पेट को कब्र मत बनाइए।

April 1957

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संसार में सभी जीव ईश्वर के बनाये हुए हैं। पर उनमें सर्वश्रेष्ठ मनुष्य योनि है, इसका मुख्य कारण मनुष्यों में ज्ञान है। हमारे धर्म ग्रंथों में लिखा है कि -”आहार निद्रा, भय, मैथुनादि सब जीवों और मनुष्यों में बराबर हैं, परंतु एक ज्ञान ही ऐसा है जो मनुष्यों में अधिक है। अतः ज्ञान शून्य मनुष्य भी पशु है। प्रत्येक जीव को सबसे प्रथम आहार की ही आवश्यकता पड़ती है। अतएव विचारणीय प्रश्न है कि इस संबंध में कैसा ज्ञान होना चाहिए। प्रकृति ने जिन जीवों के लिए जो वस्तु उपयोगी समझी वह उनके शरीर में सृष्टि करते समय ही बना दी।”

मनुष्य के नवजात शिशु के लिए दाँत बनाना अनुचित समझा तो उन्हें बे दाँत पैदा किया और जिनके लिए दाँत दिये जैसे शाकाहारी मनुष्यों के लिए छोटे-छोटे दाँत और माँसाहारी जीवों के लिए बड़े-बड़े दाँत। बिल्लियों की आँख में ऐसी शक्ति दी कि वह रात में अपने भोजन (चूहे) को देख सकें और उसके पाँव में ऐसी शक्ति दी जिसका आहट चूहे न सुन सकें। सिंहादिक प्राणियों की रीति भाँति तथा आकृति और स्वभाव मनुष्यों की रीति भाँति और आकृति से विलक्षण ही है। उनके दाँतों और नखों की रचना मनुष्य के नख और दाँतों से बहुत ही भिन्न है। सिंहादिकों के दाँत ऊँचे और बड़े तीक्ष्ण शस्त्र की तरह होते हैं और वह अपने दाँतों से हड्डी तथा कच्चे माँस को भी चबा डालते हैं। उनकी जठराग्नि ऐसी तीव्र होती है जो कि कच्चे माँस और हड्डी को भी भस्म कर डालती है। यह बातें मनुष्यों में नहीं पायी जातीं। बंदर की रीति भाँति और आकृति कुछ-कुछ मनुष्य से मिलती-जुलती है। वह कितने ही दिनों का भूखा क्यों न हो तब भी माँस कदापि न खायेगा। इसी प्रकार जिस जिले या प्राँत के लिए जो वस्तु लाभकारी समझी उसकी पैदावार वहाँ प्रकृति ने अधिक कर दी। जैसे पंजाब में गेहूँ, मारवाड़ में बाजरा, बिहार, बंगाल में चावल और तेल।

यदि प्रकृति मनुष्यों के लिए माँस अधिक उपयोगी समझती तो मनुष्यों के भी बड़े-बड़े दाँत माँस भक्षण योग्य बना देती। इसलिए मानना पड़ेगा कि सृष्टिकर्ता परमात्मा ने मनुष्यों को माँस भक्षण की आज्ञा नहीं दी है। वास्तव में भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन ही सर्वश्रेष्ठ हैं, जो ताकत चना, गेहूँ, मेवा, शाक, फल और दूध में है वह ताकत माँस और माँस के शोरवे में नहीं है। इसी से हमारे वैद्यक शास्त्र में लिखा है कि गर्भवती स्त्री दूध और घी का सेवन अधिक करे और खट्टी तीखी वस्तुओं को, माँस को छुवे भी नहीं।

बालक पैदा होने के बाद जब तक उसके दाँत न निकल आवें तब तक उसको अन्न कदापि न खिलावें। फिर दाँत निकल आने पर दिन में तीन-चार बार उसको थोड़ा-थोड़ा करके दूध का ही सेवन करावें। माँस का और उसके शोरवे का आहार निषिद्ध है। वैद्यक शास्त्र में जितने गुण, दूध, मक्खन और घृत और अन्न तथा फल और शाकादि के सेवन में लिखा है उतने गुण माँस के सेवन में नहीं लिखा है बल्कि माँस सेवन के बड़े दोष लिखे हैं। इंग्लैण्ड आदि में भी बहुत से लोगों ने माँस खाना छोड़ दिया है। इसी वास्ते उन देशों में बहुत से फलहारी होटल खुल गये हैं। धर्म ग्रंथों में लिखा है कि जो स्त्री पुरुष माँस आदि अभक्ष्य भोजन का सेवन करते हैं वह मर कर राक्षस या पिशाच अथवा भूत योनि में जन्म लेते हैं और उनकी संतान भी क्रूर स्वभाव तथा दुराचारी उत्पन्न होती है। इस वास्ते कभी भी माँस आदि अभक्ष्य भोजन का सेवन नहीं करना चाहिए।

