गायत्री महामंत्र की मूलभूत प्रेरणा

April 1957

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सामूहिकता का उपासना क्षेत्र में भी प्रवेश कीजिए।

(पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)

गायत्री मंत्र के ‘नः’ शब्द में इस बात का संकेत है कि माता को ‘एकाकीपन’ नहीं सामूहिकता पसंद है। कई व्यक्ति सबसे अलग रहकर अकेले-अकेले धुन-मुन करते रहते हैं। यह प्रवृत्ति चिंतन के लिए थोड़े से क्षणों में तो उपयुक्त हो सकती है पर जीवन के सर्वांगीण विकास में यह अकेलेपन की भावना बड़ी घातक है। यह स्वार्थपरता का ही एक रूप है। पिछले 2-3 हजार वर्षों में यह प्रवृत्ति पनपी और फूट एवं स्वार्थपरता ने बढ़कर राष्ट्र का सत्यानाश कर दिया। ऋषि महर्षियों की घर-घर जाकर धर्म का अलख जगाने परम पुनीत परम्परा का लोप होकर साधु ब्राह्मणों में अकेले अपना भजन करने, दुनिया को स्वप्न व मिथ्या बताकर स्वयं को गुलछर्रे उड़ाने और लोक सेवा के कार्यों से दूर भागने की दुष्ट मनोवृत्ति पनपी फलस्वरूप देश का नैतिक स्तर गिर गया। जनता की धर्म भावनाएँ नष्ट हो गई। क्षत्रिय, आल्हा ऊदल की तरह अपना मान और क्षेत्र बढ़ाने के लिए आपस में लड़ने कटने लगे, फलस्वरूप राजनीतिक विदेशियों की गुलामी गले पड़ी। वैश्यों की कम तौलने, कम नापने, मिलावट करने, खराब घटिया वस्तुएँ देने, ज्यादा मूल्य लेने आदि की कुप्रवृत्ति ने देशी व्यापारियों की ईमानदारी पर से जनता का विश्वास उठा दिया। फलस्वरूप विदेशी व्यापारी मालामाल हो गये। स्वार्थपरता अकेले लाभ उठाने की मनोवृत्ति एक ऐसी नीचता है कि जहाँ भी वह रहेगी वहाँ सत्यानाश उत्पन्न करेगी।

हमेशा बढ़ते वे लोग हैं, जो दूसरों को साथ लेकर चलते है। संगठित रहते हैं, एक-दूसरे को बढ़ाते हैं और मिलजुल कर खाते हैं। सर टामस राने शाहजहाँ की लड़की का इलाज करके बादशाह से मुँह माँगा इनाम यह प्राप्त किया कि मेरे देशवासियों के भाल पर से महसूल उठा लिया जाय। अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को तिलाँजलि देकर अपने समाज को प्रमुखता देने वाले लोग जिस देश में होते हैं वह सर टामस रो के देश इंग्लैंड की भाँति तरक्की कर रहे हैं और जहाँ 56 लाख स्वार्थ परायण साधु संतों के आपस में लड़-कटकर बर्बाद होने वाले आल्हा ऊदल की, रेवड़ी के लिए मस्जिद ढा देने वाले जयचंद मीर जाफरों की, थोड़े से निजी स्वार्थ के लिए उस उद्योग पर से सारी जनता का विश्वास उठा देने वाला वैश्यों की भरमार होती है। वह देश भारतवर्ष की तरह अविद्या, गरीबी, गुलामी, बेबसी, बेकार के नाना विधि त्रास सहता है। इतिहास साक्षी है कि कभी कोई कौम उठी है तो सामूहिकता की प्रवृत्ति को अपना कर बढ़ी है, जिसने अकेलेपन को अपनाया वह चाहे व्यक्ति हो, चाहे राष्ट्र, अवश्य ही बर्बाद होगा।

गायत्री महामंत्र में अनेकों महत्वपूर्ण तत्व भरे हुए हैं। उनमें एक अत्यधिक उच्च कोटि की प्रेरणा सामूहिकता की है। नः शब्द के द्वारा माता बार-बार अपने सच्चे पुत्र को-सच्चे उपासक को एकाकी स्वार्थपरायण न बनाकर सामूहिकतावादी लोकसेवी बनने की प्रेरणा करती है। जो माता की वाणी को सुनते हैं, उस पर ध्यान देते हैं और उसे मानते हैं वे ही सच्ची मातृभक्ति का परिचय देते हैं और वे माता का सच्चा अनुग्रह पाते हैं। घूसखोर दरोगा की तरह कुछ जप अनुष्ठान की रिश्वत जेब में डाल लेने और बदले में अनुचित लाभ दे देने का स्वभाव माता का नहीं है। जो लोग माता के अन्तःकरण को नहीं पहचानते उसकी बात को नहीं सुनते, मानते। अपनी ही स्वार्थपरता की तराजू से माता को भी अपने लिए अनुष्ठान समेटने वाली स्वार्थपरायण सेठानी जैसा मानते हैं वह सच्चे अर्थों में अज्ञानी हैं। उन्हें कितने अंशों में माता का अनुग्रह वात्सल्य मिल सकेगा यह कह सकना कठिन है।

