मनुष्य मात्र की समानता

April 1957

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(श्री विष्णु दत्त शर्मा)

धर्म का अर्थ है-धारण करने वाला। जो उपदेश या विचार समाज को आचार और नीति पर चलने का मार्ग बतलाता है और उसे पतित होने से रोकता है वही धर्म है। देवी-देवताओं की पूजा या विश्वास को ही हमारे प्राचीन दार्शनिकों ने धर्म नहीं कहा है। व्यास जी ने धर्म की जो व्याख्या की है वह अधिकाँश बुद्धिमूलक और तर्क सम्मत है। महाभारत के अंत में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि “धर्म ही अर्थ और काम की जड़ है, धर्म ही नित्य है, उसी का आश्रय लेना चाहिए।”

व्यास जी ने महाभारत में जगह-जगह इस बात पर विशेष बल दिया है कि मनुष्य किसी जाति या वर्ण में जन्म लेने से उच्च नीच नहीं बन जाता वरन् आचार और कर्म के आधार पर ही उसके संबंध में निर्णय करना चाहिए। ‘वन पर्व’ में नाग राज और युधिष्ठिर का संवाद इस दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। नाग ने पूछा-

‘हे राजन! ब्राह्मण कौन है?’ युधिष्ठिर ने उत्तर दिया-हे नागराज! सत्य, दान, क्षमा, शील, सहृदयता, तप, दया जिसमें दिखायी पड़े वही ब्राह्मण है। नाग ने फिर पूछा-’हे युधिष्ठिर! लोक में चातुर्वर्ण्य का प्रमाण माना जाता है। यदि किसी शूद्र में आपके कहे हुए गुण पाये जायें तो क्या उसे ब्राह्मण माना जायेगा?।’

युधिष्ठिर ने उत्तर दिया-”‘भाई, शूद्र में ऐसे लक्षण और सदाचार हों तो वह शूद्र नहीं रहा। ब्राह्मण वही है-जिसका चरित्र श्रेष्ठ है। जिनमें चरित्र का अभाव है वह तो शूद्र ही होते हैं।”

नाग इस विषय में और भी स्पष्ट और अपरिवर्तनीय उत्तर सुनना चाहता है। इसलिए उसने शंका की कि “यदि चरित्र से ही ब्राह्मण होता है तो फिर बिना कर्म या चरित्र के जाति विभाग व्यर्थ ही समझना चाहिए।”

प्रश्न बहुत गंभीर था और सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से उसका महत्व भी असाधारण था। तो भी युधिष्ठिर ने बिना किसी संकोच के कहा-”हे नाग, यहाँ जात-पाँत है ही कहाँ? ऐसी कोई जाति नहीं बतलाई जा सकती जिसमें वर्ण-शंकरता का दोष न हो। वर्णों की आपसी मिलावट को देखते हुए मेरी राय में तो किसी जाति की ठीक पहचान की बात उठाना ही व्यर्थ है। इसलिए तत्वदर्शी विद्वानों ने शील को ही मुख्य माना है। जन्म के बाद अपने-अपने वर्ण के अनुसार जाति-कर्म आदि संस्कार भी किये जायें, परंतु अगर किसी में चरित्र नहीं है तो मैं वर्ण शंकर की स्थिति में ही समझूँगा। इसी विचार से मैंने आरंभ में ही यह कहा था कि जिसमें उत्तम चरित्र है वही ब्राह्मण समझा जाना चाहिए।”

भारत के सर्व प्रधान शास्त्राकार व्यास के ये शब्द भारतीय संस्कृति के वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डालने वाले हैं। यह कहा जा सकता है कि निजी स्वार्थ का प्रश्न सामने आने पर ब्राह्मण समुदाय के एक बड़े भाग ने इनको कार्य रूप में परिणित नहीं किया पर सिद्धाँत रूप में किसी महापुरुष ने इनके खण्डन में मुँह नहीं खोला। भगवान शंकराचार्य जैसे आत्मतत्व की एकता के प्रचारक भी पहले अपने जन्म स्थान (मलावार प्राँत) के संस्कारों वश व्यवहार में छुआछूत का विचार रखते थे। पर जब वे काशीपुरी में आये और यहाँ किसी मेहतर-महत रानी को देखकर स्वभावतः ‘हटो-बचो’ करने लगे तो काशी के ज्ञानाधिदेवता शिव उसे सहन न कर सके और उन्होंने उसी चाण्डाल के मुख से उनको फटकार बतलाई।

“हे श्रेष्ठ ब्राह्मण अपने मिट्टी के शरीर से मेरे इस मिट्टी के शरीर को हटाना चाहते हो या अपने आत्मा को मेरे आत्मा से दूर करना चाहते हो? किस नीयत से हटो-बचो करते हो?”

