दो पुण्य कर्तव्य—आत्म निर्माण और परमार्थ साधना

April 1959

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युग निर्माण के—नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिये कार्य करने का अपने परिवार ने जो शपथपूर्वक व्रत लिया है उसे क्रियान्वित करने के लिये जो कार्यक्रम बनाया गया है उसकी रूपरेखा इस प्रकार है—

इस योजना को नींव के पत्थर की तरह संस्था के व्रतधारी सदस्य प्रधान आधार बनेंगे। इन्हीं के ऊपर यह सारी योजना निर्भर करेगी। दैनिक जीवन में साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए—धर्मसेवा के लिए-भी आजीविका कमाने, भोजन करने की तरह एक प्रमुख आवश्यकता जितना स्थान देते रहने की प्रतिज्ञा करने सज्जन व व्रतधारी माने जायेंगे। यह प्रतिज्ञा-पत्र इस अंक में संलग्न है। इसे भरकर गायत्री तपोभूमि भेजना चाहिए। यहाँ व्रतधारी धर्म सैनिकों की सेना के आधार पर योजनाएं बना करेंगी। यों अखण्ड-ज्योति के सभी सदस्य धर्मसेवी हैं, नियमित और अनियमित रूप से अब तक बहुत कुछ करते रहे हैं, पर अब समय आ गया है कि उसे सुव्यवस्थित रूप दिया जाय और एक सुसंगठित सेना के सैनिक जिस प्रकार कदम से कदम मिलाकर चलते हैं उसी प्रकार यह व्रतधारी धर्म सेवक भी—साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए—नैतिक क्राँति के लिये योजनाबद्ध कूच करें। इसलिये जिनमें समुचित उत्साह एवं भावनाएँ हैं, उन्हें व्रतधारी का प्रतिज्ञा-पत्र भर ही देना चाहिए। चैत्र से नया सम्वत्सर आरम्भ होता है। परिवार के सक्रिय कार्यकर्ताओं की सेना की हलचलें भी इसी शुभ मुहूर्त में आरम्भ हो जानी चाहिएं।

गायत्री परिवार की शाखाओं में अब तक 1 माला जप की प्रतिज्ञा करने वाले साधारण सदस्य ही बने हैं। अब उनमें से जिनमें जीवन है उन्हें व्रतधारी सक्रिय सदस्य भी बनाया जाना चाहिये। शाखाओं के छह पदाधिकारी होते हैं वे तो अनिवार्य रूप से व्रतधारी बनें। साधारण सदस्यों में से प्रत्येक को इसके लिये समझाया जाय, प्रोत्साहित किया जाय और दबाया जाय। निर्जीव सौ सदस्यों की अपेक्षा-सजीव सक्रिय, लगन और निष्ठा वाले दो सदस्य अधिक काम के सिद्ध होते है। अब अपना सारा परिवार मथ डालना है और उसमें से क्रियाशील व्यक्तियों का एक संगठन बना लेना है। यह कार्य बिना विलम्ब, ढील और संकोच किये अब आरम्भ कर दिया जाना चाहिए। जिनके पास अखण्ड-ज्योति पहुँचती है वे इन्हीं पंक्तियों को व्रतधारी बनने का आमंत्रण समझें साथ ही उन स्वजनों तक यह संदेश पहुँचाने एवं उत्साहित करने का जिम्मा लें जिन तक पत्रिका नहीं पहुँचती है। प्रारम्भिक कार्य व्रतधारी धर्म सेवकों का संगठन व्यवस्थित करना है।

व्रत धारण का प्रतिज्ञा-पत्र भर देने का प्रथम कर्तव्य पूरा कर लेने के उपराँत व्रतधारी के लिए योजना के अंतर्गत तीन कार्यक्रम होंगे। (1) आत्म-निर्माण (2) धर्म प्रचार (3) रचनात्मक कार्य। इन तीनों की रूपरेखा यह रहेगी।

