ले गीत-फूल पूजा का थाल सजाया है, पर बिना ज्योति के अन्धियारा यह कौन हरे?
यह अगम तिमर का सिन्धु एक लौ, तृण-सम्बल, पर जीवन यह, आधार बिना कितना निर्बल?
है शक्ति पगों में, किन्तु प्रेरणा कौन भरे? अब बिना ज्योति के अन्धियारा यह कौन हरे?
ले संचित निर्माल्य, अर्चना करने जाती, पर अन्धकार में डूबी, पन्थ नहीं पाती।
इस कलुष-कालिमा से निवृत्ति अब कौन करे? अब बिना ज्योति के अन्धियारा यह कौन हरे?
यत्न-दीप माटी का, अनुभव-आँच पका कर, स्नेह-भावना भर, बाती यह प्राण बनाकर-
मैं व्यथा, ताप से जला रही, पर ज्योति परे। अब बिना दीप के अन्धियारा यह कौन हरे?
दो ज्योति-दान, मैं दीप लिए दिशि-दिशि जाऊँ, तम हर घर के कोने-कोने का धो आऊँ,
इस ज्योति-पर्व पर आज याचना मौन करे। पर बिना दीप के अन्धियारा यह कौन हरे?