विगत तीस वर्षों से हमने एकनिष्ठ भाव से माता की उपासना की है और अपने ही श्रेणी के अन्य अनन्य उपासना करने वालों की साधना की प्रगति एवं गतिविधियों पर निरंतर बारीकी से ध्यान रखा है। इस लम्बे समय के गंभीर अनुभव का एक मात्र निष्कर्ष एक ही है कि माता किसी साधक की व्यक्तिगत पूजा उपासना से जितनी प्रसन्न होती है उससे अनेकों गुनी प्रसन्नता उसे साधक की परमार्थ परायणता से होती है। इसी के लिए वह अपने सच्चे कृपा पात्रों को प्रेरणा भी करती है और प्रत्यक्ष आदेश देती है। नारद शंकराचार्य, दयानंद, विवेकानंद आदि को एकाँत साधना में से कान पकड़ कर उठाने और लोक सेवा में जुड़ा देने का कार्य उसी महाशक्ति ने किया। जिस पर भी वह प्रसन्न होती है उसे निश्चित रूप से यही प्रेरणा देती है। क्योंकि आत्मशक्ति, पुण्य संचय, विश्वहित, सुख शाँति, स्वर्ग मुक्ति, समृद्धि सम्पत्ति, शक्ति सफलता, कीर्ति प्रतिष्ठ के सभी लाभ परमार्थ परायणता में सन्निहित हैं। स्वार्थी के लिए लाभ बहुत स्वल्प है, जितना श्रम किया उसकी मजदूरी मात्र का वह अधिकारी है। अनेकों का हित साधन करने से तो अपने आप ही वह साधना अनेक गुनी फल दायक हो जाती है। माता अपने सच्चे साधक को यही सच्चा मार्ग दिखाती है।

हमें स्वयं भी यही मार्ग बताया गया है। 24 महाअनुष्ठान पूरा करने के साथ-साथ यही प्रेरणा मिली कि जितना समय भजन में लगे उससे अधिक समय परमार्थ में, लोक सेवा में लगे। जो अपनी साधना इन दिनों होती है उसे अपने निज के लिए संग्रह न करके उसका पुण्य फल प्रायः नित्य ही गायत्री परिवार के आवश्यक ग्रस्त लोगों को बाँट देते हैं, जिससे वे अपनी कठिनाइयों को पार कर सकें। अपने को बिल्कुल खाली हाथ-पुण्य फल से भी खाली रहने और निरंतर धर्म भावनाओं का प्रसार करने में संलग्न रहने का आदेश हुआ है। बिना राई रत्ती विचार संकोच किये हमारी गतिविधि उसी प्रकार चल रही है जिस प्रकार नन्हा सा बालक उधर ही चल देता है जिधर उसकी माता उसे उँगली पकड़कर चलाती है। हम देखते हैं कि हमारी ही जैसी दो प्रेरणाएँ अन्य अनेकों उन लोगों की आत्माओं में भी हो रही हैं जो सचमुच माता के अधिक समीप पहुँच चुके हैं। उन अभागे दुराग्रहियों को माता की कृपा से बहुत दूर ही मानना चाहिए जो अपनी माला जपने में तो लगे रहते हैं पर दूसरों को धर्म प्रेरणा देने से जी चुराते हैं। मानना होगा कि माता ने उनकी अन्तरात्मा का अभी स्पर्श नहीं किया। अन्यथा उन्हें एकाकी न रहने देती। जिनके अन्तःकरण में माता का प्रकाश आ रहा हो उनके लिए यह संभव नहीं कि वे परमार्थ परायणता में अपने को रोक सकें। उन्हें जनता जनार्दन के सेवा के लिए कदम बढ़ाना ही होता है। उन्हें पंगु धर्म को सहारा देने, आगे बढ़ाने के लिए धर्म सेवा के लिए अपना कंधा देना ही होता है। वह केवल जप से संतुष्ट नहीं रह सकता उसे धर्म सेवा के लिए कुछ लोक संग्रह सामूहिक कार्यक्रम अपनाना ही पड़ेगा। हम देखते हैं कि माता के सच्चे अनेकों कृपापात्र अपने अंतःकरण की प्रबल प्रेरणा से इस मार्ग पर तेजी से बढ़ते चले जा रहे हैं।

