हमारे दस प्रत्यक्ष गुरु

April 1959

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(श्री योगेन्द्र जी, ब्रह्मचारी)

एक प्रसिद्ध महात्मा ने एक बार कहा था कि “हम तोते के समान कई बातें बोल जाते हैं, पर उनमें से एक को भी कार्य में नहीं उतारते। केवल मुख से कह देना और आचरण में न लाना—यह हमारा एक स्वभाव ही बन गया है।” वास्तव में यह सत्य भी है। आज मनुष्य में सदाचरण शक्ति का अभाव हो गया है। हम नित्य प्रति रामायण, गीता, महाभारत आदि ग्रन्थों का पाठ करते हैं। उनमें वह महत्वपूर्ण शिक्षाएं भरी हुए हैं जो हमारे जीवन का कायाकल्प कर सकती हैं, हमारे लोक और परलोक दोनों का सुधार कर सकती हैं, परन्तु हम केवल उनके पाठ तक ही सीमित रहते हैं। उनको अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न नहीं करते। यदि युधिष्ठिर की तरह हम एक पाठ को जीवन में उतारे बिना आगे बढ़ने का साहस न करें तो हमारे जीवन में वह निखार उत्पन्न हो सकता है कि हम एक आदर्श मानव बनकर सहस्रों प्राणियों को मानवता की सुगन्धि देते रहें। संसार का हर एक व्यक्ति जानता है कि अच्छाई क्या है और बुराई क्या है? कौन से करने योग्य कर्म हैं और कौन में हानि है और किसमें लाभ? परन्तु करते विरले ही है। उपनिषद् का वचन है कि आत्मा की प्राप्ति शास्त्रों को सुनने या उनका पाठ करने मात्र से नहीं हो जाती। उन पर आचरण करने से ही इसकी प्राप्ति सम्भव है। एक उर्दू कवि का कहना है “अमल से जिन्दगी बनती है जन्नत भी जहन्नुम भी।” प्लेटो का कथन है “किसी देश का इससे अधिक क्या सौभाग्य हो सकता है कि उसमें श्रेष्ठ आचरण करने वाले स्त्री पुरुषों का बाहुल्य हो।” हमारे ग्रन्थों में एक ऐसे महर्षि का वर्णन मिलता है जिनको उपरोक्त शक्ति की सिद्धि थी। उन्होंने प्रकृति से शिक्षा ग्रहण करके अपने जीवन को सुन्दरतम बनाने की चेष्टा की थी। वह हैं महर्षि दत्तात्रेय! नीचे हम उनके प्रत्यक्ष दस गुरुओं का वर्णन करते हैं। यदि हम भी इनको अपनाकर ज्ञान ग्रहण करें तो भगवान दत्तात्रेय की भाँति ब्रह्मवेत्ता बन ब्रह्म ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।

भगवान दत्तात्रेय कहते हैं—

(1) पहिला गुरु मैंने पृथ्वी को बनाया। उससे मुझे धैर्य और क्षमा की शिक्षा मिलती है। पृथ्वी पर लोग नाना प्रकार के आघात व उत्पात करते रहते हैं परन्तु वह न तो रोती है और न बदला लेती है बल्कि प्रति उत्तर में फल, फूल, अनाज, वनस्पतियाँ और न जाने क्या-क्या देती है। संसार के हर एक प्राणी को कष्ट और आपत्तियों का सामना करना पड़ता है कोई रोकर करते है कोई धीरज से। हमें पृथ्वी की तरह सहनशील होना चाहिए बल्कि परोपकार की शिक्षा ग्रहण करके अपने जीवन को समाज के हित में घुला देना चाहिए।

(2) दूसरा गुरु मेरा वायु है। जैसे शरीर के भीतर रहने वाला केवल आत्मा से ही सन्तुष्ट रहता है वैसे हमें भी इन्द्रियों की तृप्ति में आसक्त न होकर जीवन निर्वाह की वस्तुओं की ही इच्छा करनी चाहिए। शरीर के बाहर रहने वाला भी सब जगह जाता है परन्तु अनासक्त भाव से किसी के गुण दोष को नहीं अपनाता वैसे ही हमें भी विभिन्न प्रकार के भोगों को भोगते हुए अपने लक्ष्य पर स्थिर रहना चाहिए। उनमें राग द्वेष या आसक्त न होना चाहिए। जैसे वायु गन्ध को वहन करती हुई भी उसके संपर्क में नहीं आती वैसे ही हमें भी शरीर की भूख प्यास व पीड़ा आदि को वहन करके, अपने को शरीर नहीं आत्मा मानते हुए उसके गुणों से निर्लिप्त रहना चाहिए।

