धर्म और मानवता

April 1959

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(ठाकुर दयानन्द)

हम लोग एक ही पिता के पुत्र हैं। मानव से मानव का भेद—या सम्प्रदायकत्व—इस प्रकार का कोई मत विरोध नहीं हो सकता जो एक मानव को दूसरे मानव से और एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र से अलग करे।

मानव-जाति एक है। उसमें जाति और वर्ग विभेद नहीं हो सकता। एक ही पिता की सन्तानों की जाति क्या हो सकती है? एक ही जाति—अगर इसे जाति कहा जाय तो आध्यात्मिक प्राप्ति के अनुसार—है, जो जितना ही ईश्वर के निकट जाता है उतनी ही ऊँची जाति का है। लेकिन उसका भी ठोस भेद नहीं होना चाहिये। यह भेद भी केवल आपेक्षिक है, क्योंकि हम सभी परमात्मा की ओर जा रहे हैं और फर्क प्रतिक्षण घटता जा रहा है। पेशे में योग्यता और स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार भेद हैं लेकिन कोई भी काम असम्मानित नहीं है। सभी काम सम्मानप्रद हो जाता है जब यह सोचकर किया जाय कि हम सब कुछ परम-पिता के लिये कर रहे हैं, जब हमारे सारे कार्य उनके प्रति हों, जब अपने सारे कार्यों में हम उन्हें प्राप्त करने की कोशिश करें। सामाजिक व्यवस्था तभी सुव्यवस्थित रह सकती है जब उसका प्रत्येक सदस्य अपने खास कर्तव्यों को—उनमें सभी आवश्यक हैं कोई अनावश्यक नहीं है—पूरा करें। उसमें कोई ऊँच-नीच क्यों हों? पेशे का विभेद मानव के बीच की सीमा क्यों बने? पेशा भेद—जो आकस्मिक है—के बाहर और आध्यात्मिक प्राप्ति के रास्ते में—जो आपेक्षिक है—वास्तव में एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में कोई भेद नहीं है। इन विभेदों के बाहर एक मौलिक एकता है। दरअसल सब मनुष्य समान हैं। प्रेम के आधार पर इस नवयुग का निर्माण होना चाहिये। प्रेम का मूल आधार समता है।

चूँकि सब मनुष्य समान हैं इसलिये एक श्रेणी का दूसरी श्रेणी पर या एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र पर आधिपत्य नहीं होना चाहिये। नवयुग मनुष्यों के भ्रातृत्व का युग होगा, मानव-भ्रातृत्व का अर्थ यह है कि सभी राष्ट्र, सभी लोग और सभी व्यक्ति एक दूसरे के साथ पूर्ण एकता से रहें। वह एकता भावना की एकता हो। इसके लिये यह भी आवश्यक है कि इस दुनिया में मानव प्रबन्ध, मानव सम्बन्ध और मानव संस्थाओं में ऐसी कोई वस्तु न हो जिससे इस भावना की एकता को टूटने या आघात लगने का जरा भी मौका हो।

इस दृष्टिकोण से देखने पर चीजों की व्यवस्था-जो अभी भी है पर शीघ्रता से नष्ट हो रही है, जो प्राचीन जंगलीपन की निशानी है, जो आधुनिक सुसंस्कृत और विकसित दिमाग की अपेक्षा प्रारम्भिक दिमाग के अनुकूल है—विरोधाभास पैदा करती है और भावना-एकता की सृष्टि के रास्ते में बहुत बड़ी बाधा है।

इस प्रकार की अनेक और महान विरोधी चीजें हैं। असमानता, अन्याय और शोषण, मानव पर मानव, श्रेणी पर श्रेणी और राष्ट्र पर राष्ट्र का आधिपत्य और उनके कारण होने वाले अत्याचार और दमन पुरानी व्यावसायिक और पूँजीवादी व्यवस्था वाले समाज की आधारभूत बुराइयाँ हैं। ये सब बुराइयाँ पाशविक शक्ति से नहीं बल्कि प्रेम और आध्यात्मिक शक्ति , श्रेष्ठतम और भद्रतम लक्ष्य के लिये उत्कट प्रयास, विश्वबन्धुत्व, विश्वशान्ति और विश्वप्रेम के लक्ष्य के द्वारा ही दूर की जा सकती हैं। इस प्रकार का लक्ष्य दुनिया के सभी लोगों को एक महान मानव परिवार में परिणत कर देगा जिसमें ईश्वर सबके पिता होंगे और सभी समान अधिकार, समान सुविधा और उस साँसारिक देन को अपनी आवश्यकता के अनुसार उसकी सेवा करते हुये उपभोग करेंगे। इस प्रकार ईश्वर के पितृत्व और मानव के भ्रातृत्व का तर्क-सिद्ध परिणाम मानव-संघ की प्राप्ति होगा।


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