गीता और भावी वर्ण व्यवस्था

April 1957

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(श्री हरिमोहन)

जिस समय गीता की रचना हुई उस समय भारतीय समाज चार वर्णों में विभक्त था। वर्ण व्यवस्था के फलस्वरूप भिन्न-भिन्न जातियों के धर्म या काम जन्मसिद्ध माने जाते थे। समाज में ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के सिवाय और भी “पाप योनि” जातियाँ थी, कुत्ते खाने वाले श्वपाक (चाण्डाल) भी थे। गीता के अनुसार उस जमाने में जिस जाति के हिस्से में जो काम आया उसी को करना ठीक माना गया था। यही नहीं गीता में यहाँ तक कह दिया गया है कि अपना कर्म छोड़कर दूसरे का धर्म स्वीकार करना बड़े भय की बात है। उससे समाज व्यवस्था को हानि पहुँचने की आशंका है।

विचारणीय विषय यह है कि गीता के समय में समाज की व्यवस्था कैसी भी रही हो, पर क्या उसका आशय यह है कि देश और काल में चाहे जैसा परिवर्तन हो जाय, वह प्राचीन व्यवस्था सदा अटल रहेगी। स्वयं गीता ने ऐसी बात की गारण्टी नहीं दी है। गीता ने उपरोक्त व्यवस्था उस समय के लिए दी थी जबकि चारों वर्णों के व्यक्ति अपने धर्म का वास्तविक रूप में पालन करते थे। इतना ही नहीं उस समय जो वर्ण जितना ऊँचा और सम्मान का पात्र माना जाता था। उसका उत्तरदायित्व भी उतना ही अधिक था। ब्राह्मण अगर अधिक आदर के पात्र माने जाते थे तो इन्द्रिय सुख को भोगने का अधिकार भी उनको सबसे कम था। बाहर और भीतर की इंद्रियों को संयम में रखना उनका कर्तव्य माना गया था। गीता के समय के समाज का जितना वर्णन हमको मिलता है उसमें एक भी ब्राह्मण ऐसा नहीं मिलता जिसने दौलत इकट्ठी की हो या जो ऐश आराम की जिंदगी बिताता हो। क्षत्रिय जाति यद्यपि राजपद की अधिकारी थी पर उसको सदा अपनी जान हथेली पर लेकर रहना पड़ता था। उस समय हार जाने की बदनामी मरने से भी बुरी समझी जाती थी। इसलिए कोई क्षत्री रणभूमि में पीठ नहीं दिखा सकता था। यही कारण है कि गीता में ब्राह्मणों के लिए जहाँ दस कर्तव्य और क्षत्रियों के लिए सात कर्तव्य बतलाये हैं वहाँ वैश्यों के लिए तीन कर्तव्य और शूद्रों के लिए केवल एक ही कर्तव्य का बंधन बतलाया गया है। बंधन और सम्मान में कमी और बेशी इस प्रकार रखी जाती थी कि समाज व्यवस्था में किसी व्यक्ति का पलड़ा भारी नहीं होने पाता था। इसीलिए गीता के विभूति योग अध्याय में प्रत्येक जाति की मुख्य बातों को बतलाते हुए भगवान ने कहीं पर भी यह नहीं कहा कि ‘वर्णानाँ ब्राह्मणों ऽम्यहम’ अर्थात् “चारों वर्ण वालों में से मैं ब्राह्मण हूँ।”

आज उच्च जाति के कहलाने वाले लोग केवल सम्मान चाहते हैं, और उत्तरदायित्व अथवा बंधन से दूर हटते हैं। पर ऐसा किस प्रकार संभव हो सकता है? आज ब्राह्मणों ने अपनी विद्या का, क्षत्रियों ने अपने बल का और वैश्यों ने अपने धन का उपयोग समाज हित के लिए करना छोड़ दिया है। आज सबसे बड़ी आवश्यकता यही है कि वास्तविक रूप से छोटे लोगों को भी समान अधिकार दें। जब तक हम न्याय और समता के सिद्धाँत पर चलने नहीं लगेंगे तब तक उत्तम सामाजिक व्यवस्था की स्थापना हो सकना संभव नहीं।

जब हम वर्तमान समय की अस्वाभाविक असमानता से छुटकारा पाकर प्रकृति के अनुकूल समानता के स्तर पर आ जायेंगे, तब किसी भी व्यक्ति के लिए कर्म का निश्चय केवल इसी बात के आधार पर किया जायगा कि उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति किस ओर है। ऐसा निर्णय प्रथम तो प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए स्वयं ही कर सकता है, यदि उसे कठिनाई हो तो अनुभवी गुरुजनों से भी सम्मति मिल सकती है। समाज में समानता की भावना पैदा हो जाने के कारण लोगों के मन में यह धारणा तो रहेगी नहीं कि कौन सा काम श्रेष्ठ है और कौन सा काम घटिया है। इसी प्रकार सबको जीवन निर्वाह तथा सुख पाने की एक सी सुविधायें होने से यह भी विचार मन में न आयेगा कि इस काम में ज्यादा आमदनी होगी और इसमें कम होगी। इस समय केवल एक यही बात विचारणीय रहेगी कि हम कौन सा काम अच्छी तरह से और योग्यतापूर्वक कर सकेंगे। जब हम इस प्रकार अपनी रुचि और प्रकृति के अनुसार काम करने का मौका पायेंगे तो उसमें असफल या फिसड्डी रह जाने का डर भी नहीं रहेगा।

वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में संशोधन करके नई व्यवस्था का निर्माण करने से पहले प्रत्येक कार्य को प्रतिष्ठ और आर्थिक समता की स्थिति का लाना अनिवार्य है। यह कार्य कठिन अवश्य है, पर जैसा गीताकार ने कहा है ‘काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः’ के सिद्धाँत को ध्यान में रखकर हम इंद्रियों का संयम करके विषमता की भावना को नष्ट कर सकते हैं। जबकि हमारे पूर्वज हमको स्पष्ट शब्दों में “आत्मवद सर्व भूतेषु” और ‘आत्मौपम्ये सर्वत्र समं पश्यति’ का उपदेश दे गये हैं और स्वयं उस पर चलकर हमको मार्ग दिखला गये हैं, तो कोई कारण नहीं कि हम उसके अनुसार आचरण न कर सकें। अर्जुन के समान चंचल मन के कारण हमको भी इस साम्य योग पर चलने में आरम्भ में कठिनाई जान पड़ेगी, पर अभ्यास, वैराग्य और संयम से इसे सिद्ध करना ही होगा।


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