“ज्ञात होता है, तुम्हारा शरीर गंगाजल है उसमें जो सूर्य की परछांई पड़ रही है। वह मुझ चाण्डाल की मड़ैया के जल में पड़ने वाली परछांई से अवश्य भिन्न है?”

“तुम्हारे पास सोने का घर है और मेरे पास मिट्टी की हाँडी ही है। मालूम होता है इनके खोखले भागों में दो भिन्न प्रकार के आकाश हैं।”

“घट-घट में बसने वाला जो आत्मरूप सहजानंद ज्ञान का समुद्र है, उसमें भी तुम्हारा ब्राह्मण चाण्डाल का भेद अभी तक नहीं मिटा।”

“मैं कौन हूँ, यह जानते हो? जागते सोते इस देह में से जिस निर्मल चैतन्य की किरणें फूटती रहती हैं, ब्रह्म से लेकर रेंगने वाली चींटी तक के शरीर में रमता हुआ जो इस जगत की साखी भरता है, वही मैं हूँ। “

“इस प्रकार की स्थिर बुद्धि यदि है तो गुरु बन चाण्डाल अथवा ब्राह्मण भेद की बुद्धि को छोड़ दे।”

इसी प्रकार और भी अनेक संत महात्माओं ने चरित्र की उच्चता को स्वीकार करते हुए मनुष्य मात्र की समानता का अनुमोदन किया है। भक्तिमार्ग वालों ने भी अजामिल, यवन, वेश्या आदि के उपाख्यानों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से जाति श्रेष्ठता पर कुठाराघात किया है। कृष्ण भक्ति के अनुयाइयों ने रसखान आदि जन्म के मुसलमानों को पूजनीय स्थान देकर इसी भाव की वृद्धि की है।

इधर लगभग एक शताब्दी से जगत में मानवता और राष्ट्रीयता का प्रभाव बढ़ रहा है और जो धर्म उनके प्रतिकूल जान पड़ते हैं उनकी तरफ से जनता में विरक्ति का भाव उत्पन्न हो रहा है। अनेक विचारकों ने धर्म और राष्ट्रीयता को सम्मिलित करके भारत के प्राचीन उद्गम सिद्धाँतों की घोषणा की और स्पष्ट शब्दों में बतलाया कि अछूतपन हिंदू धर्म और समाज के लिए कलंक स्वरूप है। यह भारतीय संस्कृति का अंग नहीं वरन् बाहर से आया हुआ दोष है। अस्पृश्यता विरोधी विद्वानों ने मानव मात्र की समानता का प्रतिपादन पूर्णतया वेदों और शास्त्रों द्वारा किया जिसके फल से शास्त्रों की दुहाई देकर जनता को बहकाने वाले लोगों का जोर बहुत कम पड़ गया। तो भी बहुत थोड़े लोगों को छोड़कर व्यवहारिक रूप से छुआछूत का त्याग जनता न कर सकी। इस कार्य की पूर्ति महात्मा गाँधी के आन्दोलन ने की। उन्होंने कहा कि अस्पृश्यता मनुष्य के लिए कलंक स्वरूप है और हिंदू समाज में कोढ़ की तरह लगी है। यह मानवता की दृष्टि से ही इतना बड़ा पाप है कि इसके खण्डन के लिए किसी शास्त्रीय प्रमाण की जरूरत नहीं। जो समाज का कोढ़ है उसे हटाये बिना समाज स्वस्थ नहीं हो सकता। अस्पृश्यों पर दया करके अस्पृश्यता के रोग को हटाने का प्रश्न नहीं है। अछूतपन को मानकर हिंदू समाज ने जो बहुत बड़ा पाप कमाया है उसका प्रायश्चित तभी होगा जब हिंदू स्वयं पूर्णतया इसे त्याग दें। गाँधी जी ने इस बात पर इतना अधिक जोर दिया और राष्ट्रीय आँदोलन की सफलता के लिए इसे एक ऐसी अमिट शर्त के रूप में पेश किया कि यह आँदोलन शीघ्र ही देशव्यापी हो गया और उसे बड़ा बल प्राप्त हो गया।

व्यास से लेकर महात्मा गाँधी तक सभी भारतीय विचारकों ने मानवीय समानता का समर्थन किया है और यही वास्तव में भारतीय संस्कृति का आदर्श है। बीच में अनेक सामाजिक कारणों से और विशेषतः विदेशी समुदायों के आगमन से जिनमें दास प्रथा का प्रचलन भी था, यहाँ इस कुप्रथा का बीजारोपण हो गया, पर जैसे ही इसके कुफल सम्मुख आने लगे हमारे सामाजिक कर्णधारों ने उसका खंडन कर दिया और समाज को उचित चेतावनी दे दी। संतोष का विषय है कि आज भारतीय समाज उस कलंक से मुक्ति प्राप्त करके पुनः अपने प्राचीन आदर्श पर अग्रसर होने लगा है।


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