संसार-संकट और हमारा कर्तव्य

April 1959

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(श्री विश्वबन्धु)

इस समय आणविक शस्त्रों के आविष्कार के कारण समस्त संसार पर भय की एक काली घटा छा रही है। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सब एक भीषण भविष्य की कल्पना से व्याकुल हो जाते हैं। जहाँ साधारण विद्या बुद्धि के मनुष्य इस विषय में तरह-तरह की काल्पनिक बातें करते दिखाई देते हैं, वहाँ संसार के सबसे बड़े राजनीतिज्ञ और राष्ट्रों के संचालक भी इस भय से इनकार नहीं करते और समय-समय पर मानव-सभ्यता को सर्वनाश से बचाने के लिये चेतावनी देते रहते हैं।

इस प्रकार के नाशकारी संघर्ष का भय कोई नई बात नहीं है। मनुष्य में प्राचीनकाल से ही स्वार्थपरता का भाव प्रबल रहा है और वह शक्ति प्रयोग द्वारा दूसरों के सत्त्व का अपहरण करना अपना स्वाभाविक अधिकार मानता रहा है। पर आरम्भ में यह संघर्ष व्यक्तिगत होता था, इसलिये इसका स्वरूप प्रायः सीमित रहता था। फिर जब से बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित हुये तब से इस संघर्ष का विस्तार बढ़ने लगा और इधर तीस चालीस वर्षों के भीतर तो आवागमन के साधनों की तीव्र गति के कारण इसने सम्पूर्ण जगत को एक ही सूत्र में आबद्ध कर दिया है।

मानवता के ऊपर इस संकट को देखकर लोक हितैषी महापुरुषों का हृदय द्रवित हो जाता है और वे इसके निवारण के लिये राष्ट्रों को न्यायमार्ग पर चलने की प्रेरणा देते रहते हैं। कुछ समय पूर्व विश्व-बन्धुत्व के सिद्धान्त का प्रचार करने वाले बहाई सम्प्रदाय के एक नेता ने इस विषय में कहा था—

“अपने हृदयों में विचारो कि इस समय संसार कैसे कष्टों और क्लेशों में डूबा हुआ है, किस प्रकार संसार की जातियाँ मानवीय रक्त से लिथड़ी हैं, नहीं-नहीं उनकी मिट्टी तक भी लहू से रँगी हुई है। युद्ध ने ऐसी भीषण अग्नि प्रचण्ड की है कि संसार ने इसके सदृश न तो प्राचीनकाल में और न मध्यकाल में देखी थी। युद्ध रूपी चक्की चली और उसने असंख्य मानुषिक सिरों को पीस डाला, नहीं-नहीं इसकी भेंट चढ़ने वालों की दशा तो इससे भी बुरी हुई। फलते-फूलते देश नष्ट-भ्रष्ट हो गये, नगर के नगर भूमितल से मिला दिये गये, बसते हुये गाँव खंडहर बना दिये गये, पिताओं के पुत्र जाते रहे और पुत्र पिताहीन हो गये, माताएँ अपने जवान पुत्रों के शोक में लहू के आँसू रोई, नन्हे-नन्हे शिशु अनाथ हो गये और विवाहिता युवतियाँ बेठौर ठिकाने हो गईं। साराँश यह कि मनुष्य सर्वप्रकार से पतित हो गया।

“इन सब घटनाओं का वास्तविक कारण जातीय, सामाजिक, साम्प्रदायिक और राजनीतिक पक्षपात है और इस पक्षपात का मूल कारण व दूषित गाथाएँ हैं जो हृदयों में जमी हुई हैं, चाहे वह गाथाएँ साम्प्रदायिक हों या जातीय हों, सामाजिक हों या नैतिक हों। जब तक इन गाथाओं का लेशमात्र भी शेष रहता है मनुष्य रूपी भवन की नींव सुरक्षित नहीं और स्वयं मनुष्य मात्र भी निरन्तर भय में है।”

“अब इस प्रकाशमान युग में जब कि सारी सृष्टि का सार प्रकट कर दिया गया है और सारी रचना का गुप्त भेद स्पष्ट कर दिया गया है, जब सच्चाई के प्रभात ने अंधकार को दूर कर दिया है, क्या यह मानवोचित है कि ऐसा भयानक रक्तपात, जो संसार पर ऐसा नाश लाता है जिसकी पूर्ति नहीं हो सकती, उसे होने दिया जाय?

ईसामसीह ने सारे संसार के लोगों को शान्ति और मेलजोल की शिक्षा दी। उसने पतरस को आज्ञा दी थी कि वह अपनी तलवार को म्यान में रखे। यह ईसा की शिक्षा और उसकी इच्छा भी थी, किन्तु आज तो जो उसके नामलेवा हैं उन्होंने तलवार नंगी की हुई है। इन लोगों के कामों और बाइबिल की स्पष्ट शिक्षा में कितना भेद है!

“हमारा सब से पहला उपदेश सत्य की खोज करने का है। किसी दूसरे का अन्धाधुन्ध अनुकरण मनुष्य की आत्मा को मार देता है, किन्तु सत्य की खोज संसार को पक्षपात के अन्धकार से मुक्त करती है।”

“दूसरी शिक्षा मनुष्य मात्र की एकता की है। ईश्वर प्रत्येक प्राणी पर असीम कृपा रखता है। ईश्वर ने अपनी सृष्टि में कोई भेदभाव नहीं रखा है।”

“धर्म एक बड़ा मजबूत किला है। इसको एकता का प्रेरक होना चाहिये न कि शत्रुता और घृणा का कारण। यदि धर्म से शत्रुता और घृणा उत्पन्न होती हैं तो इसका त्याग कर देना ही श्रेष्ठ है, क्योंकि धर्म एक औषधि के समान है, यदि औषधि से रोग बढ़े तो वह किस काम की?