यों धर्म सेवा के अनेक मार्ग हैं। अनेक कार्यक्रम हैं, समय-समय पर उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता भी रही है, और रहती है। परिस्थितियों के अनुसार अनेक कार्यक्रम सामने आते हैं। परिस्थिति बदलने पर दूसरे बदल जाते हैं। इतिहास बदलता रहा है, भूतकाल में अनेकों अवसरों पर ऋषियों में अनेक प्रकार एक-दूसरे सर्वथा भिन्न प्रकार के धर्मानुष्ठानों की व्यवस्था की है। इसमें किसी धर्मानुष्ठान की निंदा, प्रशंसा या लघुता महानता नहीं है। सभी उत्तम है पर जिस अवसर के लिए जो बात उपयुक्त होती है उस समय वही विधान प्रचलित किया जाता है। चतुर वैद्य रोगी की स्थिति, देशकाल पात्र को ध्यान में रखकर ही दवा देता है। यद्यपि उसके दवाखाने में एक से एक बहुमूल्य औषधियाँ भरी होती हैं। प्राचीन काल में उस समय के अनुसार अनेकों प्रकार के यज्ञ, जप, कीर्तन, पूजन, भजन, कथा वार्ता आवश्यक समझे गये और अपने-अपने समय के संदेशवाहक उसका प्रसार करने के लिए जनता का मार्ग दर्शन करने के लिए एक समान उपयुक्त न रहे। यदि सदा एक ही आवश्यकता -एक ही व्यवस्था ठीक होती तो सब ऋषि, संत, अवतार, देवदूत तथा धर्म प्रचारक एक ही बात कहते। पर ऐसा नहीं होता-वे समय की आवश्यकता एवं उपयुक्तता के अनुकूल बात बताने आते हैं। इसलिए मोटी दृष्टि से देखने में इन ऋषियों की बातों में, पद्धतियों में, प्रेरणाओं में योजनाओं में अंतर दिखायी देता है। पर वस्तुतः उनके मूल लक्ष्य में पूर्ण एकता होती है। अंतर केवल देशकाल, पात्र के अनुसार बदली हुई परिस्थितियों में बदले हुए कार्यक्रम को अपनाने मात्र का होता है। विवेकशील लोग इस तथ्य को समझते हैं, तदानुसार वह किसी अमुक काल में अमुक संत द्वारा बताई हुई पद्धति पर सदा अड़े रहने का दुराग्रह नहीं करते वरन् समय की आवश्यकता को उसी प्रकार तुरंत स्वीकार कर लेते हैं जिस प्रकार बुद्धिमान विद्यार्थी क्लास बदलने पर नई पुस्तक स्वीकार करने में मास्टर से-या समझदार रोगी बीमारी बदलने पर दवा बदलने में डॉक्टर से तकरार नहीं करते।

आज की सर्वोपरि आवश्यकता यह है कि -असद् बुद्धि ने-दुर्विचार, कुसंस्कार, ईर्ष्या, द्वेष, कलह, चिंता, भय, आवेश, उद्वेग, छल, दंभ, कपट, असंयम एवं स्वार्थपरता ने सूक्ष्म आकाश को तमसाच्छन्न करके समस्त विश्व के ऊपर अनेक प्रकार की आपत्तियाँ उपस्थिति कर दी हैं, उन्हें हटाया जाय। परस्पर असद्व्यवहारों से उत्पन्न अनेकों भयंकर दुष्परिणामों के कारण सभी दुखी हैं। महामारी, अस्वस्थता एवं नाना प्रकार के रोगों की तूफानी अभिवृद्धि, प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाने से अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, तूफान आदि उपद्रवों के कारण प्रजा के धन जन की भारी हानि हो रही है। यदि आकाश में मंडराती हुई असुरता की ये घटाएँ आज सामने उपस्थिति हैं उनमें भी असंख्य गुनी वृद्धि हो सकती है और मानव जाति ही नहीं मानवेत्तर अन्य जीव जंतुओं का भी जीवन खतरे में पड़ सकता है।

इन परिस्थितियों को सुधारने के लिए जहाँ अन्य भौतिक प्रयत्नों की आवश्यकता है वहाँ कुछ आध्यात्मिक उपचार भी करने जरूरी हैं। सभी लोग राजनैतिक व आर्थिक दृष्टिकोण से समस्याओं को सुलझाने में लगे हुए हैं पर जब तक आध्यात्मिक उपचारों का भी उनमें समावेश न होगा तब तक इन साँसारिक प्रयत्नों पर किया हुआ अधिक से अधिक प्रयत्न भी आशाजनक परिणाम उपस्थित न कर सकेगा। अंतरिक्ष में जो दूषित आसुरी तत्व अत्यधिक मात्रा में भरे गये हैं वे दुर्बल मस्तिष्कों पर कब्जा करके उन्हें कुकर्म करने को प्रेरित करते हैं इस प्रकार दिन-दिन मनुष्यों में दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ती जाती हैं और उनके फलस्वरूप विपत्तियाँ भी सुरसा की तरह मुँह फाड़ती जाती हैं। सूक्ष्म आकाश को शुद्ध करने, मनुष्यों में सत्प्रवृत्तियाँ पैदा करने के लिए-विश्व के ऊपर छाई हुई भयंकर घटाओं को शाँत करने के लिए अध्यात्मिक प्रयत्नों में व्यापक गायत्री उपासना की भारी आवश्यकता है। जिस प्रकार अनेकों दुष्टों ने अपनी दुष्प्रवृत्तियों से वातावरण को दूषित किया है उसी प्रकार अनेकों सज्जनों की सत्प्रवृत्तियाँ मिलकर उनका समाधान भी कर सकती हैं। सेना का मुकाबला सेना से किया जाता है। संसार के लिए विपत्तियाँ उत्पन्न करने वाली दुष्प्रवृत्तियों का निवारण भी धर्मात्माओं की धर्मसेना के शक्तिशाली धर्मोपचारों द्वारा ही होगा। ऐसे उपचारों में गायत्री की शक्ति सर्वश्रेष्ठ है। वर्तमान काल में विपन्न परिस्थितियों में व्यक्तिगत सुख शाँति बढ़ाने के लिए एवं संसार की व्यापक वातावरण को शुद्ध करने के लिए सर्वोत्तम उपचार गायत्री के माध्यम से ही हो सकता है। इस समय के रोग को ठीक अचूक एवं रामबाण चिकित्सा-गायत्री के सामूहिक यज्ञानुष्ठान द्वारा ही सुनिश्चित है।

