वैदिक प्रार्थनाओं को अपनाइये

September 1947

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(श्री दौलतराम कटरहा बी. ए.)

प्राचीन काल में जब भारतीय विद्यार्थी गुरु-गृह में रहकर तथा ब्रह्मचर्य-सहित विद्याध्ययन समाप्त कर अपने घर लौटने लगते थे तब गुरु उन्हें उपदेश देते थे “धर्मान्न प्रमदितव्यम्, कुशलात्र प्रमदितव्यम्, भूत्यै न प्रमदितव्यम्” अर्थात् “धर्म कार्यों में प्रमाद न कर, कल्याणकारी कर्मों में प्रमाद न कर अपनी ऐश्वर्य-वृद्धि में प्रमाद न कर” इत्यादि और इस तरह भारतीय आचार्य-गण अपने शिष्यों को लौकिक जीवन में और अपने कर्तव्य-कर्मों में कुशलता पूर्वक प्रवृत्त होने की शिक्षा देते थे न कि एकदम संन्यास के लेने की। वे अपने शिष्यों से साफ-साफ कह देते थे कि विवाह कर गृहस्थ बनो और उत्तम संतान उत्पन्न करो। ‘प्रजातन्तु सा व्यवच्छेत्सीः’ अर्थात् प्रजा रूपी तंतु को मत तोड़ना, ऐसी उनकी आज्ञा होती थी। इस तरह उनकी आज्ञाओं में संतुलन होता था और वे परलोक और इह लोक दोनों को संवारने की शिक्षा देते थे। परलोक के पीछे इह लोक को बिल्कुल भूल जाने का प्रयत्न करना उनका आदर्श नहीं था।

भारतीय ऋषियों की इस ईश्वर प्रार्थना से भी कि हमारी सारी मनोकामनाएं पूरी होती रहें, हम आनन्द में रहें (ॐ शन्नोदेवीरभिष्टय) जिस-जिस चीज को चाहते हुए हम आपका आश्रय लें वह हमें प्राप्त हो ताकि हम धन और ऐश्वर्य के स्वामी बनें (यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्) यह स्पष्ट है कि यदि हम भी भक्ति-भाव सहित लौकिक जीवन में अच्छी तरह प्रवृत्त हों और अपने लौकिक कल्याण के लिये इस तरह की प्रार्थना करें तो हमें भोगैश्वर्य-प्रसक्त कहकर ऐसी प्रार्थनाओं को आध्यात्मिक विकास के लिए हानिकर नहीं बताया जा सकता है।

भारतीय ऋषियों के उपरोक्त दृष्टि-कोण को प्रायः भक्ति भाव के विकास में बाधक समझा जाता है। लोग कहते हैं कि यह दृष्टिकोण उस काल का है जब कि आर्यों में सभ्यता का विकास हो रहा था और जब कि उन्हें लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व द्रविड़ आदि जातियों पर विजय प्राप्त करने के लिए ऐसी ही उल्लास और उमंग से भर देने वाली प्रार्थनाओं की आवश्यकता थी। किन्तु मैं समझता हूँ कि इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि “साँसारिक वैभवादि मिथ्या हैं अतएव मनुष्य को इहलोक और लोक-लाज की परवाह न करके अपने परलोक को संवारने वाली भक्ति का ही आश्रय लेना चाहिये” इस तरह की विचारधारा भी उस जमाने की है जबकि प्राचीन आर्य जाति नवागन्तुक विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा पराजित होकर अपनी स्वतंत्रता को खो चुकी थी और निर्विघ्न रूप से अपने पौरुष और वीरता के गीत न गा सकती थी। अतएव इस घटना के कारण हमारे सामाजिक जीवन और साहित्य पर जो प्रभाव पड़ा इसके परिणाम स्वरूप हमने इस विचार धारा को अपनाया।

