का प्रत्यक्ष दर्शन करना होगा, इसके सत्य का अनुभव करना होगा, तभी हमारे मुख से जो वाणी निकलेगी वह अव्यर्थ और अमोघ होगी और पाप हमारी दृष्टि से दूर होकर धर्म की स्थापना होगी।


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