हिन्दू धर्म में पर्व और त्यौहारों की उपयोगिता

April 1959

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(श्री शंभूसिंह)

हिन्दू-धर्म में पर्व और धार्मिक त्यौहारों का इतना बाहुल्य है कि उनके लिये जनता में “सात बार और नौ त्यौहार” की कहावत प्रचलित हो गई है। यदि खोज और विचार करके देखा जाय तो इस कहावत में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है। हिन्दू-धर्म में वास्तव में प्रत्येक तिथि और बार को पर्व माना गया है और उसे मनाने के लिये विशेष धार्मिक विधान भी बतलाया है। इनके सिवाय देवताओं, अवतारों, महापुरुषों की स्मृति अथवा जयंती के लिये भी त्यौहार नियम किये गये हैं। कुछ अन्य पर्व जैसे संक्राँति, ग्रहण, कुम्भ आदि आकाश स्थित ग्रहों के योग और उनसे पृथ्वी पर पड़ने वाले शुभाशुभ प्रभाव को दृष्टिगोचर रखकर मनाये जाते हैं।

ये पर्व या त्यौहार किसी भी श्रेणी के क्यों न हों, और उनका बाह्यरूप कैसा भी क्यों न हो, उनको स्थापित करने में हमारे पूर्वजों का मुख्य उद्देश्य यही था कि सर्व साधारण में धार्मिकता, सामाजिकता और परोपकार आदि की भावनायें बढ़ें, तथा लोगों की प्रवृत्ति भौतिकता की तरफ से आध्यात्मिकता की ओर हो। भारतीय संस्कृति का एक मुख्य लक्षण अंतर्मुख होना है। बाहरी चीजें चाहे कितनी भी चमक दमक वाली और आकर्षण जान पड़ें पर उनके द्वारा मनुष्य की आत्मा का विकास नहीं हो सकता, उल्टा वे मनुष्य के विचारों को परमार्थ से स्वार्थ की तरफ प्रेरित करने वाली ही होती हैं। इसलिये भारतीय ऋषि मुनियों ने लोगों को यथाशक्ति अधिक से अधिक समय धार्मिक कृत्यों, धर्मोत्सवों, धार्मिक विधि विधानों में लगाने की व्यवस्था की है जिससे वे जीवन के वास्तविक लक्ष्य को याद रखते हुये सन्मार्ग पर स्थिर रहें।

धर्म और आध्यात्मिकता के भावों की वृद्धि के साथ ही धार्मिक और सामाजिक त्यौहारों का एक दूसरा बड़ा उद्देश्य सामूहिकता की वृद्धि करना भी है। मानव जीवन की सफलता के लिये जहाँ व्यक्तिगत उन्नति और सत्प्रवृत्तियों को ग्रहण करने की आवश्यकता है, वहाँ समाज-संगठन का सुदृढ़ बनाना और पारस्परिक सहयोग के द्वारा सामाजिक हित की बड़ी योजनाओं की पूर्ति करना भी अत्यावश्यक है। इसके लिये लोगों में पारस्परिक एकता, भाईचारे की मनोवृत्ति का उत्पन्न होना आवश्यक है। हमारे यहाँ होली, दिवाली, दशहरा और स्नान आदि के जो त्यौहार और पर्व नियत किये गए हैं उनका विशेष उद्देश्य यही है कि लोग परस्पर, प्रेमपूर्वक मिलें और सामूहिकता की भावना को सुदृढ़ बनावें।

जो त्यौहार या उत्सव किसी प्राचीन महापुरुष या अवतार आदि की जयंती के रूप में मनाए जाते हैं उनका एक बहुत बड़ा लाभ यह होता है कि जनता को उनके द्वारा सच्चरित्रता, नैतिकता, सेवा, सद्भावना आदि की शिक्षा मिलती है। इस प्रकार के उत्सव संसार के सभी देशों में मनाये जाते हैं, और इस बात का ध्यान रखा जाता है कि जनसाधारण अपने उन महान पूर्वजों के चरित्रों से उच्च कोटि के सद्गुणों की प्रेरणा प्राप्त करे। वास्तव में जिस जाति के यहाँ ऐसे महापुरुषों का अभाव है, वह उन्नति की आशा नहीं रख सकती, क्योंकि साधारण मनुष्य के लिये बिना किसी मार्गदर्शक अथवा प्रकाशस्तम्भ के संसार-सागर में सफलता पूर्वक अग्रसर हो सकना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि उन्नति की कामना रखने वाली जातियाँ अपने पूर्व पुरुषों के चरित्रों और महान कार्यों को बड़े गौरव के साथ याद करती रहती हैं। उदाहरण के लिये हम योरोप में फ्राँस और एशिया में जापान का उल्लेख कर सकते हैं। ये दोनों देश अपेक्षाकृत छोटे होने पर भी वीर-पूजा के गुण के कारण ही संसार की राष्ट्र मंडली में अग्रगण्य बन गये।