(1) आत्म-निर्माण

गायत्री-उपासना प्रत्येक व्रतधारी का आवश्यक कर्तव्य होगा। मन में आस्तिकता की भावनाएं स्थिर रखने, आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म एवं कर्मफल के तत्वज्ञान पर विश्वास करना ही नैतिक जीवन का प्रमुख दर्शन शास्त्र एवं तत्वज्ञान है, यह आस्था आस्तिकता के आधार पर ही संभव है। भारतीय समाज की उपासनात्मक एकता का माध्यम वेदमाता गायत्री ही बन सकती है। कोई व्यक्ति अपनी पूजा में अन्य कोई प्रकार, देवता या विधान अपनाता है तो इसमें आपत्ति नहीं पर गायत्री मन्त्र को कम से कम 108 बार (1 माला) जप करना हमारा नित्यकर्म होना चाहिए। यदि किसी दिन जप भूल जाय तो उसकी पूर्ति अगले दिन कर ली जाय। गायत्री जप एक निश्चित धर्म कर्तव्य प्रत्येक व्रतधारी का रहे।

एक डायरी या विवरण पुस्तिका प्रत्येक व्रतधारी अपने पास रखेगा। उसमें तीन बातों का दैनिक लेखा-जोखा रखेगा (1) गुण (2) कर्म (3) स्वभाव।

गुण—के अंतर्गत योग्यता, क्षमता शक्ति सामर्थ्य कला, चतुरता, निपुणता आदि की गणना होती है। सद्गुणों में स्वास्थ्य, शिक्षा आदि भौतिक शक्तियों को बढ़ाने के आंतरिक , आध्यात्मिक गुण सचाई, ईमानदारी, आस्तिकता, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सेवा भावना, आत्मीयता, करुणा, मैत्री आदि गुण आते हैं। इन्हें बढ़ाया जाना चाहिए।

कर्म—के अंतर्गत अपने शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों के पालन को गिना जाता है। (1) भगवान ने यह शरीर एक किराये के मकान की तरह दिया है इसे दीर्घजीवी और स्वस्थ रखने के लिए जिस नियमबद्धता की आवश्यकता है उसका पूरा-पूरा ध्यान रखा जाय। आमतौर से आहार विहार का असंयम ही स्वास्थ्य नाश का कारण होता है उससे बचा जाय। (2) मानसिक कर्तव्यों में ज्ञान-यज्ञ के लिए स्वाध्याय और सत्संग आवश्यक है। जीवन की गुत्थियों को सुलझाने में देश, काल, पात्र का ध्यान रखते हुए जीवन की गुत्थियों को, समस्याओं को, सुलझाने में जो साहित्य सहयोगी सिद्ध हो सके वही स्वाध्याय के योग्य है। सत्संग भी वही जो जीवन के सर्वांगीण विकास में व्यावहारिक मार्गदर्शन करे। आज कल पौराणिक कथा ग्रन्थों को रोज-रोज पाठ करते रहना स्वाध्याय माना जाता है और आज से लाखों वर्ष पूर्व की परिस्थितियों के अनुरूप वे बातें जो अब असामयिक हो गई हैं बताते रहने वाले औघड़ बाबाजियों की बातें ‘सत् वचन महाराज’ कहते हुए सुनते रहना सत्संग माना जाता है। स्वाध्याय और सत्संग की इस प्रकार लकीर पीट लेने से नहीं वरन् विचारकता एवं विवेक के आधार पर जीवन निर्माण के मूल आधारों को समझने में सहायता करने वाले स्वाध्याय और सत्संग के अवसर तलाश करना मानसिक विकास के सत्कर्म का प्रधान आधार हो सकता है। (3) पारिवारिक जिम्मेदारी में केवल उदर पोषण की व्यवस्था ही नहीं है वरन् प्रत्येक परिजन के चतुर्मुखी विकास में सहायता करना उसे आवश्यक स्नेह, सुविधा एवं सलाह देना भी आवश्यक है। व्रतधारी अपने परिवार के प्रति सब प्रकार के कर्तव्य रहने का प्रयत्न करेगा। समाज को अधिक सदाचारी, सद्गुणी, समृद्ध, सुशिक्षित एवं सुखी बनाने के लिए प्रयत्न करना, दूसरों के साथ नागरिकता, सज्जनता, शिष्टाचार एवं मानवता के आदर्शों के अनुरूप व्यवहार करना हमारा सामाजिक सत्कर्म है। (4) धार्मिक कर्तव्यों में आत्म-निर्माण के आधारों को बढ़ाने आत्मा को अधिकाधिक पवित्र बनाते चलना तथा समाज सेवा के लिए लोकहित के लिए, सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने के लिए अपने समय, शक्ति, भावना एवं धन का अनुदान देते रहना यह दो ही बातें आती हैं। ईश्वर उपासना का उद्देश्य इन दो लाभों के लिए ही है। प्रभु की प्रसन्नता उसकी प्रशंसा करते रहने से नहीं इन आध्यात्मिक आधारों को पुष्ट करने से ही उपलब्ध हो सकना संभव है। इन चारों कर्तव्यों को ध्यान में रखकर जीवन की गतिविधि निर्धारित करने से सत्कर्म का प्रयोजन पूरा होता है।

