आलस्य तो-छोड़िए ही।

April 1957

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(श्री ज्वालाप्रसाद गुप्त, एम.ए., एल.टी., फैजाबाद)

शास्त्रों में कर्म की महिमा अच्छी तरह गाई गई है। दर्शन तथा विज्ञान शास्त्र आदि सभी यही बताते हैं कि यह संसार कर्म मूल है। सभी साँसारिक जीव कर्मरत हैं। क्या जड़ चेतन सभी कर्मपाश में बँधें हैं। इस अपार संसार में आलस्य के लिए कोई स्थान नहीं। सूर्य, चंद्र, तारे, पृथ्वी तथा ग्रहों आदि को देखो, किस प्रकार अपने निरंतर कर्म में अहर्निशि तल्लीन रहते हैं। जिसमें जितनी शक्ति है उसे उसी के अनुसार कार्य करना है। कर्म की अभावावस्था का नाम आलस्य है। वास्तव में कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति कभी आलसी नहीं हो सकता। बिना काम किये उसे चैन ही न पड़ेगा। आलसी वे हैं जो अकर्मण्य अर्थात् कर्तव्य की अवहेलना करने वाले हैं। ऐसे लोगों का मस्तिष्क हमेशा पापों और फिजूल बातों ही से भरा रहता है, अंग्रेजी में एक कहावत है-आलसी लोगों का दिमाग शैतान का घर है। जिन्हें अपना कर्तव्य कर्म नहीं सूझता पिशाच उन्हें कुकर्म, ढूँढ़ लेता है। अकर्मण्य और आलसी लोग दिन-रात अप्रसन्न एवं अस्वस्थ रहा करते हैं। इसके विपरीत काम करने वाले सदा प्रसन्न और स्वस्थ रहते हैं। काम करने से केवल शरीर को ही सुख नहीं मिलता, बल्कि मन को भी यथेष्ट शाँति और सुख प्राप्त होता है। जो लोग यह कहते हैं कि मुझे तो कोई काम ही नहीं, क्या करूं यह उनकी भारी भूल है। राजा प्रजा, संन्यासी, गृहस्थ, अध्यापक, विद्यार्थी, माता-पिता तथा संतान नौकर और मालिक आदि जितने भी व्यक्ति हैं अधिकार भेद तथा शक्ति और अवस्था के अनुसार सब के कर्तव्य की सीमा निर्दिष्ट है। जो अपना काम नहीं करता, दूसरों का सहारा ढूँढ़ता है, वह आलस्य में पड़कर अपने को निकम्मा बनाता है।

किसी पदार्थ के रक्खे-रक्खे नष्ट होने की अपेक्षा उसका किसी काम में लगकर नष्ट होना अच्छा है। इसी प्रकार किसी काम में मन और शरीर को उलझाकर जीवन व्यतीत करना आलस्य में पड़े रहने से कहीं बढ़कर है।

एक प्रसिद्ध विद्वान एर्मसन ने कहा है कि प्रकृति की प्रेरणा मनुष्यों के प्रति यही है कि परिश्रम का मूल्य तुम पाओ चाहे न पाओ, पर कर्म (सत्कर्म) बराबर करते जाओ। तुम जो कर्म करोगे उसका पुरस्कार कभी न कभी तुम्हारे हाथ जरूर आयेगा। तुम हल्का काम करो या भारी, खेती करो या महाकाव्य लिखो, कोई काम क्यों न हो, योग्यता के साथ सम्पन्न करो। प्रथम तो उस काम के सम्यक् सम्पन्न होने से तुम्हारा चित्त प्रसन्न होगा, नयनादि इंद्रियगण तृप्त होंगे। इसी को पुरस्कार समझो। यदि इस काम से तत्काल विशेष लाभ न हो तो इससे अधीर न हो, किसी न किसी दिन तुम्हें अपने कर्म का यथेष्ट फल मिल ही जायेगा। किया हुआ कोई काम कभी निष्फल नहीं होता। किसी अच्छे काम को तुम भली-भाँति पूरा कर सकोगे तो वही तुम्हारे लिए पुरस्कार होगा।

उन कामों को भूलकर भी न करो जो नीति विरुद्ध हो। याद रक्खो, जो काम बुरा है उसका परिणाम कभी अच्छा नहीं हो सकता। बबूल के पेड़ में आम कभी नहीं फल सकता। बुरे काम का अंतिम फल परिताप ही है। अपकर्म करने से शारीरिक और मानसिक अनेक हानियाँ होती हैं। अपकर्मियों का सभ्य समाज में कहीं और कभी भी आदर नहीं होता और उन्हें सब लोग घृणा की दृष्टि से देखते हैं।