उस दृष्टि से जब हम भारतवर्ष की अवस्था पर विचार करते हैं तो यहाँ भी महापुरुषों का कोई अभाव दिखलाई नहीं पड़ता। वरन् सत्य बात तो यह है कि हमारे देश में जितने अधिक आदर्श चरित्र के व्यक्ति हुए हैं, उतने संसार के किसी भी बड़े से बड़े देश में मिल सकना असम्भव है। राम, कृष्ण, बुद्ध आदि ईश्वरीय श्रेणी के महामानवों की बात छोड़ दीजिये, हमारे जितने भी मुनि ऋषि, नरेश, संत आदि हुए वे सभी आदर्श जीवन बिताने वाले महापुरुष थे और उनमें से प्रत्येक का जीवन हमारे लिए अनुकरणीय है। हिन्दुओं के अधिकाँश त्यौहारों का ऐसी ही किसी न किसी दैवी विभूति से सम्बन्ध है और इस कारण वे हमारे लिए हर प्रकार से शिक्षाप्रद और कल्याणकारी मार्ग के प्रदर्शक हैं।

पर खेद का विषय है कि जिस प्रकार हिन्दू-समाज के संगठन में अन्य अनेक प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न हो गई हैं, उसी प्रकार इन पर्वों और त्यौहारों के स्वरूप में भी बड़ा अन्तर पड़ गया है। लोग उनके मूल उद्देश्य और वास्तविक नियमों को तो भूल गए हैं और स्वार्थी अथवा अशिक्षित लोगों द्वारा बीच में पैदा की गई रूढ़ियों की लकीर को ही पीट रहे हैं। इतना ही नहीं कितने ही हीन चरित्र के अथवा दुर्व्यसनी लोगों ने तो इन त्यौहारों में अनेकों हानिकारक और गन्दी बातें शामिल कर दी हैं और उनकी निगाह में वे ही सार रूप होती है। उदाहरण के लिए अनेक जुए बाज दिवाली की राह बड़े शौक से देखते रहते हैं और उसके आने पर एक दिन, घंटे दो घंटे कि लिए नहीं, जितना संभव होता है दस-दस, बीस-बीस दिन तक जुए का बाजार गर्म रखते हैं। इसी प्रकार होली के अवसर पर गुण्डा और बदमाश श्रेणी के लोग तरह-तरह के उपद्रव मचाने और भले आदमियों को तंग करने के मौके ढूँढ़ते रहते हैं। वे जान बूझकर दूसरों की वस्तुओं को नष्ट करते हैं और हर किसी को बेइज्जत करने की कोशिश करते हैं। जहाँ होली सामूहिकता की भावना को बढ़ाने वाला हमारा सब से प्रमुख त्यौहार था, वहाँ ऐसे नीच लोग उसे वैमनस्य और झगड़े फसाद का कारण बना देते हैं।

अब समय बदल रहा है और हिन्दू जाति सावधान होकर अपनी त्रुटियों को दूर करके, अपने संगठन को सुदृढ़ बनाने की कोशिश कर रही है। ऐसे अवसर पर त्यौहारों और पर्वों पर ध्यान देना उसके सर्वप्रथम कर्तव्यों में से एक है। क्योंकि जैसा हम आरम्भ में कह चुके हैं पर्व और त्यौहार जातीय चरित्र को सुधारने तथा साधारण मनुष्यों को सामाजिक कर्तव्यों की शिक्षा देने के सबसे सुगम और स्वाभाविक साधन हैं। अभी तक बहुत बड़े जनसमूह की उन पर आस्था और श्रद्धा है। इसीलिए यदि हम बीच के जमाने में उत्पन्न हो गई हानिकारक रूढ़ियों का निराकरण करके उनको शास्त्रानुकूल लाभजनक ढंग से मनाने लगें तो वे समाज के लिए बड़े हितकारी सिद्ध हो सकते हैं।


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