“इसी प्रकार साम्प्रदायिक, जातीय, सामाजिक और राजनैतिक (आर्थिक) पक्षपात मनुष्य मात्र की नींव को खोखला करने वाले हैं। इन सबका परिणाम रक्तपात होता है। यह सब मनुष्य का नाश करते हैं। जब तक यह रहेंगे युद्ध का भय भी लगा रहेगा। इसका एकमात्र उपाय विश्वव्यापी शाँति की स्थापना है। यह तभी होगा जब एक महा न्यायालय (पंचायत) स्थापित हो जाय जिसमें सारे राज्यों और सारी जातियों के प्रतिनिधि हों। सारे जातीय और अन्तर्जातीय झगड़े इसी पंचायत के आगे पेश होंगे और जो कुछ निर्णय वह करेगी उसी को मनवाया जायगा। यदि कोई राज्य उसे मानने से इनकार करेगा तो सारा संसार उनका एक साथ विरोध करेगा।”

भारत के ऋषि-मुनियों ने बहुत पहले से इस तथ्य की घोषणा कर दी है कि यह समस्त विश्व एक ब्रह्म से ही उद्भूत हुआ है और आत्म-दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य एक ही है। यदि वह अपने को भिन्न समझकर लड़ता झगड़ता या दुष्टाचरण करता है तो इसका कारण माया जनित अज्ञान ही है। यह सत्य है कि जब मनुष्य को भूख प्यास के दुःसह कष्ट का सामना करना पड़ता है तो वह ज्ञान की इन बातों को भूल जाता है और हर प्रकार से स्वार्थ साधन का प्रयत्न करने लगता है। पर इससे यह भी ज्ञात होता है कि संसार का अधिकाँश अभी तक अज्ञानान्धकार में पड़ा है और उसके संचालक या नेता अपने यथार्थ कर्तव्य पालन की अपेक्षा स्वार्थ-भाव में डूबे हैं। इससे यह भी पता चलता है कि जो व्यक्ति अध्यात्म, दर्शन, ईश्वर, धर्म आदि की बातें करते हैं वे भी उनमें आन्तरिक विश्वास और श्रद्धा नहीं रखते वरन् ऐसी बातों के द्वारा दूसरे लोगों को बहकाना या भुलावे में रखना ही उनका उद्देश्य होता है।

कुछ भी हो मानव समाज अब बढ़ते-बढ़ते एक ऐसे विकट स्थल पर आ पहुँचा है,जहाँ पारस्परिक समझौते के सिवाय दूसरा मार्ग नहीं है। संसार के सामने अनेकों विकट समस्याएँ और टेढ़े प्रश्न उपस्थित हैं। साधारण जनता में तो न अभी इतना ज्ञान प्रसार हुआ है और न इतनी शक्ति आई है कि वह इस कार्य को पूरा कर सके। उनमें तो अधिकाँश लोगों का विचार क्षेत्र बहुत सीमित रहता है और वे अपने परिवार, जाति, या प्रदेश से आगे की चीज देख सकने में समर्थ नहीं होते। इसलिये यह विभिन्न राष्ट्रों के शासकों और नेताओं का ही कर्तव्य है कि मनुष्य मात्र की एकता और समानता के सिद्धान्त को स्वीकार करके एक विश्वव्यापी संघ-शासन की योजना करे। यह भली प्रकार समझ लेना चाहिये कि इस प्रकार की योजना के कार्यान्वित होने से किसी भी राष्ट्र की हानि नहीं हो सकती वरन् वे आज की अपेक्षा अधिक सुख और सुविधा का ही जीवन व्यतीत कर सकेंगे। जब ऐसा कोई विधान, जिसमें किसी प्रकार का स्वार्थ या अन्याय न होगा, सभी शक्तिशाली राष्ट्रों के सूत्रधारों द्वारा निश्चित करके चलाया जायगा तो उसे संसार के प्रायः सभी देश और व्यक्ति अपने लिये लाभकारी समझ कर मान लेंगे। यदि कुछ इने-गिनें व्यक्ति या एकाध देश अपनी दुष्ट प्रकृति अथवा मूढ़ता के कारण विरोध करेगा तो वह विश्व संघ की सम्मिलित शक्ति द्वारा सहज ही में सीधी राह पर लाया जा सकेगा। इस योजना की पूर्ति में अगर कहीं कुछ खून खराबी हो भी गई तो वह विश्वयुद्ध के हजारवें भाग के बराबर भी नहीं होगी और संसार वास्तव में मनुष्यों के रहने लायक बन जायगा। इसके विपरीत यदि शान्ति और सुलह की दुहाई देते हुये भी बड़े राष्ट्र अपने स्वार्थ और जातीय अहंकार को ही प्रधानता देते रहे तो शाँति-चर्चा होते-होते अचानक ज्वालामुखी फूट पड़ेगा और संसार में ऐसा भयंकर राजनैतिक और सामाजिक भूचाल आयेगा कि साम्राज्यों, राष्ट्रों, देशों, जातियों, मजहबों और व्यक्तियों का कहीं पता भी न लगेगा और यह दुनिया खेतों, बाग, बगीचों, नगरों, कारखानों और बड़े बड़े उद्योग-धन्धों से भरे पूरे जगत की बजाय, बियावान और उजाड़ बन जायगी। आशा है कि विभिन्न राष्ट्रों के सूत्रधारों में समय रहते सुबुद्धि का उदय होगा और मनुष्य अपने को पहचान कर आध्यात्मिक एकता के मार्ग को अपनायेगा।


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