जीवन को सुखी बनाने का सहज मार्ग-अपरिग्रह

April 1957

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री आर. के. शर्मा)

संसार में मनुष्य का मुख्य उद्देश्य सुख की प्राप्ति माना गया है। सब कोई इसी के लिए प्रयत्न करते रहते है और तरह-तरह की सामग्रियाँ एकत्रित करते रहते हैं। अधिकाँश मनुष्यों का इस विषय में यही विचार देखने में आता है कि हमारे पास जितनी अधिक सामग्री, जीवन निर्वाह के साधन, धन, सम्पत्ति आदि होगी उतने ही हम सुखी हो सकेंगे। पर हम प्रायः यह देखते हैं कि जिसके पास जितना अधिक माल असबाब होता है वह उतना ही अशाँत और दुनिया की हाय-हाय से व्याकुल होता है।

कारण यह है कि हम जितनी सामग्री और सम्पत्ति एकत्रित करते हैं वह सब हमारे लिए वास्तव में आवश्यक नहीं होती। दूसरों को देखकर या लालसा के कारण हम झूठमूठ अपनी आवश्यकताओं को बढ़ा लेते हैं और उनकी पूर्ति के लिए दिन-रात दौड़−धूप करके उन्हीं की चिंता में अपनी आयु समाप्त कर देते हैं। ऐसे लोग प्रकट में चाहे सुखी भी दिखलायी पड़ें, पर दूसरों के पास अपने से भी ज्यादा सम्पत्ति और सामग्री देखकर और अपने पास की सम्पत्ति की रक्षा के लिए उनको बड़ी परेशानी उठानी पड़ती है। वे प्रायः यही सोचा करते हैं कि “अमुक वस्तु अथवा पदार्थ तो हमें अवश्य ही चाहिए। इस चीज के बिना तो हमारा कार्य चल ही नहीं सकता। ऐसी चीज न मिल सकी तो व्यवहार में बाधा आ जायेगी।” पहनने के लिए चार कपड़े की आवश्यकता है तो वे सौ पचास संग्रह करके रखना चाहते हैं। रहने के लिए एक मकान मौजूद है, पर मन में दो-चार और बड़े मकान और कोठियाँ बनाने की लालसा लगी रहती है।

यह सच है कि जीवन में समुचित निर्वाह के लिए मनुष्य को कितने ही पदार्थों की अनिवार्य रूप से आवश्यकता होती है। पर इसमें भी संदेह नहीं कि कितनी ही बातें ऐसी भी हैं जिनकी आवश्यकता हमने जान-बूझकर पैदा कर ली और उनके बिना भी जीवन निर्वाह सुख पूर्वक हो सकता है। इस प्रकार की चीजों का शौक लग जाने से मनुष्य संसार की बाहरी बातों से अधिक प्रेम करने लगता है और उनके मोह जाल में फँस जाता है। पर इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मनुष्य किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए उद्योग न करे। और कैसी भी भली बुरी हालत में दिन बिताकर जिंदगी पूरी कर ले। या वह किसी सुँदर वस्तु की इच्छा न करे या किसी उच्च स्थिति तक पहुँचने के लिए उद्योग न करे। यह तो निकम्मे लोगों का सिद्धाँत है जो कहा करते हैं-अजगर करे न चाकरी पंडित करे न काम। हम किसी को ऐसा उद्योग हीन अथवा अभिलाषा शून्य जीवन व्यतीत करने की सलाह नहीं देते। हमारे कहने का आशय इतना ही है कि वस्तुओं का संग्रह आवश्यकतानुसार किया जाय न कि लालच के रूप में और साथ ही यह भी दृष्टिगोचर रखा जाय कि केवल संसार के भौतिक पदार्थ ही आपको आनंद नहीं दे सकते पर वास्तविक आनंद अपने भीतर से ही प्राप्त हो सकता है। अतः केवल साँसारिक वस्तुओं को सुखी होने का साधन मत समझ बैठो।

दुनिया में आप हजारों ऐसे राजा-महाराजा, सेठ, साहूकार देख सकते हैं जिनके पास बड़े-बड़े खजाने, जमीन, जायदाद, सुँदर महल सुख की सभी सामग्रियाँ हैं। जिनको मोटर का वायुयान स्पेशल ट्रेनें आदि आवागमन के साधन प्राप्त हैं। धन, जन ऐश्वर्य सब कुछ है और जिस किसी पदार्थ की इच्छा हो उसे तुरंत प्राप्त कर सकते हैं, फिर भी वे दुःखी असंतुष्ट नजर आते हैं और समय-समय पर अपने दुख का रोना रोया करते हैं। इन्हीं के मुकाबले में अनेक लोग ऐसे भी मौजूद हैं जिनको रहने को घर नहीं, सोने को स्थान नहीं, भोजन का कोई ठिकाना नहीं, धन नहीं, जन नहीं और पग-पग पर आपत्तियों का सामना करना पड़ता है। जगत में उन्हें कोई सुख नहीं मिला। फिर भी वे हमेशा बहुत प्रसन्न, हर्षित और मस्त रहते हैं। उनके चेहरे पर किसी बात की चिंता दुख या ग्लानि का चिह्न दिखलाई नहीं पड़ता। इसका कारण यही होता है कि वे संसार के पदार्थों से ज्यादा मोह नहीं रखते और न अपनी आवश्यकताओं को जानबूझ कर बढ़ाते हैं। इससे वे अनेक तरह की परेशानियों से बचे रहते हैं और किसी वस्तु का अभाव होने पर उनको रोना नहीं पड़ता।

इसलिए अगर आप वास्तव में सुखी होना चाहते हैं तो आज से ही इस विचार को त्याग दें कि अमुक वस्तु की प्राप्ति से ही हमको आनंद प्राप्त होगा अथवा अमुक वस्तु न मिल सकी तो हमको खेद है या दुःख होगा। अमुक वस्तु के न मिलने से चित्त को अशाँति होगी अथवा उनको तृप्ति न होगी। इस प्रकार की धारणाओं में फँसकर मनुष्य अपने जीवन को परतंत्र और दुखी बना लेते हैं। अगर जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत करना चाहते हो तो उपरोक्त सिद्धाँत को हृदयंगम करके अपनी आवश्यकताओं को कम करो।

तुम जितना अधिक आवश्यकताओं के पीछे दौड़ते हो उतना ही तुमको दुख और क्लेश मिलता है। क्योंकि वे पदार्थ परिवर्तनशील हैं और इसलिए हमारी आवश्यकताएं भी पूर्ण होने के बजाय बढ़ती चली जाती हैं। इसलिए सुखी होना चाहते हो तो सुख के वास्तविक स्वरूप की खोज करो और झूठी आवश्यकताओं को कभी महत्व मत दो। यूरोप के एक प्रसिद्ध दार्शनिक “कौबेट” ने सत्य कहा है-”मानव अपने साधनों की महानता से नहीं वरन् अपनी इच्छाओं या कामनाओं की लघुता से ही स्वतंत्रता प्राप्त करता है।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118