क्या मनुष्य के लिये अमरत्व संभव है?

April 1959

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(श्री कृष्णलाल जी बजाज)

अमरत्व को समझने के लिये सर्वप्रथम मृत्यु के स्वरूप पर विचार करना आवश्यक है। साधारण लोगों की दृष्टि में आत्मा का इस स्थूल शरीर से अलग हो जाना ही मृत्यु है। यद्यपि बातचीत में अथवा ज्ञान-चर्चा के अवसर पर आत्मा को अविनाशी कहकर मृत्यु का एक रूपांतर मात्र मान लेते हैं, पर व्यवहार में इससे उल्टी ही बात दिखलाई पड़ती है। वे लोग इस दृश्यमान शरीर को ही सत्य मानते हैं और आत्मा के विलग हो जाने पर जब यह शरीर नष्ट हो जाता है तो उसी को मनुष्य का अन्त समझकर शोक और विलाप करते हैं।

पर शास्त्रों का मत इससे सर्वथा भिन्न है। उपनिषद् में नचिकेता ने यमराज से यह प्रश्न किया था कि ‘जब मनुष्य मर जाता है तब उसकी क्या दशा होती है? कोई कहते हैं कि उसका सर्वथा नाश हो जाता है और दूसरों के मत से उसका नाश नहीं होता है। बताइये उन दोनों में से कौन सा मत सत्य है?” इस प्रश्न का उत्तर देते हुये यमराज ने कहा—

“न साँपराय प्रति भाति बाल प्रमाद्यन्तं वित्तमोहन मूढम्।

अयं लोको नास्ति पर दृतिमानी पुनः पुनर्वशमापद्यते में।”

अर्थात् “अविवेकी मनुष्य के मन में परलोक की कोई कल्पना ही नहीं होती, क्योंकि वह अपने स्वरूप को नहीं जानता और संपत्ति के मद से सदा मूढ़ बना रहता है। ऐसा मनुष्य यह कहता है कि इसी जगत में सब कुछ है, अन्य लोक कोई चीज नहीं। ऐसी अवस्था में वह मनुष्य मेरे अधीन होकर बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्कर में गोते खाता है।”

यदि इस कथन को ध्यान में रखकर आत्मा और देह के यथार्थ स्वरूप पर विचार करें तो यही विदित होता है कि आत्मा नित्य, सत्य, शाश्वत है, तथा देह अनित्य, असत्य, अशाश्वत है। अतएव जो अमरत्व अथवा आत्म-लाभ की इच्छा करेगा वह अशाश्वत वस्तुओं का मोह त्यागकर शाश्वत विषयों की ओर ही ध्यान देगा। बुद्धिमान व्यक्ति कभी इस बात को पसन्द नहीं कर सकता कि संसार की अधिक से अधिक सम्पत्ति के लिये भी आत्मा का नाश किया जाय। यदि कोई यह चाहे कि साँसारिक वस्तुओं को पूर्णतः प्राप्त करके उनमें लिप्त रहते हुये भी मैं आत्म लाभ भी करलूँ तो यह एक असम्भव बात है। इसलिये जो व्यक्ति साँसारिक विषयों की तरफ से ध्यान हटाकर आत्मिक विषयों पर हृदय से ध्यान देगा वही अमरत्व की ओर अग्रसर हो सकता है। इस सम्बन्ध में “कठवल्ली” में लिखा है—

“न जायते मृयते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न वभूव कश्चित। अजो नित्यः शाश्वतोयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ हन्ता चेन्मन्यते हन्तुँ हतश्चेन्मन्यते हतम्। उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।” (कठवल्ली)

अर्थात् “ज्ञान सम्पन्न आत्मा न कभी उत्पन्न होता है न कभी मरता है। न आत्मा किसी से उत्पन्न होता है और न उसी से कोई वस्तु उत्पन्न होती है। आत्मा अज (जन्म रहित), नित्य, शाश्वत और पुराण है। शरीर के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता। यदि कोई वध करने वाला मनुष्य यह कहे कि मैंने इसका वध किया—अथवा जिसको मारा गया वह कहे कि मेरा वध किया गया—तो समझना चाहिये कि दोनों कुछ नहीं जानते। क्योंकि आत्मा न किसी को मारता है और न किसी से मारा जाता है।”

इसी प्रकरण में आगे चल कर जीवात्मा का रूप इस प्रकार बताया है—

ये न रुपं रसं गन्धं शब्दान्स्पर्शाञ्च मैथुनान्।

एतेनैव विजानाति किमव परिशिष्यते॥

स्वप्नान्तं जागरिन्तान्तं चोभौ ये नानु पश्यति।

महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरोनु शोचति॥

अर्थात्—”आत्मा उसे कहते हैं जिसके कारण रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श आदि विषयों का और इनके अतिरिक्त जो शेष रहे उन सब का ज्ञान होता है। जो यह जानता है कि जागृत और निद्रा नामक दोनों अवस्थाओं में जिसके कारण सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त होता है वह सर्व व्यापक सूक्ष्म आत्मा मैं ही हूँ वह बुद्धिमान मनुष्य शोक से अलिप्त रहता है।”

