मैं त्रिशूल लेकर चलता हूँ, मेरे डमरू में विनाश है!
पर है चन्द्र भाल पर मेरे, वहाँ सुधा है, नव-प्रकाश है!
मेरा एक और लोचन है, जिस में सर्वनाश सोता है!
वह तो भी खुला करता है, जब मन अति विचलित होता है!
मैंने जग में बहा रखी है, अपने सर से सुरसरि धारा!
जिस में करके ॥न बहाया, करता पाप जगत् है सारा!
यश की होड़ लगी है, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदिक सब भागे।
मैं तो इस कैलाश शिखर पर बैठा, रहा सभी से आगे।
मैंने नहीं छिपाई भूलें, मैं रहता हूँ खुल कर नंगा।
गौरी की तो बात कहूँ क्या, कभी नहीं शरमाई गंगा।
साथ पिशाचों के रहता हूँ, जो लाशों का लोहू पीते।
मेरी प्रिया चंडिका बनती, जिस से कभी न दानव जीते।
जिस दिन सिंधु मथा देवों ने, पाकर गरल सभी घबराए।
किस में इतनी शक्ति, गरल को पीले और पचाने पाए?
जिसे न जीने की इच्छा है, उसे अमृत की चाह रहे क्यों?
जो आवे पी डाले हँसकर, अपने मुँह से ‘नहीं’ कहे क्यों?
जो थे लड़े अमृत की खातिर, वे थे देव, और थे दानव।
जो औरों का विष पी लेता, मैं हूँ महादेव- मैं मानव।
मैं चलता हूँ बैठ वृषभ पर, जिसके सर पर जुआ जगत् का।
जिसकी प्रिया दूध देती है, घटा रहा जो मान अमृत का।
मुझ को सब के शिशु प्यारे हैं, गया नंद के घर भिक्षुक बन।
मुझे ईश के दर्शन मिलते, मानव के सुत के कर दर्शन।
मुझे लोग ईश्वर भी कहते, पर मैं उसका एक पुजारी।
है बर्फीली गहन गुफा में, बैठ साधना मेरी जारी।
परशुराम हो, या कि राम हो, या रावण हो, सब मेरे हैं।
मैं तो उनका हूँ जो मुझ से, आकर कहते हम तेरे हैं।
मेरे बसुँधरा से उर में, दोनों ही हैं आग व पानी।
मेरी आँखों में दोनों हैं, पानी और तड़ित दीवानी।
मैं जग को वैभव देता हूँ, स्वयं दिगंबर रहने वाला।
मैं फूलों की नहीं पहनता, कभी-कभी मुँडों की माला।
(श्री हरिकृष्ण ‘प्रेमी’)
*समाप्त*