गायत्री तपोभूमि द्वारा गायत्री परिवार का संग बड़ा ही महत्वपूर्ण कदम उठाया गया है। संस्था अपनी सामर्थ्य भर लोगों को प्रेरणा देकर गायत्री उपासना के सामूहिक कार्यक्रमों के स्थान-स्थान पर विविध आयोजन करा रही है। पर इतने से ही काम चलने वाला नहीं है। अब प्रत्येक गायत्री उपासक को स्वयं एक सजीव गायत्री मन्दिर बनना होगा। गायत्री माता की महिमा बढ़ाने के लिए पिछले -अज्ञानान्धकार युग में तमसाच्छन्न की गई इस महाशक्ति को पुनः प्रकाशवान बनाने के लिए हम सब को मिल जुल कर साधारण नहीं,-असाधारण प्रयत्न करना होगा। एकाकी गायत्री उपासना तक सीमित न रह कर इसे धर्मानुष्ठानों का रूप देना होगा ताकि माता को भूले हुए अगणित मनुष्य अपनी जननी को पहचान सकें। उसकी गोद में चढ़कर, आँचल पकड़कर, सच्चा वात्सल्य सुख पा सकें। माता से उसके खोये हुए पुत्रों का मिलाप कराने के लिए किया हुआ सत्प्रयत्न कितनी उच्चकोटि का है यह शब्दों में कहना और अक्षरों में लिखना संभव नहीं। जिन्होंने इस कार्यप्रणाली को अपनाया है वे ही जान सकते हैं कि केवल जप करते रहने की अपेक्षा यह सामूहिक गायत्री आयोजन कितने अधिक आनंद व संतोष प्रदान करने वाले हैं। निस्संदेह सामूहिकता की प्रवृत्ति मानव प्राणी की सर्वोत्कृष्ट विशेषता है। गायत्री उपासना जैसे परम पुनीत कार्यक्रम में इस प्रवृत्ति का जुड़ जाना तो ‘सोना व सुगंध’ का उदाहरण बन जाता है।

गायत्री परिवार के सभी लोग यथासंभव निज की उपासना करते हैं। कितने ही निष्ठावान व्यक्ति नियत संख्या में अपनी मालाएँ पूरी करते हैं, गायत्री चालीसा पाठ, मंत्र लेखन आदि अनुष्ठानों में कितने ही नर नारी लगे हुए हैं, कइयों ने बड़ी कठोर तपश्चर्याओं के साथ साधना का व्रत लिया है। यह सभी निष्ठावान उपासक भूरि-भूरि प्रशंसा के योग्य हैं। आत्म बल की वृद्धि, आँतरिक पवित्रता की स्थापना, प्रभु शरणागति, बड़े ही महत्वपूर्ण तत्व हैं। इन्हें उपासना के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। पर ये आवश्यक हैं। अन्यथा यह सब भी कंजूस सेठ के धन संग्रह करते रहने की तरह एक आध्यात्मिक स्वार्थ परता ही रह जायेगी। प्रसन्नता की बात है कि अखण्ड-ज्योति के पाठक और गायत्री परिवार के सदस्य इस तथ्य को अधिक दृढ़तापूर्वक समझते जा रहे हैं और धर्म प्रचार को भी तपस्या का, साधना का, एक आवश्यक अंग मानते हैं और उसके लिए भी निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं।

गायत्री मंत्र में एक महत्वपूर्ण संदेश सामूहिक धार्मिक आयोजन का है। यज्ञानुष्ठान इसके लिए सर्वश्रेष्ठ कार्यक्रम है। जो धर्म फेरी लगाने को तैयार है। दूसरों के पास जाने में, शुभ कार्य के लिए दूसरों को समझाने में जिन्हें अपनी हेठी, संकोच तथा बेइज्जती नहीं मालूम पड़ती। ऐसे मिलनसार स्वभाव के व्यक्ति बड़ी आसानी से चाहे जहाँ इस प्रकार के छोटे-बड़े आयोजन सम्पन्न कर सकते हैं। यज्ञ भारतीय धर्म का आदि तथ्य है। विगत दो हजार वर्षों में नाना प्रकार के मत मतान्तर एवं संप्रदाय बरसाती घासपात की तरह उपज पड़े और उनने ऋषिधर्म, वेद धर्म के प्रति अनास्था, उपेक्षा उत्पन्न करके अपने चलाये सम्प्रदाय को ही सब कुछ बताया। बेचारी जनता शास्त्रीय तत्वज्ञान से रहित थी, चाहे जिसके बहकावे में आकर हवा द्वारा उड़ाये हुए, पत्तों की तरह बहक गई, गायत्री माता की तरह यज्ञ पिता की भी दुर्गति हुई। पहले तो यज्ञों का प्रचलन ही बंद था। अब थोड़ा आरंभ भी हुआ है तो लोग उन असामयिक यज्ञों को करा रहे हैं जो भूतकाल की किन्हीं परिस्थितियों में उपयोगी रहे होंगे पर आज उनसे परिस्थिति का मेल नहीं खाता। चंडी यज्ञ युद्ध की तैयारी के समय लोगों में जोश उभारने के लिए किये जाते थे, विष्णु यज्ञ भक्ति बढ़ाने के लिए, रुद्र यज्ञ वैराग्य बढ़ाने के लिए होते थे। आज की कुमार्गगामी दुर्बुद्धि ग्रस्त मानव जाति को सन्मार्ग पर चलने, सद्बुद्धि को अपनाने के लिए गायत्री यज्ञों को ही प्रधानतया आवश्यकता है।

सामूहिक गायत्री यज्ञ कैसे हो?