स्वभाव के अंतर्गत—हंसमुख रहना, चित्त को प्रसन्न, निश्चिन्त एवं आशा पूर्ण रखना, दूसरों के साथ स्नेह, मधुरता, उदारता एवं शिष्टाचार पूर्ण व्यवहार करना, परिश्रम को प्यार करना, एक क्षण भी बेकार न गँवाना, नित्य दिनचर्या बनाकर उसे क्रियान्वित करना, खर्च में किफायत शारी, शौकीनी, फैशन परस्ती या यारवासी से घृणा करना, नशे से दूर रहना, नारी मात्र के प्रति माता बहिन की दृष्टि रखना, चटोरेपन का त्याग, उत्तेजित न होकर शान्त चित्त से हर बात पर विचार रखना, सहिष्णुता और एकता का दृष्टिकोण रखना आदि बातें सम्मिलित की जाती हैं।

डायरी रखना—आत्म निरीक्षण रखना—अपने गुण, कर्म, स्वभाव का लेखा लेना, व्रतधारी के लिए आत्म-निर्माण की दृष्टि से आवश्यक माना गया है। कल जो भूलें हुई थीं, वे अगले दिन न होने पावें, या कम हों इस दिशा में डायरी बड़ी सहायक होती है। कल जो उपेक्षा या भूल हुई वह अगले दिन न हो, दिन-दिन गुण, कर्म, स्वभाव में सुधार होता चले लक्ष रखना चाहिए। प्रगति धीरे-धीरे हो तो भी सन्तोष किया जा सकता है पर वह होनी अवश्य चाहिए। चारों कर्तव्यों का कितना पालन हुआ? नहीं हुआ तो क्या कारण था? प्रगति को तेज करने का तरीका क्या है? वर्तमान परिस्थितियों में क्या-क्या परिवर्तन संभव हैं उन्हें करने में ढील क्यों है? आदि प्रश्नों के आधार पर रात को आज के कार्यों का ब्यौरा तथा कल का कार्यक्रम तैयार करना इस डायरी लेखन का मूल उद्देश्य है। यह हर व्रतधारी के लिए आवश्यक है।

2)-परमार्थ साधना -धर्म प्रसार

आत्म-निर्माण के अतिरिक्त व्रतधारी का दूसरा कार्य धर्मप्रचार है। यह बात भली प्रकार समझ लेने की है कि मनुष्य जीवन में जो कुछ चमक, क्रियाशीलता एवं विशेषता दिखाई पड़ती है, वह उसकी भावना, मान्यता एवं आकाँक्षा के आधार पर ही है। जो बात व्यक्ति के ऊपर लागू होती है वही समाज के बारे में भी है। जिस समाज के लोगों के विचार जिस स्तर के होते हैं उसके भले बुरे कार्य भी उसी आधार पर होते रहते हैं। राजदंड या अन्य भौतिक उपायों से लोगों की आन्तरिक भावनाओं में परिवर्तन नहीं हो सकता। समाज सुधार के अन्य प्रयत्न भी रक्त विकार के रोगी की फुन्सियों पर मरहम लगाने के चिकित्सा करने जैसे ही हैं। मानव प्राणी की भावनाओं और मान्यताओं में परिवर्तन करके ही उसे सज्जन एवं श्रेष्ठ पुरुष बनाया जा सकता है। इस प्रकार के व्यक्ति जिस समाज में बढ़ते हैं वही देव समाज बन जाता है और उसके द्वारा ही संसार में स्वर्गीय वातावरण का आविर्भाव होता है।