लौकिक और वैदिक कर्मों को त्याज्य बताने वाली जिस निरोध स्वरूपा भक्ति का हमारे समाज में प्रचार हुआ वह हमारी लौकिक समस्याओं को सुलझाने वाली नहीं थी। हिंदुओं के मायावाद, विवर्तवाद, प्रपत्तिवाद सम्बन्धी सिद्धाँत अर्वाचीन हैं अतएव यह भले ही समझा जावे कि ये सिद्धान्त आध्यात्मिक अनुभव की परमावधि के प्रतिबिम्ब हैं किंतु मैं समझता हूँ कि एक विजित जाति के ये अनुभव सत्य भले ही हों किंतु वे हमें हमारी खोई हुई स्वतंत्रता और ऐश्वर्य पुनः प्राप्त करा सकेंगे यह संदेहास्पद है।

किसी भी व्यक्ति अथवा जाति के अनुभव केवल इसलिए प्रामाणिक भी नहीं हो सकते कि वह व्यक्ति अधिक अवस्था वाला है अथवा उस जाति का इतिहास बहुत प्राचीन है। व्यक्तिगत तौर पर मैं यह मानता हूँ कि जिसे पराजित मनोवृत्ति के लोग अपने जीवन का दीर्घकालीन बहुमूल्य अनुभव कहकर पुकारते हैं वह बहुधा उनकी भद्दी भूलों, दुष्कर्मों और दुर्भाग्यपूर्ण जीवन के ‘रिकार्ड’ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। क्या आप उस वृद्ध व्यक्ति के मत को मान्यता देकर उस पर आचरण करेंगे जो कि कहता है कि “बिना धूर्तता के द्रव्योपार्जन कर जीवन-यापन नहीं किया जा सकता?” अथवा क्या आप उस कमजोर व्यक्ति की बात को मान्यता देंगे जो कि कहता है कि-”झूठों का बोलबाला सदा ही और सब जगह रहता है अतएव बिना झूठ बोले संसार में सुख और शाँति-पूर्वक नहीं रहा जा सकता।”

कमजोर व्यक्ति तो आपसे कहेगा कि सच्ची गवाही देने के कारण उसे दुश्मनों ने एक बार पीटा था इसलिए सच बोलकर दुनिया में नहीं रहा जा सकता किंतु बलवान व्यक्ति का अनुभव तो कुछ और ही होगा। वह तो कहेगा कि “सच बोलने के कारण उसके साहस और गुण की खूब प्रशंसा हुई थी और उसे खूब सम्मान प्राप्त हुआ था।” इन दोनों व्यक्तियों का अनुभव भिन्न-2 है अतएव यह स्पष्ट है कि हमारे लिये जीवन में उन्नति की ओर उन्मुख बलवान और श्रेष्ठ व्यक्तियों के ही अनुभव ग्राह्य और उपादेय हो सकते हैं।

जिस जाति या व्यक्ति के सम्बन्ध में हम निश्चय पूर्वक जानते हैं कि उसका जीवन असफलता-पूर्ण रहा है उसके अनुभवों को हमें सतर्कतापूर्वक सुनना चाहिए, उसकी सलाहों से सावधान रहना चाहिए और उन्हें तब तक ग्रहण न करना चाहिए जब तक कि हमारी अन्तरात्मा भी उनके सही होने की साक्षी न दे। इस दृष्टि-कोण से विचार करने पर तथा इस उद्देश्य से भी कि हमें अपना खोया हुआ ऐश्वर्य और स्वातंत्र्य पुनः प्राप्त करना है, हमारे लिये विजयी आर्य जाति का दृष्टिकोण पराजित आर्य जाति के दृष्टिकोण की अपेक्षा अधिक हितप्रद होगा।

ऋग्वेद काल के आर्यों की प्रार्थनाएं नवीन दृष्टिकोण की अपेक्षा, जबकि वे संसार को भूलकर केवल भक्ति की ही कामना किया करते थे, अधिक भौतिक अवश्य है किंतु वह संतुलित और संयत है। (ॐ अग्ने नय सुपथा राये) आदि मंत्रों से स्तुति कर वे सारे जगत को प्रकाश करने वाले और सर्व विद्याओं के भंडार सुख-दाता ईश्वर से विज्ञान और राज्य आदि की प्राप्ति के लिये सीधे धर्म युक्त मार्ग दिखाने की कामना अवश्य रखते हैं किंतु साथ-साथ यह भी प्रार्थना करते हैं कि उनके कुटिलता से भरे पाप-कर्म दूर हों और वे परमात्मा की सदा स्तुति और प्रशंसा किया करें। उनकी इस प्रार्थना में संतुलन है और वह इहलोक और परलोक दोनों को संभालती है। कामनाएं रखने से आध्यात्मिक पतन तो तब होता है जबकि हम केवल कामनाएं ही करते हैं और धर्म को भूल जाते हैं।

