सौंदर्य बनाम कुरूपता

April 1957

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(प्रो. रामचरण एम.ए. महेन्द्र)

सत्य सेवन तथा सदाचार सम्पन्नता के मध्य में सौंदर्योपासना नामक कलात्मक ध्येय का भी स्थान है। सौंदर्योपासना करने का अधिकार बुद्धि और अन्तःकरण दोनों को समान रूप से प्राप्त है। युग की तथा देश की बढ़ती हुई माँग यह है कि सत्य सदाचार के साथ-साथ भारतीय युवक जीवन की अहिंसक पुनर्रचना में सौंदर्योपासना को भी स्थान दें।

सच्चा सौंदर्योपासक कौन है? वह भलाइयों तथा अहिंसा के सात्त्विक सौंदर्य का पारखी होता है। अपने दैनिक तथा व्यावहारिक जीवन में इस सौंदर्य को प्रत्यक्ष करता है। सच्ची सौंदर्य उपासना में सभी कुछ आ जाना चाहिए। शील, चरित्र सुरुचि। जो अश्लील है वह अहितकर है, अवाँछनीय है, अतएव कुरूप है। उसका बहिष्कार होना चाहिए। इसके विपरीत जो शीलयुक्त एवं संयत है, सदाचार तथा चरित्र को उज्ज्वल एवं प्रशस्त करने वाला है, वह श्लाघनीय है अतएव सुँदर है। वह व्यक्ति सुँदर है, जो सदा सर्वदा शुभ्र, हितैषी एवं उत्तमोत्तम विचारों में मग्न रहता है, सात्विक कार्य करता है, पवित्र वाणी का उच्चारण करता है। उत्तम स्थानों में रमण करता है, जिसकी मनोवृत्तियों का प्रवाह सदैव पवित्रता की ओर उन्मुख रहता है। रस्किन कहा करते थे कि मनुष्य के चरित्र की बुनियाद सौंदर्य पर कायम रहनी चाहिए। किंतु यह सौंदर्य बाह्य नहीं आँतरिक होना अनिवार्य है। सौंदर्य अच्छाइयों को स्वभावतः देखता है, शीलगुण का आदर करता है और सात्विक दैवी गुणों में जीवन तत्व का निर्माण करता है।

सौंदर्य का अर्थ शारीरिक बनाव, शृंगार, क्रीम, पाउडर, अश्लील गायन, गंदा नृत्य, व्याभिचार नहीं है। यह तो वासना का प्रदर्शन है। इसी प्रकार के निंद्य प्रदर्शन करना, सिनेमा के कुत्सित चित्रों का अनुकरण कर नाचते गाते फिरना, सौंदर्य का उपहास करना है। यह सौंदर्य के नाम पर दानवता का प्रचार है। सौंदर्य का यह बड़ा गंदा स्वाँग है। जिनके मन में वासना का भयंकर नृत्य है इच्छा की उद्दंडता है, व्यभिचारी प्रवृत्तियों का नरक है। वह बाहर से चिकना, चुपड़ा आकर्षण होते हुए भी असुँदर है। अनंत शृंगार से विभूषित गणिका असुँदर तथा बाह्य कुरूपता लिये हुए है। प्रेम-स्निग्ध पतिव्रता पत्नी सौंदर्यवती है। सौंदर्य उत्तम सात्विक भावना का विषय है।

एक वृत्तांत है कि महापुरुष ईसा अपने कुछ शिष्यों सहित वायु सेवनार्थ जा रहे थे। मार्ग में एक स्थान से घृणित बदबू आई। शिष्यों ने नाक में कपड़ा ठूँस लिया। कुछ दूर चलने के बाद रास्ते में एक मरा हुआ कुत्ता पड़ा दिखायी दिया। उस पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। लहू बह रहा था, पास से निकलते हुए बुरा लगता था। शिष्यगण, घृणासूचक शब्द उच्चारण करते हुए एक ओर को निकलने लगे किंतु महात्मा ईसा रुक गये। उन्होंने बड़ी ममता से मृत कुत्ते को हाथ से उठाया। उनके नेत्रों से दया तथा ममता के कारण प्रेमाश्रु बहने लगे। उन्होंने बड़ी ममता से कुत्ते को सड़क के एक किनारे पर लिटा दिया और बोले-कितने सुँदर हैं इसके दाँत।

हम बुरे स्थान में ही अपने काम की सात्विक वस्तु देखें। ईसा सच्चे अर्थों में सौंदर्योपासक थे। उनकी सूक्ष्म दृष्टि में सौंदर्य ही सदाचार का मूल था।

सूक्ष्म दृष्टि से विचारने पर हमें दो प्रकार का सौंदर्य उपलब्ध होता है। एक बाह्य सौंदर्य तथा दूसरा आँतरिक सौंदर्य। हम बाह्य सौंदर्य को बुरा नहीं कहते। हमें चाहिए कि हम दैनिक जीवन के अधिक से अधिक अंगों में सौंदर्य का उपयोग करें, अपने शरीर को स्वच्छ सुँदर रखे, आकर्षक बनायें। अपना गृह स्वच्छ तथा सुँदर रक्खें, अपनी निजी वस्तुओं-उद्यान, कुण्ड, देवालय, विद्यालय, पुस्तकों सभी को सुँदर रखें। अपनी कलात्मक अभिरुचि का परिचय दें। प्रत्येक स्त्री-पुरुष की यह स्वाभाविक रुचि होती है कि मैं खूब सुँदर लगूँ। राष्ट्रों तथा समाजों में भी यही बात है।

किंतु हमें स्मरण रखना चाहिए कि हमारी सौंदर्य भावना का अंत यही न हो जाय। यह बाह्य प्रदर्शन आँतरिक अनुभूति का प्रदर्शन होना चाहिए। बाह्य सौंदर्य के पश्चात सौंदर्य भावना की दूसरी उत्कृष्ट भूमिका आती है। यह है आँतरिक या आत्मिक सौंदर्य। आत्मिक सौंदर्य ही वास्तविक तथा स्थायी सौंदर्य है। महात्मा गाँधी जी का सहज सौंदर्य आत्मिक सौंदर्य ही है। सच्चे सौंदर्य पारखी को सौंदर्य की विभिन्न स्थितियों को पार कर यहीं आकर रुकना चाहिए।

रस्किन ने सौंदर्योपासना के इस तत्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है-”हम देखते हैं कि आजकल के युवक रसिकता की वृद्धि के लिए जितना प्रयत्न करते हैं, उतना शील संवर्धन के लिए नहीं करते।” आजकल के स्त्री-पुरुष चाहते हैं कि हम नाच सकें, गा सकें, अच्छे चित्रों पर अपनी राय दे सकें, कला पर कुछ बोल सकें इत्यादि। उनकी यह चाह योग्य है, किंतु यदि उनमें इतनी ही चाह है, तो मैं कहूँगा कि उनकी चाह अधूरी है। मैं चाहता हूँ कि इन कलाओं की आत्मा जो सदाचार सम्पन्नता है, उसकी ओर तरुण स्त्री-पुरुषों का ध्यान आकर्षित करूं। जब तक मनुष्यों को आँतरिक सौंदर्य की प्रतीति नहीं हो जाती, तब तक यह नहीं कहा जा सकता के उनका मन सच्चे अर्थों में सुसंस्कृत हो गया है।”

वास्तव में बिना सदाचार की नींव रक्खे आत्मिक सौंदर्य मिलना कठिन है और बिना इस आंतरिक सौंदर्य के सौंदर्योपासना करना अग्नि से खिलवाड़ करना है।


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