कोई भी काम जो शारीरिक या मानसिक परिश्रम से सम्बंध रखता हो और लोकोपकारी अथवा जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक हो कदापि बुरा नहीं कहा जा सकता। यदि वह ईमानदारी व सच्चरित्रता के साथ संपादित किया जाय। इस प्रकार कुली का काम, किसान का काम, शाक भाजी बेचने का काम, क्लर्क का काम, ट्यूशन का काम, बढ़ई, कुम्हार, लोहार आदि का काम कदापि निन्द्य नहीं है। नीचता, निंदा तथा कलंक तो उन्हीं कामों को करने में है जो बुरे और नीति विरुद्ध हों। काम करने की योग्यता और शक्ति रखने पर दूसरे का आश्रित होना नीचता ही है। इस संबंध में एक कहानी उल्लेखनीय है।

एक समय एक बंगाली बाबू इंग्लैंड से लौटकर स्विट्जरलैंड देश देखने गये। वे वहाँ एक बड़े रेलवे स्टेशन पर उतरे और एक कुली को पुकारा। कुली ने आकर उनका सामान उठाया। बंगाली महोदय ने उससे किसी होटल में ले चलने को कहा और वह उनको अपने साथ लेकर चला।

रास्ते में उस कुली ने उनसे पूछा-”महाशय आप किस देश के रहने वाले हैं? आपका स्वरूप देखकर यह नहीं मालूम होता कि आप किस देश के निवासी हैं।”

बाबू-मैं तो भारतवर्ष का निवासी हूँ।

कुली-मैं आपसे कुछ बात और पूछना चाहता हूँ। क्या आप मेरे प्रश्नों का उत्तर देने की कृपा करेंगे।

बाबू-हाँ, हाँ पूछो। मैं यथासाध्य अवश्य उत्तर दूँगा। तब कुली निर्भय होकर उनके साथ वार्तालाप करने लगा। कुली की विद्वतापूर्ण बातें सुनकर बाबूजी ने आश्चर्य से कहा-”तुम पढ़े-लिखे मालूम होते हो, फिर कुली का काम क्यों करते हो?”

कुली ने कहा-कोई काम न मिलने पर दूसरे का आश्रित और कंटक रूप होने की अपेक्षा मैंने कुली का काम करना अच्छा समझा। आज मैं कुली का काम कर रहा हूँ परंतु कोई दिन ऐसा भी आ सकता है कि मैं पार्लमेण्ट का सभापति हो सकूँ।

स्विट्जरलैंड का कुली विद्वान होते हुए भी कोई उपयुक्त काम न मिलने पर गठरी ढोकर जीवन निर्वाह करना अच्छा समझता है। परंतु दूसरे का आश्रित और कंटकरूप होना नहीं चाहता। क्या यह बड़प्पन की बात नहीं है।

संसार की जितनी भी उन्नतिशील जातियाँ हैं, सबने निर्विवाद कर्म का महात्म्य स्वीकार किया। भारतवर्ष की तरह अमेरिका और यूरोप में भीख माँगने की प्रथा नहीं है और वहाँ भीख लेना जैसा लज्जाजनक और हीनतासूचक कार्य समझा जाता है, वैसा ही भिक्षा देना भी आलस्य को सहारा देना कहकर बहुत ही बुरा समझा जाता है। इसलिए उक्त देशों में किसी को भिखारी कहना सख्त गाली समझी जाती है। अमेरिका के बड़े-बड़े कालेजों के कितने ही निर्धन विद्यार्थी गर्मी की छुट्टियों में गाड़ी हाँककर, धर्म मंदिरों में घंटा बजाकर, होटलों में बर्तन साफ कर, नाट्यशाला में भाग लेकर तथा और भी ऐसे कितने काम करके रुपया कमाते और उन रुपयों से कालेज का खर्च चलाते हैं। इसमें वे लोग लज्जा नहीं समझते। परंतु दूसरे का कंटकरूप होना अथवा उपार्जित धन सहायता के रूप में लेना वे अवश्य महान लज्जा का विषय समझते हैं।

खेद है कि हमारे इस आलस्य प्रधान भारत देश के निवासियों में यह भाव जाग्रत नहीं होता, इसलिए वे अकर्मण्यता और आलस्य को घृणित नहीं समझते। याद रहे कि मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु आलस्य ही है। “आलस्यंहि मनुष्याणाँ शरीरस्थो महारिपुः।”

हमें चाहिए कि हम किसी समय भी बेकार न बैठें। संसार का इतिहास कर्म योगियों के इतिहास से भरा है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म की प्रधानता पर अर्जुन को उपदेश दिया है। जनक आदि ने कर्म करके ही सिद्धि पायी है। हमारे महान नेताओं ने अपने जीवन के एक-एक पल का सदुपयोग किया है। हमारे प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू अपने इस 67 वर्ष की अवस्था में भी नित्य 18 घंटे कार्य करते हैं। अतः हमारा सच्चा धर्म यही है कि आलस्य त्याग कर कर्मवीर बनें।


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