विचारों की शक्ति प्रचंड है। जिस समय जो विचार प्रबल हो जाते हैं उस समय उसी प्रकार का युग बरतने लगता है। युग-निर्माण का हमारा संकल्प एक ही प्रकार से पूर्ण होगा कि हम जनता के विचार स्तर में परिवर्तन करें, उसकी भावनाओं एवं मान्यताओं में सुधार करें। जिस प्रकार के कार्यों और प्रवृत्तियों का बाहुल्य हम संसार में देखना चाहते हैं उस प्रकार की मान्यताओं के भावना क्षेत्र में प्रविष्ट एवं प्रतिष्ठापित करने का कार्य हमें पूरी शक्ति से करना पड़ेगा। विचार बीज हैं और कार्य उसके फल। किसान की बीज बोने की प्रक्रिया ही कालान्तर में धान्य राशि के रूप में प्रकट होती है। संसार को फलता-फूलता, सुखी और संतुष्ट देखना हो तो उसका एकमात्र उपाय यही है कि जनता को धार्मिक विचार अधिकाधिक मात्रा में दिये जायँ। यह विचार बोने की प्रक्रिया एक चतुर किसान की तरह होनी चाहिए जो एक दिन बीज बोकर ही निश्चिन्त नहीं हो जाता वरन् अपने खेतों में रोज रोज खाद, पानी, निराई, गुड़ाई, रखवाली आदि की क्रियाएं करता ही रहता है।

व्रतधारी की प्रतिज्ञा है कि वह संसार में धार्मिकता, नैतिकता एवं मानवता की स्थापना करेगा। इस प्रतिज्ञा की पूर्ति का प्रधान उपाय यही है कि अधिकाधिक क्षेत्र में सद्विचारों की खेती करे और सुख-शान्ति की फसल उपजावे।

जन संपर्क स्थापित करके लोगों को अच्छे मार्ग पर चलने की सलाह एवं प्रेरणा देना, धर्म प्रचार है। प्राचीनकाल में धर्मफेरी एवं पैदल तीर्थ-यात्रा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए की जाती थी। किसी के द्वार पर हम क्यों जावें? बिना पूछें कोई सलाह क्यों दें? किसी से अनुनय विनय करके अपने बड़प्पन को हम क्यों कम करें? जैसे अहंकारपूर्ण प्रतिरोधी भाव लोगों के मन में उठते रहते हैं। कई बड़े दब्बू, डरपोक, संकोची एवं हीन भावनाओं से ग्रस्त होते हैं, वे दूसरों के सामने पड़ने में या किसी के सामने जबान खोलने में झिझकते हैं। यह दोनों ही दुर्बलता व्यर्थ की हैं इन्हें छोड़ना ही उचित है। किसी से जब हम कोई स्वार्थ साधन करने, अपने लिए सहायता माँगने नहीं जा रहे हैं तो सम्मान को आघात कहाँ आता है? कोई उपेक्षा या उपहास करे तो भी दुखी होने की कोई बात नहीं, बीस आदमियों से श्रेष्ठ बात कहने पर यदि दो भी अभिरुचि लेने लगे तो इसमें हानि क्या हुई लाभ ही रहा।

किसी को धर्म मार्ग पर चला देने, सन्मार्ग पर प्रवृत्त कर देने के बढ़कर उसका उपकार और कुछ नहीं हो सकता। कुछ धन या वस्तु देकर किसी का कुछ देर के लिए ही भला हो सकता है, पर जीवन की दिशा मोड़ दी गई तो उसका सर्वतो सुखी कल्याण ही हो गया, उसका कुल तर गया। ऐसा पुण्य ही सच्चा पुण्य है। धर्म-प्रचार को—ज्ञान दान को—संसार का सबसे बड़ा पुण्य माना गया है। व्रतधारी सदस्य के लिए इस पुण्य प्रक्रिया को जीवन भर अपनाये रहना एक परम, पुनीत धर्म कर्तव्य की तरह आवश्यक है।

