ध्यान-योग द्वारा आत्मोत्कर्ष

April 1959

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(स्वामी सत्यानन्दजी महाराज)

संसार के सभी महत्वपूर्ण कार्यों की सफलता के लिये मनोयोग अथवा ध्यान की, एकाग्रता की आवश्यकता है। इसमें भी आध्यात्मिक साधन तो बिना ध्यान के निश्चल हुये हो ही नहीं सकते। ध्यानपूर्वक विचार करने से ही हम किसी वस्तु के मूल स्वरूप और उसकी वास्तविकता को जान सकते हैं। अगर हमारा ध्यान इधर-उधर बँटा रहता है, तो हम किसी विषय का गहराई में पैठकर यथा तथ्य ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते।

ध्यान दो प्रकार का होता है—एक स्थूल ध्यान और दूसरा सूक्ष्म ध्यान। दृष्ट अथवा अदृष्ट स्थूल पदार्थों को देखने अथवा समझने के लिये जिस ध्यान की आवश्यकता होती है, उसे स्थूल-ध्यान कहते हैं और सूक्ष्म पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये जो ध्यान किया जाता है वह सूक्ष्म-ध्यान कहा जाता है। किसी भी पदार्थ को जानने या प्रत्यक्ष करने की इच्छा करने पर जिस प्रकार हम उसकी ओर अपने को अग्रसर करते हैं, अथवा दृश्य और दृष्टा के बीच में जो अन्तर है उसे दूर करने का प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार सर्वगामी मन को भी अपने अभिलाषित पदार्थ की ओर गतिमान करने से उन दोनों के बीच का अन्तर जाता रहता है और वह पदार्थ हमको स्पष्ट दिखलाई देने लगता है। अथवा जब हम किसी कार्य के विषय में निर्णय करना चाहते हैं तो हमको उसकी भूत, भविष्यत् और वर्तमान स्थिति पर विचार करना आवश्यक होता है, उसी प्रकार हम यदि किसी पदार्थ का तत्वज्ञान की दृष्टि से ध्यान करना चाहेंगे तो हमको उसके प्रत्येक अंग पर पूर्णरूप से ध्यान करना चाहिये, तभी उसका सत्य स्वरूप हम पर प्रकट हो सकेगा।

स्थूल-ध्यान साधन

पिता, माता, गुरु आदि किसी पूजनीय व्यक्ति की मूर्ति जिसे हम पहले से भली प्रकार देख चुके हैं; अथवा राम, कृष्ण, शिव आदि किसी देवता की मूर्ति जिसमें हमारा हार्दिक अनुराग हो; अथवा नदी, पर्वत, सागर, वन, उपवन, नगर, महल जो हमें सबसे उत्तम रमणीक जान पड़ता है-ऐसी कोई भी मनोनुकूल वस्तु या पदार्थ ध्यान के लिये ग्रहण करना चाहिये। हमको बार-बार उसी पदार्थ का ध्यान, उसकी याद करते रहना चाहिये। ऐसा लगातार करते रहने से हमको स्थूल-ध्यान का अभ्यास हो जायेगा। हमारे अन्नमय शरीर की प्रधान वृत्ति स्मृति शक्ति है। यदि हम किसी पदार्थ के लिए बार-बार स्मृति शक्ति का प्रयोग करते रहेंगे तो वह मूर्ति अथवा पदार्थ हमको स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ेगा। जब हमारा यह अभ्यास पक्का हो जायेगा। तो हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों का निरोध करके अथवा निद्रित होकर उस मूर्ति या व्यक्ति से बात-चीत भी कर सकते हैं। यह एक प्रकार से स्वप्न के मध्य में किये गये भाषण की तरह होता है। कारण यह कि प्राणमय शरीर में अथवा प्राकृतिक प्राणमय क्षेत्र में निद्रावृत्ति को प्रधान माना गया है। साथ ही भाषण आदि भी प्राण के ही कार्य हैं। इसलिए स्वप्न में मूर्ति की बात-चीत सुन सकना अथवा उसके अंग संचालन आदि को देख सकना सम्भव होता है। इसी तथ्य को समझकर साधक गण ध्यान के लिये अपने गुरु अथवा किसी वीतराग पुरुष की मूर्ति को ग्रहण करते हैं। इस प्रकार का स्वप्न या सुषुप्ति अवस्था में साक्षात्कार स्थूल ध्यान से सम्बन्ध रखता है और उसके लिये केवल चित्तवृत्ति के प्रयोग की आवश्यकता होती है। इस प्रकार के ध्यान का अभ्यास करते समय साधक के लिये कई प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं, पर उनकी तरफ से उदासीन रहना ही श्रेयस्कर है। अपने साधन की सफलता के विषय में ऐसी कोई परीक्षा लेना या ऐसी सिद्धियों के विषय में किसी अन्य व्यक्ति से बातचीत करना उचित नहीं है। ऐसा करना अपने प्रगति-मार्ग में काँटे बोना है। ध्यान का अभ्यास करते समय प्रतिदिन ध्यान में अनुभव आये विषयों को ध्येय वस्तु से सामञ्जस्य करके उसका पर्यालोचन करना लाभ-जनक है। जब तक साधन में इस प्रकार का सामञ्जस्य उत्पन्न नहीं होता तब तक उसे पूर्ण नहीं समझना चाहिये और बराबर अपने कार्यक्रम में दत्तचित्त रहना चाहिये। इस कार्य में त्राटक कर्म का अभ्यास बहुत अच्छा समझा जाता है। ध्यानयोग का अभ्यास बढ़ने पर साधक को उन पदार्थों का भी ध्यान करना चाहिये जिनको अभी तक नहीं देखा है, पर भविष्य में जिनके देखने की संभावना है, उनको भी प्रत्यक्ष देखकर वास्तविक वस्तु से उसका मिलान करना चाहिये। इस प्रकार अतीत (भूत), वर्तमान और भविष्यत् पदार्थों का ध्यान करके उनको ध्यान में प्रत्यक्ष देख और समझा जा सकता है इतना हो जाने पर ध्यानयोग का स्थूल साधन सम्पन्न हुआ समझा जा सकता है।

