धर्म की मूल भूत एकता

April 1957

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(श्री स्वामी रामतीर्थ)

नवीनता, प्रतिष्ठ या लोकप्रियता प्राप्त करने की इच्छा प्रायः लोगों को सत्य के मार्ग से विमुख रखती है। इस प्रकार की इच्छा को छोड़कर कर और मस्तिष्क को साम्य अवस्था में रखकर अर्थात् न उदासी में निराश होकर और न आत्मप्रशंसा के बादलों में उड़ कर यदि हम भारतवर्ष की वर्तमान आवश्यकताओं के प्रश्न पर विचार करते हैं तो भारत की शोचनीय दशा से हमारी मुठभेड़ हो जाती है। इसमें अपने पड़ोसियों के प्रति प्रेम का शोचनीय अभाव है। धार्मिक सम्प्रदायों ने सच्चे मनुष्यत्व को और इस भाव को कि हम सब एक ही राष्ट्र के अंग है, ढ़क दिया है।

हिन्दुस्तान में मुसलमानों को हिन्दुओं के साथ एक ही जगह रहते हुए पीढ़ियों व्यतीत हो गई, परन्तु अपने पड़ोस में रहने वाले हिन्दुओं की अपेक्षा वह दक्षिण यूरोप के तुर्कों के साथ सहानुभूति दिखाते हैं। एक बालक जो हिन्दू माँ-बाप के रक्त माँस से बना है, ज्यों ही ईसाई हो जाता है त्यों ही वह एक गली के कुत्ते से भी ज्यादा अपरिचित बन जाता है। मथुरा का एक कट्टर द्वैतवादी वैष्णव दक्षिण के एक द्वैतवादी वैष्णव के लाभ के लिये अपने ही नगर के एक अद्वैतवादी वेदान्ती का मान भंग करने के लिये क्या नहीं करता? यह सारा दोष किसका है? मत-पन्थों के पक्षपात और खोखले ज्ञान का, जो सब जगह एक सा है। भारत में एक राष्ट्रीयता की कल्पना भी एक अर्थहीन कल्पना हो गयी है। इस का कारण क्या है? इसका स्पष्ट कारण मरे हुए मुर्दों की लकीरों से अंधे होकर फकीर हो जाना और ऊटपटाँग पक्षपातों की, जो धर्म के पवित्र नामों से पुकारे जाते हैं, घोर दासता है या यों कहो कि -”प्रमाण-पालन” चिकना चुपड़ा नाम देकर आध्यात्मिक आत्मघात करना है।

केवल उदार शिक्षा, यथार्थ ज्ञान, सप्रयोग परीक्षण अथवा दार्शनिक विचार-पद्धति के अभ्यास से ही यह असत्य कल्पना दूर हो सकती है, और कोई मार्ग नहीं। आधुनिक शास्त्र शोधन से निकले हुए उत्तम और मनुष्य कर्तव्य सिखाने वाले तत्व जिस पंथ या धर्म में न हों, उन्हें कदापि यह अधिकार नहीं है कि वह अपने भोले भक्तों को अपना शिकार बनावें।

प्राचीन काल के बहुत से धार्मिक तत्व और प्रथायें, केवल उस समय के जाने हुए शास्त्रों के सिद्धान्त और नियम थे। ये तत्व पहले बड़े विरोध के साथ माने गये थे और फिर इस अन्धविश्वास के साथ माने गये थे कि उनकी जन्म देने वाली माता स्वतंत्र विचारकर्ता और निदिध्यासन का गला घोंट दिया गया। धीरे-धीरे यह अंधविश्वास इतना बढ़ गया कि एक बालक “मैं मनुष्य हूँ” यह समझने के पहले ही अपने को हिन्दू, मुसलमान अथवा ईसाई कहने लगे और अज्ञानता के कारण व्यक्ति विशेष तथा ग्रन्थों के प्रमाण के आधार पर धार्मिक और जब स्वयं अभ्यास, मौलिक अन्वेषण, सत्यानुशीलन और ध्यान इत्यादि, जिन से धर्म-संस्थापकों ने आध्यात्मिक और आधि भौतिक प्रकृति तथा उसके नियमों का दक्षता के साथ अध्ययन किया था, लोप होने लगे तब सृष्टि के नियमानुसार धर्म की अवनति आरम्भ हो गयी। शनैःशनैः ईसामसीह के गिरि प्रवचन अथवा वैदिक यज्ञों के असली उद्देश्यों को तिलाञ्जलि दी जाने लगी और उन मत-मतान्तरों के चलाने वालों के नामों की पूजा बड़ी श्रद्धा से होने लगी। केवल इतना ही नहीं हुआ वरन् देह की पूजा के लिये देही का हनन कर दिया गया।