व्रतधारी का रचनात्मक कार्यक्रम

(1) संगठित शक्ति उत्पन्न करना

इस युग में किसी भी प्रवृत्ति को आगे बढ़ाने के लिए सर्वोपरि शक्ति संगठन है। इसका मूल्य और महत्व किसी भी प्रकार कम न आँका जाना चाहिए। कोई बड़ा काम इस युग में संगठन शक्ति के बिना सफल नहीं हो सकता। सार्वजनिक प्रवृत्तियों के लिए तो यह नितान्त आवश्यक है। व्रतधारी स्वयं एक संस्था बनकर रहेगा। वह अपने आप से अनेक व्यक्तियों को धर्म-प्रयोजन के उद्देश्य से सम्बन्धित करेगा। उसे चाहिए कि अपने समीपवर्ती क्षेत्र में बारीकी से यह ढूंढ़े कि धार्मिक अभिरुचि के, थोड़ी सज्जनता और सदाशयता युक्त व्यक्ति कौन-कौन हैं? उनके नाम नोट करने चाहिए और उन्हें साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना में सम्बन्धित करने का प्रयत्न करना चाहिए।

इस कार्य के लिए अपने पास साहित्य होना आवश्यक है। संस्था के अपने तीन पत्र निकलते हैं। ‘जीवन यज्ञ’ महीने की 8 तथा 23 को निकलता है, अखण्ड ज्योति 1 को और गायत्री-परिवार-पत्रिका 15 को इस प्रकार प्रति सप्ताह एक नया पत्र पहुँचता है। अपने संगठन क्षेत्र में आरम्भ में 7 व्यक्ति लेने चाहिए। इन अंकों को एक-एक दिन एक-एक के यहाँ देने और दूसरे दिन लेने जाना चाहिए। इस प्रकार सात व्यक्ति इन तीनों पत्रों को पढ़ लिया करेंगे और अंकों को एक दिन देने और एक दिन लेने के बहाने उनके यहाँ महीने में आठ बार जाने का अवसर मिलेगा। यह मिलन चाहे कुछ मिनटों का ही क्यों न हो पर लगातार निस्वार्थ भाव से किसी के दरवाजे पर जाते रहने और उसे एक अच्छा बौद्धिक भोजन बिना मूल्य पहुँचाते रहने की सेवा निश्चय ही उसे आपकी ओर आकर्षित करेगी और वह आपके व्यक्तिगत सेवा संगठन का सदस्य बन जायगा। इस प्रकार हर व्रतधारी अपने आप में एक शाखा संस्था होगा और उसके कम से कम 7 सदस्य होंगे। आरंभ में इस संगठन का कार्य संस्था के विचारों से, पत्रों से अवगत होना छोटा ही भले लगे पर इसमें युग निर्माण के सारे बीज छिपे हुए हैं।

एक व्रतधारी और सात सदस्य कुल आठ व्यक्ति प्रति सप्ताह एक स्थान पर एकत्रित होते रहेंगे, सामूहिक सत्संग का यह क्रम बारी-बारी एक-एक सदस्य के यहाँ चलता रहेगा। संस्था के प्रसारित विचारों पर परस्पर विचार विनिमय होता रहे और उनको कार्यान्वित करने के लिये कुछ सोच विचार होता रहे तो यह आठ आदमियों का संगठन ही अपने प्रदेश में विचार बीज का ऐसा विस्तार कर सकता है कि वह क्षेत्र सद्विचारों और सत्प्रवृत्तियों की हरी-भरी फसल से लहराने लगे। इन आठों में जो परस्पर प्रेम भाव बढ़ेगा उसमें एक छोटी ही सही पर एक सजीव—चिंगारी जैसी शक्ति सन्निहित रहेगी। यह चिंगारियां आगे चलकर अनाचार के बीहड़ वनों को भस्म कर डालने में समर्थ हो सकती हैं। इस आधार पर सारे समाज को, सारे राष्ट्र को संगठित किया जा सकता है।