श्रेष्ठ परमार्थ है। सवा लक्ष या चौबीस लक्ष जप का एक महाअनुष्ठान संकल्प करके उसके भागीदार बनाने के लिए सभी धार्मिक अभिरुचि के नर नारियों के पास जाना चाहिए और पूर्णाहुति का जो समय निर्धारित किया हो उतने दिन के लिए नित्य कुछ जप करने के लिए उन्हें तैयार करना चाहिए। जिस प्रकार घर-घर जाकर चंदा इकट्ठा किया जाता है जिस प्रकार वोट माँगे जाते हैं, उसी प्रकार थोड़े दिन तक कुछ समय गायत्री जप के लिए लगाने को लोगों से कहा जाय तो कुछ न कुछ संख्या में ऐसे सज्जन निकल आते हैं, जिनकी सहायता से उतना जप सुगमता से पूरा हो सकता है।

प्रारंभिक प्रयोग के रूप में 9 दिन में सवा लक्ष सामूहिक यज्ञानुष्ठान का आयोजन किया जा सकता है। प्रतिदिन 140 मालाएं इसमें करनी पड़ती हैं। एक घंटा प्रतिदिन समय देकर 10 माला प्रतिदिन गायत्री जप करने वाले 14 श्रद्धावान नर-नारी तलाश करने चाहिए। संभावित 30 व्यक्तियों की सूची जेब में रखकर किसी अपने जैसे एकाध साथी को संग लेकर निकला जाय। लोगों को यज्ञानुष्ठान का महत्व समझाकर 9 दिन तक एक घंटा रोज गायत्री जप करके भागीदार बनने के लिए कहा जाय, तो 30 में 15-16 अवश्य तैयार हो सकते हैं। इनके नाम कागज में नोट कर लीजिए। दूसरे-तीसरे दिन जा-जाकर तलाश करते रहिए कि वे लोग प्रतिज्ञा पालन कर रहे हैं या नहीं। इनमें से एक दो ऐसे भी निकल सकते हैं जो वचन देकर भी उसे पूरा न करें उसका मार्जन रखने के लिए एक दो व्यक्ति पहले से ही अधिक रखने चाहिए। इस प्रकार सवा लक्ष जप 9 दिन में आसानी से पूरा हो जाता है। यों दो-चार व्यक्ति भी लगकर बैठें तो इतनी संख्या पूरी कर सकते हैं पर इससे अधिक लोगों को सामूहिक सत्कर्म में लगाने का उद्देश्य पूरा न होगा। इसलिए भागीदारों की संख्या अधिक से अधिक बनानी चाहिए। भले ही वे कम समय दें। जहाँ जप करने वाले थोड़े हों वहाँ 9 दिन की अपेक्षा 15 या 21 दिन में सवालक्ष भागीदारों की संख्या से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। वरन् अधिकों की ही तलाश करते रहना चाहिए। निर्धारित संख्या से अधिक जप हो जाय तो इसमें बुराई कुछ नहीं अच्छाई ही है। प्रायः लड़कियाँ और महिलाएँ अधिक सहयोग देती हैं उन्हें पूरा प्रोत्साहन देना चाहिए। 12 वर्ष से अधिक आयु के बच्चे जो शुद्ध गायत्री मंत्र उच्चारण कर सकें, भाग ले सकते हैं। यज्ञोपवीत धारण किये हों तो उत्तम हैं अन्यथा बिना यज्ञोपवीत वाला जप न करे ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। यों गायत्री माता सभी की है, मनुष्य मात्र ईश्वर के पुत्र हैं। जाति-पाति में ऊँच नीच का विषवृक्ष केवल पिछले तमसाच्छन्न काल में ही पनपा है। वह आज नहीं तो कल-समूल नष्ट तो होना ही है पर जब तक वहाँ की परिस्थिति के अनुसार उन जातियों के लोगों को ही सम्मिलित करना चाहिए जिसमें दूसरों को अधिक आपत्ति न हो। दूसरी बात यह भी ध्यान रखनी चाहिए कि बहुत अधिक रूढ़िवादी-पाखंडियों को पहले से ही सम्मिलित न किया जाय अन्यथा वे कभी ब्राह्मणवाद के नाम पर, कभी जातिवाद के नाम पर, कोई न कोई विघ्न उपस्थित किये बिना न मानेंगे। इन प्रेम आयोजनों में उदार प्रकृति के, विचारशील धर्म प्रेमी ही लिए जायं।

निर्धारित जप संख्या की व्यवस्था होते ही अंतिम दिन सामूहिक हवन की तैयारी में लग जाना चाहिए। हवन के लिए प्रातः या सायंकाल का ऐसा समय रखना चाहिए जो सब की सुविधा का हो। स्थान ऐसा चुना जाय, जो नगर के निकट या बीच में हो, जहाँ पहुँचने से जनता को अड़चन न हो। यज्ञ मंडप एवं वेदी या कुण्ड को सजाने में अपनी कलाकारिता का पूरा-पूरा परिचय देना चाहिए। बाँस, बल्ली, रंगीन कपड़े, चित्र, आदर्श वाक्य, ध्वजा पताका, फूल गुलदस्ते, रंगीन फल, बंदनवार, केले के पत्ते खंभे आदि वस्तुओं की सहायता के कुछ सुरुचिपूर्ण कलाकार समोवृत्ति में लोग मिलकर सजावट करने में एक दो दिन का पूरा-पूरा समय करें। लोगों में उत्साह एवं आकर्षण पैदा करने के लिए यज्ञशाला की सजावट पर पूरा-पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। कुरुचिपूर्ण, मैली कुचैली गंदी फूहड़ चीजों में बनी हुई अस्त व्यस्त यज्ञशाला यज्ञ संयोजकों की अयोग्यता ही साबित नहीं करती वरन् लोगों का उत्साह भी ठंडा कर देती है, इसलिए इस कार्य में उपेक्षा बरतना किसी भी प्रकार उचित न होगा। जिस स्थान पर यज्ञ हो वहाँ की दीवारों को गेरू आदि से सुरुचिपूर्ण आदर्श वाक्य में लिखकर सुसज्जित कर दिया जाय। आगंतुकों के बैठने की समुचित व्यवस्था हो।