(3) तीसरे गुरु आकाश से आत्मा की सर्वव्यापकता की शिक्षा मिली है। आग जलती है, पानी बरसता है, अन्न आदि आते व नष्ट होते हैं। बादल आते व जाते हैं परन्तु फिर भी आकाश वैसे का वैसा रहता है, उसे कोई नहीं छू सकता। इसलिए नाम रूपों की सृष्टि व प्रलय के चक्कर में न पड़कर आत्मा को इनके स्पर्श से दूर रखना चाहिए।

(4) चौथे गुरु जल से मैंने यह शिक्षा ली है कि हमें स्वभाव से स्वच्छ, मधुर और पवित्र होना चाहिए। प्राकृतिक जल शुद्ध होता है तो भी पृथ्वी के संपर्क में आकर गन्दा होने पर भी वह पुनः शुद्ध और पवित्र होने के लिए प्रयत्नशील रहता है। यदि हम भी पथ भ्रष्ट हों गये हो तो पुनः सन्मार्ग पर जाने का प्रयत्न करना चाहिए।

(5) मेरा पाँचवाँ गुरु अग्नि है जो मुझे तेजस्विता, प्रकाश, श्रेष्ठता, परमार्थ समता की शिक्षा देती है। अग्नि निरन्तर ऊपर की ओर ही रहती है। जहाँ जलाई जाती है वहाँ गर्मी व प्रकाश उत्पन्न करती है। जो कुछ उसे अर्पण किया जाता है वह अपने पास न रखकर सभी देवताओं को बाँट देती है। मैली वस्तुओं को सीसे जैसा सुन्दर बना देती है। सब कुछ खा पी लेने पर भी अलिप्त रहती है। इसलिए सत्पुरुष को उपरोक्त गुणों को ग्रहण करके माया, मोह, द्वेष, ममता से दूर रहकर समरूप रहना चाहिए।

(6) सूर्य मेरा छठा गुरु है। वह अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींचता है और आवश्यकता पड़ने पर वर्षा के रूप में लौटा भी देता है। समाज ने हमें बनाया है। यदि हम समाज को ऊंचा उठाने की चेष्टा नहीं करते तो हम कृतघ्न हैं। जल के विभिन्न पात्रों में सूर्य पृथक प्रतिबिम्बित होता है परन्तु उसे अनेक नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार से प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा अलग अलग दीखती है। परन्तु वह है एक ही। एकात्म भाव को स्थिर करके मनुष्य ब्रह्मज्ञानी हो सकता है। संसार की उच्चतम सुख शान्ति और आनन्द को प्राप्त करके अमर हो सकता है।

(7) सातवाँ गुरु चन्द्रमा यह शिक्षा देता है कि जिस तरह चन्द्रमा न घटता है न बढ़ता है परन्तु उसकी कलाएं घटती बढ़ती हैं और चन्द्रमा को उनसे कोई लगाव नहीं रहता इसी तरह से हमारे शरीर की अवस्थाएं भी बदलती रहती हैं। आत्मा से उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। हमें उनके प्रभाव में नहीं आना चाहिए।

(8) आठवें गुरु समुद्र से मैंने यह सीखा है कि जिस प्रकार वह सदैव मर्यादा में रहता है, ग्रीष्म ऋतु में सूखना नहीं और वर्षा ऋतु में नदियों व वर्षा के जल को ग्रहण करके कभी अमर्यादित नहीं होता इसी प्रकार हमें भी कष्ट और आपत्तियाँ आने पर दुखी और ऐश्वर्य प्राप्ति पर प्रसन्न नहीं होना चाहिए बल्कि दुख सुख में एक समान रहना चाहिए।

(9) सार ग्रहण की शिक्षा मुझे भ्रमर से मिलती है। जिस प्रकार वह भिन्न प्रकार के पुष्पों पर घूम-घूमकर सार ग्रहण करता है उसी प्रकार से हमें भी छोटे बड़े सभी शास्त्रों का मनन करके, उनके मतभेदों और उलझनों में न पड़कर, उसका रस निचोड़ लेना चाहिए।

(10) बालक मेरा दसवाँ गुरु है जो निरन्तर उन्नति की ओर अग्रसर रहता है, जिसके मन में किसी के प्रति द्वेष और दुर्भावना नहीं होती। हमें भी अपने जीवन को दुर्भावना हीन व द्वेषहीन बनाना चाहिए और निरन्तर आगे बढ़ने की इच्छा रखनी चाहिए। सनत कुमार निरन्तर पाँच वर्ष की आयु के ही रहते थे, यह उनकी बालक जैसी सम स्थिति की ओर ही संकेत है।

हमें पूर्ण विश्वास है कि उपरोक्त दस शिक्षाओं को अपने जीवन में ओतप्रोत करके सच्चे अर्थों में मनुष्य कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं, अप्राप्त मनुष्य जीवन को सार्थक बना सकते हैं और पूर्ण विकास की ओर शीघ्रातिशीघ्र बढ़ सकते हैं।


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