2. सामूहिकता को प्रोत्साहन

हमारे देश में एक भारी बुराई पैदा हो गई है कि लोग मिलजुल कर काम करना पसंद नहीं करते। हर आदमी एक दूसरे से अलग रहना चाहता है, अपने अकेले के लाभ हानि की, सुख दुःख की, उन्नति अवनति की बात सोचता है। जो करना चाहता है अकेला करना चाहता है। यह पृथकतावाद राष्ट्र की प्रत्येक प्रवृत्ति के लिये घातक है। हमें ऐसे प्रयत्न करने चाहिये जिससे लोग एक साथ उठने बैठने, काम करते रहने और सारे समाज के हित अनहित की दृष्टि से विचार करना सीखें। इसके लिये सामूहिक उत्सवों एवं आयोजनों की भारी आवश्यकता है। सभा सम्मेलन, जुलूस, प्रदर्शन, रैली, शिविर आदि आयोजनों में यही उद्देश्य प्रधान रहता है। हिन्दू-धर्म में अनेक पर्वों, त्यौहारों, मेलों, तीर्थों, स्नानों, परिक्रमाओं, कथा कीर्तनों, यज्ञों, प्रीतिभोजों, बरातों का आयोजन इसी दृष्टि से है। अब वे विचार शून्यता के कारण रूढ़िमात्र बनकर एक कर्म काण्ड मात्र रह गये हैं। हमारा कर्तव्य है कि इन आयोजनों में विचारकता पैदा करें। इन आयोजनों को सुधरे हुए रूप से मनावें, इनके रहस्यों और उद्देश्यों को समझाने के लिये अच्छे प्रवचनों की व्यवस्था करें।

अब ऐसे वक्ता तैयार किये जाने चाहिये जो हमारे सामाजिक उत्सवों के वास्तविक उद्देश्यों और सन्देशों को उन आयोजनों में सम्मिलित लोगों को समझा सकें। ऐसी शिक्षा गायत्री तपोभूमि में देने की व्यवस्था की जा रही है। यह क्षमता उत्पन्न करने वाला साहित्य भी तैयार किया जा रहा है। व्रतधारी स्वयं यह क्षमता प्राप्त करे और अपने साथियों में जो इसके उपयुक्त जंचे उन्हें इसके लिये तैयार करे। सामूहिक उत्सवों की जहाँ भी गुंजाइश हो—उन्हें सुधरे हुए रूप से मनाया जाय और सही मार्गदर्शन करने वाले प्रवचनों एवं गायनों का अभाव न रहे। इस प्रकार की व्यवस्था बनाते रहने के लिए व्रतधारी को सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये।

अपनी ओर से इस प्रकार की योजना आरम्भ करने के लिये ‘गायत्री यज्ञों’ की छोटी बड़ी व्यवस्था करते रहना सब प्रकार उपयुक्त है। हमारा प्रत्येक धार्मिक सम्मेलन—सभा सम्मेलन न कहा जाय उसे यज्ञ नाम दिया जाय। यज्ञ में जहाँ वायुशुद्धि, स्वास्थ्य रक्षा आदि अनेक लाभ हैं वहाँ यज्ञीय भावनाओं का विस्तार सबसे बड़ा लाभ है। लोक शिक्षण के लिये—जन मानस निर्माण करने के लिये—धर्म प्रवृत्तियाँ पैदा करने के लिये—यज्ञ से बढ़कर और कोई माध्यम नहीं हो सकता। धार्मिक श्रद्धा लेकर आई हुई जनता में नैतिकता के संस्कार डालना जितना संभव है उतना और किसी प्रकार नहीं हो सकता। जब भी बन पड़े सामूहिक जप, अनुष्ठान एवं गायत्री यज्ञ—करते रहने चाहिए। इनके लिये आश्विन और चैत्र की नवरात्रियाँ बहुत ही उपयुक्त अवसर हैं। इन उत्सवों में एक प्रकार से शिक्षण शिविर जैसे कार्यक्रम बना देना चाहिये।

3-रचनात्मक कार्य

इसके निम्न प्रकार हो सकते हैं

(1) निर्माणात्मक कार्य—ज्ञान मन्दिरों की स्थापना, पुस्तकालय, वाचनालय बनाना, विद्यालय या ऐसे ही और कोई उपयोगी संस्थान बनाना, पुराने मन्दिरों तथा घाटों का जीर्णोद्धार करना, इसके लिये जन सहयोग एवं श्रमदान एकत्रित करना।