सूक्ष्म ध्यान

सूक्ष्म-ध्यान के लिये पहले सूर्य-मंडल जैसे विषय का ध्यान करना चाहिये। साधक को विचारना चाहिये कि सूर्य में ऐसी कौन सी शक्ति विद्यमान है जिसके द्वारा उसमें ऐसी तेज और जीवनी शक्ति भरी हुई है। ऐसे गूढ़ विषयों का ध्यान करके उनको जानना ही सूक्ष्म ध्यान के अभ्यास की प्रणाली है। बीज से जिस प्रकार वृक्ष का अनुमान किया जाता है, अथवा धुँआ से जैसे अग्नि का अनुमान किया जाता है उसी प्रकार सभी कार्य और कारणों में प्रच्छानु भाव से रहने वाले तथ्य विचारवान व्यक्ति के मन में प्रतिफलित होते रहते हैं। जिस पदार्थ या विषय का आस्तित्व एक बार असंदिग्ध रूप से प्रतिपादित हो चुका है, जिसको सर्वतोभाव असम्भव मान लिया गया, उसके भूत, भविष्यत्, वर्तमान स्वरूप में कैसा भी तारतम्य क्यों न दृष्टिगोचर हो, उसका स्वधर्म (स्वाभाविक गुण, सदैव विद्यमान रहता है। आवरण पड़ जाने से चाहे वह “धर्म” साधारण मनुष्यों से अलक्षित रहे; पर ज्ञानी के ज्ञान-नेत्रों से वह नहीं छुप सकता। योग-साधना का इच्छुक जिस समय मनोमय शरीर में अवस्थान करता हुआ ‘सोहं’ का ध्यान करता है, उस पर विचार करने लगता है, तो वह मनोमय शरीर को अतिक्रम करके विज्ञानमय शरीर में पहुँच जाता है। किसी विशेष पदार्थ का साक्षात्कार करने के निमित्त हम बहुत अधिक प्रयत्न करें, तो भी साक्षात्कार हो जाने पर उसके प्रति एक प्रकार का स्वाभाविक वैराग्य हो जाता है। इसीलिये मनोमय शरीर से अग्रसर होकर विज्ञानमय शरीर में पहुँच जाने पर भी उसके प्रति स्वाभाविक वैराग्य हो जाने से साधक पुनः मनोमय शरीर में ही वापस लौट आता है। इसलिये हमको सूक्ष्म ध्यान द्वारा बार-बार अपने ध्येय स्वरूप का ध्यान करने और वहाँ पर दृढ़ रूप से अधिष्ठित होने का प्रयत्न करना पड़ता है। इसके लिए “सोहं” शब्द का ध्यान—विचार आवश्यक है। इस समय साधक अपने को बहुत उच्च स्थिति पर पहुँच गया अनुभव करता है, और अनेकों वस्तुएं या शक्तियाँ, जो पहले अत्यन्त दुर्लभ जान पड़ती थीं, इस समय अनायास प्राप्त हो जाती हैं। परन्तु, साधक को उन सबके प्रति वैराग्य भाव रखना ही उचित है। ऐसी स्थिति में साधक को अन्य व्यक्तियों के सामने अपने को बिल्कुल साधारण मनुष्य के रूप से ही प्रकट करना कल्याणकारी है। क्योंकि यदि वह अपने को छुपा न सकेगा तो लोग उसके प्रति इतने अधिक आकर्षित हो जायेंगे कि उसकी साधना में विघ्न पड़ जायगा। इसलिये यदि सबसे ऊँची स्थिति के समीप पहुँचकर भी हम बिल्कुल नगण्य-उपेक्षित अवस्था में बने रहें तो इससे हमको साधन करने में विशेष सुविधा ही प्राप्त होगी। सबका साराँश यही है कि ध्यान-योग द्वारा ही मनुष्य मनोमय शरीर का अतिक्रम करके विज्ञानमय में पहुँच कर समाधि-साधन का अधिकारी बन सकता है।


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