भगवान विष्णु को षडगुणैश्वर्य संपन्न अर्थात् ज्ञान, वैराग्य, यश, ऐश्वर्य, श्री और धर्म-संयुक्त कहा जाता है। भगवान के वैराग्य और ऐश्वर्य आदि गुणों में सम्यक् संतुलन है। अतः यदि हम भी भगवान के सच्चे भक्त या उपासक बनना चाहते हैं तो हमें उनके भर्ग को, उनके पवित्र तेज को और उनकी संतुलित गुणावलियों को अपनी आत्मा में धारण करना होगा। उपासना का अर्थ होता है, उपास्य का सान्निध्य प्राप्त करना या उनके निकट बैठना। अतएव हम भले ही अनेकों गुणों को अपने अंदर धारण कर लें किंतु यदि हम ऐश्वर्ययुक्त न होयेंगे तो हम भगवान विष्णु के सच्चे उपासक न कहला सकेंगे। भगवान तो स्वयं कहते हैं कि जो जो भी विभूति युक्त, क्राँति-युक्ति और शक्ति युक्त वस्तु है उसे मेरे ही तेज के अंश से उत्पन्न हुई जानो। अतएव सोचिए तो सही कि क्या सकल ऐश्वर्यों से युक्त राजराजेश्वर का कोई प्रिय भक्त या पुत्र कभी कंगाल रह सकता है?

ऐश्वर्यों को त्याग कर अपने आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ना महान पुरुषार्थ है। किंतु त्याग सदा प्राप्त वस्तु का ही होता है अतएव अप्राप्त ऐश्वर्य के त्याग को त्याग कह कर त्यागी बनने का दंभ करना घोर आत्म-प्रवंचना है। अतः वास्तविक त्यागी वही हो सकता है जिसमें ऐश्वर्यों को प्राप्त कर लेने की योग्यता और पुरुषार्थ हो। इसलिए जो व्यक्ति पुरुषार्थी और कर्मठ नहीं है और जिसका आध्यात्मिक विकास भी नहीं हुआ है वह व्यक्ति त्यागी नहीं हो सकता अतएव उसके साँसारिक वैभवादि मिथ्या हैं ऐसा उपदेश देने की अपेक्षा ‘भूत्यै न प्रमादित तव्यम्’ ऐसा उपदेश देना ही श्रेयष्कर होगा। यदि कोई व्यक्ति अकर्मण्य है तो उसे मोक्ष आदि जीवन के उच्चतम पुरुषार्थ आकर्षित नहीं कर सकते।

मनुष्य की आवश्यकताएं ही उसे पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरणा देती है और इस प्रेरणा के फल-स्वरूप ही उन्नति करते-करते जाँगल-युग से सभ्यता के इस युग में आ पहुँचा है। अतएव पुरुष में उसके प्रसुप्त पुरुषार्थ को जाग्रत करा देना ही प्रकृति का एकमात्र लक्ष्य प्रतीत होता है और भौतिक उन्नति उस लक्ष की प्राप्ति के लिए एक साधन मात्र हैं। इसलिए जब कभी भौतिक उन्नति के मिथ्यात्व और निस्सारता को दिखलाकर उसके प्रति हमारे हृदय में महात्मा लोग अरुचि पैदा करते हैं तो उनका प्रयोजन यही होता है कि क्रमशः भौतिक उन्नति की ओर से बढ़कर आध्यात्मिक उन्नति में पूर्णतया निरत हो जावें तथा यह समझ लें कि मोक्ष-प्राप्त ही परमोच्च पुरुषार्थ है और उसके सामने अन्य पुरुषार्थ निस्सार से प्रतीत होते हैं।