(2) रात्रि पाठशालाएँ चलाना जिनमें कार्यव्यस्त लोग रात्रि के अवकाश में साक्षर बनें तथा कथा एवं सत्संग के रूप में सद्ज्ञान प्राप्त करें।

(3) सामयिक सेवाएँ—मेला उत्सवों पर स्वयं सेवकों के रूप में जनता की यातायात संबंधी कठिनाइयों को हल करना, जल व्यवस्था, पहरेदारी, बदमाशों से सुरक्षा, खोये बच्चे ढूँढ़ना आदि सहायताएं करना।

(4) जो व्यक्ति या संस्थाएं किन्हीं विकास योजनाओं में या लोकहित के रचनात्मक कार्यों में लगी हों, उनके कार्यों में सम्मिलित होना, योग देना।

(5)व्यायाम शालाएं, प्रतियोगिताएं, चिकित्सालय एवं लोक शिक्षण के लिये वर्तमान गुत्थियों के संबन्ध में मार्ग दर्शन करने वाली व्याख्यान मालाएं एवं शिक्षण शिविरों का आयोजन करना।

(6) स्थानीय परिस्थिति के अनुसार और भी जो उपयोगी कार्य सूझ पड़े उनकी व्यवस्था करना।

4-आन्दोलन प्रक्रियाएं

कुछ छोटे-छोटे आन्दोलन अपने क्षेत्र में खड़े करने चाहिये। इनके रूप आरंभ से सत्याग्रह एवं संघर्ष जैसा न बना दिया जाय क्योंकि आन्दोलनकारी जब तक संगठित, काफी मजबूत न हों और जनमत उसके पक्ष में न हो तब तक संघर्षों के असफल होने का भय रहता है। असफलता की उलटी प्रतिक्रिया होती है। कमजोर तबीयत के साथी एवं कार्यकर्ता हतोत्साह हो जाते हैं। इसलिये आरम्भ में सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध भाषण, सम्मेलन, साहित्य प्रसार एवं प्रदर्शन करके जनमत तैयार करना चाहिये और उन बुरे कार्यों में सम्मिलित न होने का असहयोग आन्दोलन करना चाहिये। इस प्रकार के आन्दोलनों की कुछ चर्चा नीचे की जाती है :—

(1)देवी देवताओं पर चढ़ाई जाने वाली पशुबलि।

(2)मृतक भोज के धार्मिक उद्देश्य के लिये आवश्यक ब्राह्मणों एवं कुटुम्बी रिश्तेदारों को छोड़कर अन्य लोगों को कराये जाने वाले प्रीति-भोज का विरोध।

(3)छोटी उम्र के लड़के लड़कियों के विवाह का विरोध।

(4)अनमेल विवाहों का विरोध।

(5)दहेज का विरोध, वर पक्ष दहेज न माँगें और कन्यापक्ष जेवरों की एवं अपने दरवाजे की शोभा कराने के लिये खर्चीले बाजे, बरात, रोशनी, आतिशबाजी आदि की माँग न करे, इसके लिये वातावरण तैयार करना। विवाह संस्कार बहुत ही सादा हों। सम्भव हो तो आदर्श विवाहों का एक धार्मिक मेला ही किया जाय जिससे एक समय में अनेक विवाह हो जाया करें। गायत्री तपोभूमि में गायत्री जयन्ती जेष्ठ सुदी 10 तथा देवोत्थान कार्तिक सुदी 11 को वर्ष में दो बार ऐसे आदर्श विवाह हुआ करेंगे।

(6) माँसाहार और अण्डे खाने का विरोध।

(7) तमाखू, गाँजा, भाँग, अफीम, शराब आदि नशों का विरोध

(8) जुआ, सट्टा, लाटरी, फीचर, चोरी लूट, रिश्वत आदि बिना श्रम का, बिना अधिकार का धन प्राप्त करने की प्रवृत्ति का विरोध।

(9) अश्लील चित्रों को घरों में टाँगने, अश्लील साहित्य पढ़ने एवं अश्लील सिनेमाओं का विरोध। अश्लील चित्रों एवं पुस्तकों की होली जलाना।