समिधाएं सूखी, कुण्ड या वेदी के साइज की, बिना सड़ी धुनी हो। प्रधान वेदी पर एक कलश तो आवश्यक ही है। चारों कोनों पर चार कलशों की स्थापना और भी हो सके तो उत्तम है। कलश रंगे हुए, पंच पल्लव, नारियल कलावा, पुष्पमाला आदि से सजे हुए हों। पंच पात्र, चमची, आसन, हवन, सामग्री की थाली, घृत पात्र, स्रुवा, पूजा की थाली, घृत दीपक आदि सभी वस्तुएं, पहले से ही तैयार रखनी चाहिए। ताकि समय पर उनके लिए भाग दौड़ करने की अड़चन खड़ी न हो। हवन सामग्री, घी, समिधा, सजावट प्रसाद वितरण आदि के लिए कुछ चंदा इन जप करने वाले भागीदारों से या अन्य लोगों से इकट्ठा कर लेना चाहिए। यज्ञ संयोजक यदि गृहस्थ हैं तो उन्हें इसमें अपना भाग दूसरों से अधिक देना चाहिए। हवन सामग्री में सुगंधित द्रव्यों का होना आवश्यक है। विधिपूर्वक उचित अनुपात से शास्त्रोक्त औषधियाँ हवन में उपयोग करने से यज्ञ में सम्मिलित होने वालों के स्वास्थ्य एवं मस्तिष्क पर कीमती दवाओं जैसा काम करती हैं। इसलिए आहुतियों में शुद्ध घी तथा सुगंधित औषधि सामग्री की सुव्यवस्था करना उचित है। पर जहाँ पैसे की बहुत तंगी हो वहाँ शुद्ध दूध की-मेवा शक्कर, घी पड़ी हुई खीर, हलुआ आदि पौष्टिक खाद्य पदार्थों का हवन करना चाहिए। तिल, जौ, चावल, सूखे अन्नों में थोड़ा घी शक्कर मिलाकर भी काम चल सकता है। पर यह सूखे अन्नों का हवन यज्ञ कर्ताओं की कंगाली का ही सूचक है। ऐसा तो वे पण्डित लोग कराते हैं जो यज्ञ में एकत्रित निधि को दक्षिणा में, पुजापे में, अपने लिए हड़पने के लिए आहुतियों का झंझट सस्ते से सस्ते में निपटाना चाहते हैं। तिल, जौ, चावल थोड़ी मात्रा में सम्मिलित हों पर अधिकाँश में सुगंधित औषधियों एवं घी, खीर, हलुआ आदि पौष्टिक चरु शाकल्यों की ही प्रधानता रहे। खीर आदि पतली चीजें चमची से हवन करने में सुविधा रहती है।

स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहन कर हवन करने वाले आवें, पैर धोकर यज्ञशाला में घुसें, कंधे पर पीले दुपट्टे हों, सब होताओं के मस्तक पर चंदन लगाया जाय। जप करने वाले भागीदारों के कुटुम्बी या अन्य सज्जन जो हवन में भाग लेने के इच्छुक हो उन्हें भी अवसर दिया जाय। बहुत छोटे बच्चों को छोड़कर कर शुद्धतापूर्वक आये हुए किसी इच्छुक को हवन में शामिल होने से रोका न जाय। यह सब बातें घर-घर जाकर पहले समझायी जाएं और हवन में भाग लेने के लिए लोगों को आमंत्रित किया जाय तो बहुत लोग आ सकते हैं। यह आध्यात्मिक लाभ अधिकतम लोगों को मिले इस दृष्टि से समीपवर्ती क्षेत्र के समझाने, प्रेरणा देने, सूचना करने बुलाने के लिए कई बार लोगों के घरों पर जाना चाहिए इस भाग दौड़कर लोगों से सत्कर्म करा लेने की धर्म फेरी को संसार का सबसे बड़ा पुण्य कहा जा सकता है। जो यज्ञ संयोजक जितनी धर्मफेरी लगा सकेगा उसका आयोजन उतना ही सफल होगा। जो धर्म फेरी में अपनी तौहीन, बेइज्जती समझेंगे संकोच करेंगे उनका आयोजन फीका व असफल रहेगा। इसलिए यज्ञ संयोजकों में से कुछ की तो ड्यूटी ही धर्म फेरी की लगा देनी चाहिए। इनका कार्य लोगों से बार-बार प्रार्थना करके इस सन्मार्ग में लाना हो, जो इस मार्ग में मिले अपमान को भी भुला सकता है। मेम्बरी के लिए जिस प्रकार वोट माँगी जाती है, ठीक उसी प्रकार गायत्री माता तथा यज्ञ भगवान को मेम्बर बनाने के लिए यज्ञ संयोजक को दर-दर जाकर अलख जगाना चाहिए।