जितने भी पहलवानी सीखने वाले हैं वह सब रात्रि में कच्चे चने को धोकर पानी में भिगो देते हैं। और सवेरे व्यायाम करने के पश्चात उन चनों को चबाकर ऊपर से उसका पानी पी लेते हैं। कच्चा चना और उसका पानी बल को बढ़ाता है। आज तक कोई भी पहलवान कसरत करके माँस खाते नहीं देखा गया है। इससे सिद्ध हुआ कि केवल एक अन्न चने के बराबर भी माँस में गुण नहीं है। जो लोग मछली आदि खाने वाले हैं उनके पसीने से मछली आदि की दुर्गन्ध आती है, शारीरिक बल भी उनमें कम होता है, क्योंकि उनका बदन ढीला रहता है। जिन देशों में मछली और भात ही खाया जाता है, गेहूँ चना इत्यादि नहीं उन देशों के मनुष्य फौज में भरती नहीं किये जाते। इन देशों के मनुष्य जिस प्रकार से शारीरिक उन्नति नहीं कर पाते उसी तरह यह लोग आत्मिक उन्नति भी नहीं कर सकते। क्योंकि इनकी बुद्धि माँस खाने से अति मंद तथा स्थूल हो जाती है।

संसार में सबसे अधिक चित्त को मलिन करने वाली दो वस्तुएं माँस तथा मद्य है। इसलिए उक्त दोनों के सेवन करने वालों का योग और वेदाँत में अधिकार का निषेध है। हम लोगों के आर्य ऋषिगण भी विशेष परीक्षा द्वारा निरामिष भोजन को ही सर्वश्रेष्ठ पाकर सभी धर्म ग्रंथों में विशेष रूप से इसकी व्यवस्था कर गये हैं। और वेद मंत्रों में भी माँस भक्षण का निषेध है-

न हिंस्यात्जर्वाभूतानि। पशून्याहि। (यजु. अ.1)

अर्थात् किसी भी जीव की हिंसा न करो। पशुओं की रक्षा करो।

द्रष्ट हिंसायाम-प्राणि हिंसायाँ सत्याँमद्भोजनं तद्दुष्टम्

(वैशेषिक सूत्र) अर्थात् प्राणियों की हिंसा के होने पर जो भोजन बनता है वह भोजन दुष्ट होता है।

ना कृत्वा प्राणि हिंसा माँस मुम्पद्यते कचित्। न च प्राणि वधः स्वर्ग्यस्तस्मान्माँस विवर्जयेत्॥

मनु. अ. 5॥ 48॥

अर्थात् प्राणियों के मारे बिना कहीं माँस उत्पन्न नहीं होता और प्राणियों का मारना स्वर्ग का कारण नहीं है किंतु नरक ही का कारण है। अतः माँस को छोड़ देवें।

मासिमास्यश्वमेधेनयो यजेतयुधिष्ठिर। न खाद यतियो माँस सम मेतन्मतंमम् ॥ न भक्षयतियो माँस न चहन्यान्न घातयेत । तन्मित्रं सर्वभूतानाँ मनुः स्वायं भुवोऽव्रवीत॥

(महाभारत)

अर्थात् प्रतिमास जो पुरुष अश्वमेध यज्ञ को करता है, हे युधिष्ठिर? और जो पुरुष किसी भी यज्ञ को न करे परंतु माँस को नहीं खावे तो दोनों फल बराबर हैं। जो माँस को नहीं खाता है, और न किसी भी जीव को मारता है न दूसरे को मारने देता है, स्वयं भू मनु कहते हैं, वह सम्पूर्ण भूतों का मित्र है।

मुसलमानी मत में भी जीवों को मारना वर्जित है। जैसा कि कहा गया है-

मैखुरों मसह.फ बसो जो आतश अंदर काबा जनू। साकने बुत खाना वाशी मर्दम आजारी मकुन । 1।

मवाश दूर पर आजार हर चखाई कुन । के दर तरीक तेमाँ जुज अजीं गुनाहे नेस्रा । 2।

इसका साराँश यह है कि -”जो पाप शराब पीने और काबा में आग लगाने आदि में है उससे कई गुना पाप जीवों को मारने में है। अतः किसी जीव को दुःख मत दो। जीवों को एक भी दुःख मत दो और जो चाहो सो करो क्योंकि हमारे तरीके में इससे बढ़कर कोई गुनाह (पाप) नहीं है।” तब भला बताइये कि माँस खाने के लिए जीव हत्या करने में कितना पाप है।

गुरुनानक जी ने भी माँस खाने का निषेध किया है-

जे रक्र लगे कपड़े जामा होय पलीत। ते रक्त खाये मानसा क्यों होवे निर्मल चीत ॥

अर्थात् यदि किसी पशु या पक्षी का जरा सा भी खून किसी वस्त्र में लग जाता है तब वह वस्त्र अपवित्र हो जाता है। उसी खून का ही माँस बनता है, उसी माँस को जो पुरुष खाते हैं उनका चित्त कैसे शुद्ध हो सकता है अर्थात् कदापि नहीं हो सकता।

हमारे धर्म ग्रंथों में तो यहाँ तक लिखा है कि जो गृहस्थाश्रमी प्रतिदिन अनजान में ओखली कूटने, चक्की पीसने, चूल्हे में आग जलाने, झाडू देने तथा जल इत्यादि से जो जीव हत्या करता है उस पाप प्रायश्चित के लिए प्रतिदिन पंच महायज्ञ करना चाहिए। जैसा कि-

कण्डनी मेषणी चुल्ली उदू कुम्मी च मार्जनी। पंच सुना गृहस्थ स्य ताम्यः र्स्वगंन विदन्ति ॥

अतः उपरोक्त पाँच प्रकार से अदृष्ट जीव हिंसा के लिए तो प्रायश्चित लिखा है, और जानकर जीव हिंसा करने वालों का तो सिवाय दूसरे जन्म में बदला देने के कोई प्रायश्चित नहीं है।


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