ईसा, मुहम्मद, व्यास, शंकर इत्यादि सत्य निष्ठ और निष्कपट महात्मा थे। उन्होंने प्रकृति रूपी मूल ग्रन्थ अनन्तत्व का अध्ययन कर आँशिक ज्ञान प्राप्त किया और उसके अनुसार धर्म ग्रन्थ लिखे, किन्तु उनके अनुयायी उन्हें पैगम्बर और अवतार का नाम देकर वाणी को ‘आदि सत्य’ ‘युगादि सत्य’ सत्य हो भी सत्य’ मान कर उसकी व्याख्या करते हैं, जो निश्चय ही प्रकृति के मूल ग्रंथ के विरुद्ध (असत्य और अपूर्ण) है और ऐसा करके वे अज्ञानवश अपने गुरु और उनके ग्रन्थों का अपमान करने कराने का कारण होते हैं।

इसका अभिप्राय यह नहीं है कि लोक संग्रह के लिये इन धार्मिक रीतियों का कभी उपयोग ही न था। किसी समय उनका उपयोग आवश्यक था। इन रीति-रिवाजों की आवश्यकता ठीक वैसी ही थी जैसे किसी बीज के जीवन और बाढ़ के लिये यह आवश्यक है कि वह बीज छिलके से कुछ काल तक ढ़का रहे। परन्तु नियमित समय के पश्चात् यानी उस बीज के उग जाने पर अगर वह छिलका नहीं गिरे तो वह बढ़ते हुए दाने के लिये एक कारागार बन जायगा और उसकी बाढ़-विकास को रोकेगा। हमें छिलकों की अपेक्षा दाने पर विशेष ध्यान रहना चाहिए क्योंकि छिलके को, जो दाने की बाढ़ को रोकता है अलग कर देने के लिये अर्थात्- जीर्ण, अनुपयोगी रीति-रिवाजों के पालन करने के विचारों से छुटकारा पाकर प्रकृति के मूल ग्रन्थों को पढ़ने के लिये यह अनुभव करना आवश्यक है कि पैगम्बरों की शक्ति अलौकिक नई है, वह हमारा (प्रत्येक मनुष्य का )जन्म सिद्ध अधिकार है।

कुछ लोग ऐसे हैं, जिनकी समझ में किसी मकान का ढांचा या नक्शा उस समय तक नहीं आता जब तक कि मकान बनकर उनके सामने तैयार न हो जाय। इसी प्रकार के कुछ लोग ऐसे हैं, जिनके ध्यान में वर्तमान काल या भूतकाल से एक परमाणु भी आगे बढ़ने का विचार नहीं आता, पर अब भारतवर्ष में ऐसे लोगों की संख्या बहुत न्यून होती जाती है। वर्धनशील वेदा (श्रद्धा और विश्वास)अशान्ति और चंचलता करके उन्हें उनका स्वाभाविक ऐश्वर्य, एकता विश्वप्रेम का अनुभव कराये तथा अस्वाभाविक मेल कराये। ऐसे वेदान्त की किस देश में आवश्यकता नहीं है? भारत वासियों को तो इस की विशेष आवश्यकता है।


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