भारतीय इतिहास में एक समय ऐसा आया जब कि गौरवशाली आर्यों की पवित्र भूमि विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा पद दलित होने लगा और हमारे वाङ्मय में वीर-काव्य का अभाव होने लगी। हमारी भावनाओं को गहरी ठेस लगी और हमें सान्त्वना देने की क्षमता रखने वाले “संसार की असारता, कर्म की अपेक्षा भक्ति-मार्ग की श्रेष्ठता, पौरुष की अपेक्षा भाग्य की प्रबलता” आदि सिद्धान्तों की शिक्षा का प्रचार ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी में खूब हुआ और बाद में इन्हीं बातों का प्रतिपादन करने वाले अनेकों विद्वान हुए जिनकी शिक्षा का प्रभाव यह हुआ कि हमारे समाज- रूपी उद्यान के श्रेष्ठतम कुसुम अभौतिक ईश्वर को रिझाने की चाह में पर्वतों और वनों में अपने सौरभ को नष्ट करते रहे तथा संन्यासी और विरागी बनकर देश-दशा के प्रति अपेक्षाकृत उदासीन और सामाजिक जीवन से परांगमुख होते रहे। भारतवासियों को उस शिक्षा ने लोरियाँ और थपकियाँ देकर सुलाने की कोशिश की, देश-दुर्दशा पर परदा डाल उसे भुलाने का प्रयत्न किया और लोग सोचने लगे कि हमारे इहलोक का वैभव तो क्षीण ही हो गया अतः अब हम कम से कम अपना परलोक ही क्यों न सुधार लें। विद्वानों ने मायावाद का नारा लगाया और इस तरह अंगूर न प्राप्त कर सकने के कारण अंगूरों को ही खट्टा बतलाने वाली लोमड़ी जैसा आचरण हमसे बन पड़ा।

यह मनोवृत्ति वैदिक काल के कर्मठ महर्षियों जैसी मनोवृत्ति नहीं थी किंतु यह तो विजित और कर्म-क्षेत्र में पराजित लोगों की मनोवृत्ति थी। अतएव परिणाम यह हुआ कि नैराश्यपूर्ण भक्ति की आड़ में अकर्मण्यता का काफी प्रचार हुआ। इस समय देश का ध्यान यद्यपि अपने पुरुषार्थ और बल-विक्रम की ओर से हटकर ईश्वर की ओर गया किन्तु उसे शायद यह सुधि न रही कि ईश्वर की सहायता उसी को प्राप्त होती है जिसे अपनी शक्ति का भरोसा होता है और जो अपनी सहायता करना जानता है।

हमारे जीवन और साहित्य पर भी हमारी पराजय का बढ़ा विषाद-पूर्ण प्रभाव पड़ा। हमारी उस काल की विचार-धारा में वही प्रभाव परिलक्षित होता है। जिस गज के संबंध में कवि “निर्बल है बल राम पुकारयो, आए आधे नाम” का गान करता है वह गज वास्तव में उस समय का भारतीय हिंदू समाज ही था और इससे उस जमाने की भक्ति भावना अपने वास्तविक रूप में प्रतिबिम्बित भी होती है। आर्त-भाव से हिंदू समाज ने वैराग और भक्ति के सिद्धान्त को अपना कर खूब पल्लवित किया तथा उसे चरम सीमा तक पहुँचा दिया। किंतु, वह तो उस समय कर्मानुराग और कर्म-प्रधान या कर्म-रूप भक्ति का ही अधिकारी था, कर्म-रहित भक्ति का नहीं। कर्म-रहित भक्ति ने जीवन-संग्राम में इस पराजित निराश और हतप्रभ जाति को लौकिक जीवन के प्रति और भी अधिक निरपेक्ष बनाया जिससे कि हम आज तक भी अकर्मण्यता और दासता के बंधनों से पूर्णतया मुक्त नहीं हो सके। अतएव आज हमें साँसारिक कर्तव्य कर्मों से निवृत्त कराने वाली शिक्षाओं की अपेक्षा उनमें प्रवृत्त कराने वाली वैदिक प्रार्थनाओं की ही अधिक आवश्यकता है।


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