“संक्षिप्त हवन विधि” पुस्तक में गायत्री हवन का पूरा विधान बड़ी सरल रीति से लिखा हुआ है। हवन के लिए जितने आसन बिछाये गये हों उन पर एक-एक पुस्तक भी रखी जाय। ताकि मंत्र बोलने में सभी को सुविधा हो। एक व्यक्ति पथ प्रदर्शक हो, वह आदेश देकर श्रोताओं से सब कृत्य कराता जाय, आदेश देता जाय। मंत्र बुलवाता जाय। कई पण्डित, कई पुस्तकों से कई विधान बनाते हैं, वह ठीक नहीं। अ.भा. गायत्री संस्था की ओर से अत्यंत उच्चकोटि के कर्मकाण्डी याज्ञिकी विद्वानों की सम्मति से एक सुनिश्चित पद्धति बन गयी है, उसे हटाकर अन्य अस्त-व्यस्त रीतियाँ अपनाना ठीक नहीं। जो भी सज्जन हवन कराने वाले हों उन्हें पहले से ही नियत यज्ञ पद्धति की समुचित जानकारी होनी चाहिए। सब के हाथ में पुस्तकें रहने से यथाक्रम निर्धारित विधिविधान के साथ हवन क्रम चलाना चाहिए।

सवालक्ष सामूहिक जप के लिए शतांश आहुतियाँ 1250 दी जाती है। टोली बदल कर सभी को हवन करने का अवसर मिले इस दृष्टि से उपस्थिति व्यक्तियों की संख्या, आहुतियों और यज्ञशाला में बैठने का स्थान को देखते हुए यह निश्चय करना चाहिए कि कितनी आहुतियाँ दे देकर होताओं की कितनी टोलियाँ बदली जाय। मान लीजिए यज्ञकुँड पर आठ व्यक्ति बैठने हैं। कुल व्यक्ति 40 हैं, आहुतियाँ 1250 देनी हैं तो आठ-आठ की 5 टोलियाँ बदलेंगी। प्रत्येक टोली को 250 आहुतियाँ देनी हैं। होता 8 हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति को 32 आहुति देने का अवसर मिलेगा। 32-32 आहुतियाँ देकर आठ आदमियों की पाँच टोली बदलें तो 1250 आहुतियाँ हो जाएंगी। इसमें कुल मिलाकर दो ढाई घंटा समय लगेगा। पूर्णाहुति, वसोधारा, साष्टांग प्रणाम, क्षमा याचना, शुभकामना, आरती, घृत अवघ्राण, भस्म धारण परिक्रमा आदि सभी कार्य मिलजुलकर करने से यज्ञ का अंत बड़ा शोभायमान हो जाता है। अंत में कीर्तन, भजन एवं प्रवचन की भी कुछ व्यवस्था अवश्य रखी जाय। प्रसाद बाँटने में मिठाई आदि का बहुत खर्च नहीं बढ़ाना चाहिए। यज्ञ में बना हुआ खीर, हलुआ, पंचामृत, मामूली मिठाई, ठण्डाई आदि वस्तुएं इस कार्य के लिये पर्याप्त हैं ।

यज्ञ के अन्त में ब्रह्मभोज का विधान है। इसके लिये केवल सत्पात्र ही उपयुक्त हो सकते हैं। सच्चे ब्रह्म परायण, निर्लोभी, अपरिग्रही, परम संतोषी, निर्व्यसनी, सदाचारी, लोकसेवी, धर्म प्रचारक ब्राह्मणों का मिलना आज दुर्लभ हो रहा है। भारी खोज करने पर ब्राह्मणत्व की कसौटी पर खरे उतरने वाले सत्पात्र ब्राह्मण कहीं सौभाग्य से ही एक दो ही मिल सकते हैं। जिन भाग्यशालियों को ऐसे कोई ब्राह्मण, साधु संत उपलब्ध हो सकें वे अवश्य उन्हें समुचित सत्कार के साथ भोजन करावें। जहाँ केवल नामधारी गुण कर्म स्वभाव से रहित ब्राह्मण हो वहाँ कुमारी कन्याओं को भोजन करा देना चाहिए और नारी जाति की महानता की प्रतीक, गायत्री माता की प्रतिनिधि इन कन्याओं का समुचित आदर सत्कार, तिलक चंदन, पुष्पमाला, चरण स्पर्श आदि के द्वारा सत्कार भी करना चाहिए।