इस प्रकार जब मनुष्य आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझ लेता है, तब “अमरत्व” का रहस्य उसे सहज में ज्ञात हो सकता है। इस का मूल आशय यही है कि अंतःदृष्टि तथा अध्यात्म योग द्वारा आत्म रूप वस्तु का साक्षात्कार किया जा सकता है। इसके लिये पहले यह अवश्य समझ लेना चाहिये कि यद्यपि ज्ञान की प्राप्ति इन्द्रियों के द्वारा होती है अर्थात् वे इस कार्य में साधन रूप होती है, पर उनको आत्मा का दर्शन नहीं हो सकता इसके लिये उपनिषद् में स्पष्ट कहा है—

पराश्चिखानि ब्यतृणत्स्वययंमू स्मात्परां पश्यति नान्तरात्मम्। कर्श्चिद्धीरः प्रत्यागात्मानमैक्षुदावृत्त चक्षुरमृतत्व मिच्छान्॥

अर्थात्—”ईश्वर ने इन्द्रियाँ केवल बाह्य विषयों को ग्रहण करने के लिये उत्पन्न की हैं, इसलिये वे सदा बहिर्मुख ही रहती हैं। हजारों में से ऐसा एकाध मनुष्य उत्पन्न होता है जो अमरत्व की इच्छा करके अपनी इन्द्रियों को अन्तर्मुख करने का प्रयत्न करता है और आत्मा के साक्षात्कार का अनुभव प्राप्त करता है।”

इन्द्रियाणाम् पृथग्भावमुदयास्तमयौ च यत्।

पृथगुत्पद्यमाना नाम् मत्त्व धीरो न शोचति॥

अर्थात्—”जब इन्द्रियाँ अंतर्मुख हो जाती हैं तब यह जानने से कि जागृत अवस्था में वे कैसे होती हैं और निद्रावस्था में उनका रूप कैसे हो जाता है” आत्म-स्वरूप से उनकी भिन्नता और विलक्षणता प्रतीत होती है।”

इसलिये जिस मनुष्य को अमरत्व का रहस्य जानना हो उसे अध्यात्म योग का आश्रय लेना चाहिये। इस योग की सिद्धि से संसार-दुख और विषय-सुख की निवृत्ति हो जाती है। आत्मा के बन्धन और मोक्ष का कारण केवल अन्तःकरण है। जब वह विषय में आसक्त हो जाता है तब साँसारिक सुख दुःखादि में बन्ध जाता है। पर जब वह परमात्मा के स्वरूप में रम जाता है तब उसको मोक्ष अर्थात् अमरत्व की प्राप्ति होती है। उसे स्वानुभव द्वारा यह ज्ञात हो जाता है कि जीवात्मा और परमात्मा का सम्बन्ध छाया और धूप के समान है। जैसे असत्य रूपी छाया से सत्य रूपी धूप का ज्ञान होता है वैसे ही जीवात्मा से परमात्मा का अनुभव किया जाता है और इस बात की प्रतीति होती है कि परमात्मा की तरह उसका अंश हमारा जीवात्मा, भी अमर है।

अमरत्व की इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए अगर कोई शारीरिक क्रिया विशेष रूप से सहायक होती है तो योगशास्त्रानुसार वह शुक्र अथवा वीर्य की पूर्ण रूप से रक्षा है। इस सम्बन्ध में हठयोग प्रदीपिका में कहा है—

चित्तायतं नृणाँ शुक्रं शुक्रायन्तं च जीवितम्

तस्मात् शुक्रं मनश्चैव रक्षणीयं प्रयत्नतः॥

मनःस्थैर्ये स्थिरो वायुस्ततो बिन्दुः स्थिरो।

बिन्दुस्थैर्थे सदा सत्वं रिंडष्धैर्थम् प्रजायेताभिवेत्॥

सुगधो योगिनो देहे जायते विन्दु धारणत्। यावद् विन्दुः स्थिरो देहे तावत्कालं भयंकुतः॥ एवं संरक्षयेद बिन्दुम् मृत्युँ जयति योगवित्। मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दु धारणात्॥

अर्थात्—मनुष्यों का शुक्र (वीर्य) केवल मन के अधीन रहता है, इसलिए हर प्रयत्न से शुक्र और मन की रक्षा करनी चाहिए। मन की स्थिरता से प्राण वायु स्थिर हो जाता है और प्राण वायु की स्थिरता से बिन्दु की स्थिरता हो जाती है। जब बिन्दु स्थिर हो जाता है तो शरीर के अन्दर एक अनुपम शक्ति आ जाती है और मनुष्य को किसी प्रकार का भय नहीं रहता। साराँश यही है कि बिन्दुपात ही मृत्यु है और बिन्दु की स्थिरता ही ‘अमरत्व’ है।


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