(10) फैशन परस्ती, शौकीनी, फिजूल खर्ची का विरोध।

(11) महिलाओं की ऐसी उत्तेजक वेश-भूषा शृंगार-विन्यास एवं चाल-ढाल का विरोध जिससे अनावश्यक आकर्षण पैदा होता हो। शील और शालीनता की प्रवृत्तियाँ नारी जीवन में सुव्यवस्थित रहें ऐसा प्रयत्न करना।

(12) अपने बुजुर्गों एवं गुरुजनों के नित्य चरण स्पर्श की प्रवृत्ति बढ़ाना।

(13) भूत पलीत, झाड़ फूँक, स्याने दिवाने, पीर मुरीदों के नाम पर प्रचलित अन्ध विश्वासों एवं भ्रष्टाचारों का विरोध।

(14) पशुओं के साथ निर्दयता बरतने, उनकी शक्ति से अधिक काम लेने, घायल अंगों को दुखाकर काम लेने एवं छुट्टा छोड़कर उन्हें पिटवाने का विरोध।

(15) जन्म दिन मनाने के व्यक्तिगत उत्सवों की प्रथा का आरम्भ।

(16) समय-समय पर सामूहिक यज्ञोपवीत धारण के उत्सव आयोजनों की व्यवस्था।

(17) पर्व और त्यौहारों को सुधरे हुये रूप में मनाना। षोडश संस्कारों की प्रथा शिक्षात्मक विधि के साथ प्रचलित करना।

5 -प्रतिज्ञा पत्र आन्दोलन

ऐसी ही अनेकों और भी कुप्रथाएं अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग प्रकार की हो सकती हैं। उनके विरुद्ध आन्दोलन किया जाय। आन्दोलनों में पर्चे बाँटना, इन विषयों की सस्ती पुस्तिकाएं बेचना या बाँटना, भाषणों एवं सम्मेलनों का आयोजन, पोस्टर चिपकाना, दीवारों पर वाक्य लिखना तो प्रधान है ही साथ ही प्रतिज्ञा पत्र भराने का आन्दोलन भी चलाना चाहिए। इन कुरीतियों को न पड़ने या यदि पड़ गई हैं तो छोड़ने के प्रतिज्ञा पत्र लोगों से भराने चाहिए। ऐसे प्रतिज्ञा पत्रों की छपी पुस्तिकाएं लागत से भी कम मूल्य में गायत्री तपोभूमि से उपलब्ध होती हैं। अपने यहाँ जिस कुरीति की बहुलता हो, जिसके विरुद्ध प्रतिज्ञा आन्दोलन चल सके उसके प्रतिज्ञा पत्र मंगा लेने चाहिए। प्रतिज्ञा पत्र भरने वाले को धन्यवाद पत्र दिया जाय। यह धन्यवाद पत्र एवं प्रतिज्ञा पत्रों की जोड़ी तैयार की जा रही है। दहेज के विरोध में स्कूल कालेजों में जाकर लड़के लड़कियों से प्रतिज्ञापत्र भराने चाहिए कि यदि उनके विवाह में दहेज लिया या दिया गया तो वे विवाह करने से ही इनकार कर देंगे। यह प्रतिज्ञापत्र-व्रतधारी के कार्य की महत्ता का प्रमाण माने जावेंगे।

जहाँ यह कुरीतियाँ बरती जायँ ऐसे बड़े आयोजनों या प्रीतिभोजों में सम्मिलित न होने की प्रतिज्ञा करने वाले असहयोगियों का एक बड़ा दल बन जाय तो उनका साधारण विरोध भी इन दुष्प्रवृत्तियों को रोकने में भारी सहायक सिद्ध हो सकता है।

यह कहा जा सकता है कि जब देश के सामने अन्य अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक प्रश्न उपस्थित हैं तो उन्हें हल करने या जोर डालने की अपेक्षा इन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देने से क्या लाभ? ऐसी शंका करने वाले जनता के मनोविज्ञान को नहीं समझते। हमारे देश का भावना क्षेत्र पिछले सैकड़ों हजारों वर्षों की दुरावस्था ने ऐसा दुर्बल कर दिया है कि उससे किसी बहुत बड़े आन्दोलन को पूरा करने की आशा नहीं जा सकती हैं।

*समाप्त*


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