ब्रह्मदान, ब्रह्मभोज का उत्कृष्ट स्वरूप है। कुछ सस्ता गायत्री साहित्य उपस्थित जनता में अवश्य ही वितरण करना चाहिए। अन्नदान से ज्ञान दान का पुण्य सौ गुणा अधिक माना गया है। पूरी मिठाई खाकर मनुष्य कुछ ही देर में उसे टट्टी के मार्ग से निकाल देता है और फिर भूखा का भूखा हो जाता है। यदि वह खाने वाला कुपात्र हुआ तो उस अन्न से जो शक्ति उसे मिली और उसके द्वारा वह जो अधिक दुष्कर्म करने लगा तो उसको अन्नदान का पुण्य मिलना तो दूर उलटा उस दाता को पाप में सहायक बनने का पाप लगेगा। इसी प्रकार यदि दी हुई दक्षिणा के धन का उपयोग सिगरेट, भाँग, गाँजा, शराब आदि नशेबाजी में हुआ है तो भी वह दानदाता को उलटे नरक में ले जायगा। इन सब दोषों से ब्रह्मदान-ज्ञानदान सर्वथा मुक्त है। अच्छी पुस्तक को जो पढ़ेगा उसे ज्ञान ही मिलेगा। उस ज्ञान से दुष्कर्म नहीं सत्कर्म ही बनना संभव है। फिर वह पुस्तक देर तक रहने वाली भी है, उस व्यक्ति को या उसके घरवालों को जब तक वह बेचारी जीवित रहेगी अच्छी प्रेरणा ही देती रहेगी।

ब्रह्मदान के लिए गायत्री चालीसा बहुत उत्तम है। 240 चालीसा वितरण दिये जाएं और यदि लेने वाले केवल एक बार ही पढ़कर उसे फेंक दें तो भी 240 पाठों का एक अनुष्ठान करा देने का पुण्य उस दाता को मिल जाता है। यदि कहीं उनमें से आधे चौथाई भी रोज पूरे पाँच पाठ नित्य करने लग गये तो नित्य अनुष्ठान होते रहने की एक शृंखला चिरकाल तक चला देने का एक महान पुण्य हो जाता है। इतने बड़े पुण्य फल के लिए 6) जैसी छोटी रकम खर्च करना बहुत ही सरल है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए 15) मूल्य के 240 चालीसा डाक खर्च समेत केवल मात्र 6) में देने को गायत्री तपोभूमि ने विशेष व्यवस्था कर दी है।

उपरोक्त विधि व्यवस्था के आधार पर एक सवा लक्ष का सामूहिक अनुष्ठान बड़ी आसानी से बहुत थोड़े खर्च में हो सकता है। इसमें कार्यकर्ताओं का उत्साह और भागदौड़ में तत्परता ही प्रधान कार्य है। आयोजन जितना महत्वपूर्ण और प्रभावशाली बन जाता है उसे देखते हुए जो खर्च पड़ता है वह नगण्य ही है। साधारणतया इस पूरे कार्यक्रम में 50 से 100 रुपये के भीतर काम चल जाता है। कही-कहीं तो इससे भी कम में व्यवस्था बन जाती है।

पहले हर जगह छोटे 9 दिन के आयोजन कराने चाहिएँ। उसमें अनुभव प्राप्त करके 24 लक्ष का यज्ञानुष्ठान आयोजित करना चाहिए। 24 लक्ष महाअनुष्ठान का जप एक महीने तक एक घंटा रोज जप करने वाले 80 व्यक्ति मिल कर पूरा कर सकते हैं। जप करने वालों की संख्या कम हो तो प्रतिदिन का कुछ समय बढ़ाया जा सकता है या एक महीने की अवधि को दो-तीन महीने का किया जा सकता है। इसमें 24 हजार आहुतियों का हवन होता है, जो 5 कुण्डों की यज्ञशाला बनाकर प्रतिदिन 3-4 घंटे रोज के आयोजन में 3 दिन में पूरा हो जाता है। यों एक कुण्ड में भी सूर्योदय से सूर्यास्त तक आहुतियाँ 8 आदमी देते रहें तो एक दिन में भी 24 हजार हवन हो सकता है। पर ऐसी व्यस्तता की अपेक्षा तीन दिन का प्रेमपूर्वक आयोजन जिसमें भजन, कीर्तन, प्रवचन, चालीसा पाठ आदि कई आयोजन सम्मिलित हों, ठीक है। इनमें 200) से लेकर 500) तक व्यय हो सकता है। अक्सर लोग बड़ी-बड़ी दावतें खिलाने और लम्बी-चौड़ी दक्षिणाएँ देने में हजारों रुपया फूँक देते हैं यह अनावश्यक है। विवाह-शादियों की तरह यज्ञों में दावतें उड़ें, यह धन का अपव्यय है। बाहर से आये हुए अतिथियों के लिए भोजन की व्यवस्था उचित है, पर वह भी सीधी-सादी यज्ञीय पवित्रता से मेल रखती हुई सतोगुणी होनी चाहिएं। 9 कुण्डों की यज्ञशाला में 3 दिन में सवालक्ष आहुतियों का हवन हो सकता है। इसमें हवन सामग्री का दो सौ रुपया खर्च अधिक बढ़ेगा।

25 कुण्डों की यज्ञशाला में तीन से पाँच लाख आहुति हो सकती है। इसमें दो हजार के करीब खर्च चाहिए। सौ हवन कुण्डों में तीन दिन में चौबीस लक्ष आहुति होती है। इनमें व्यवस्था बड़ी बन जाती है। इसमें न्यूनतम पाँच हजार और अधिक तक दस हजार खर्च होता है। आइये गायत्री माता के अंतराल में सन्निहित सामूहिकता की भावना को उपासना के क्षेत्र में भी विकसित करें। इसके लिए स्थान-स्थान पर सामूहिक यज्ञानुष्ठानों की आवश्यकता है। एक छोटा-बड़ा आयोजन आप भी कीजिए। ऐसे शुभ संकल्प माता की सहायता से सदा सफल ही होते ह


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