एकादश व्रत

September 1947

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(महात्मा गाँधी)

ब्रह्मचर्य किसे कहते हैं? जो हमें ब्रह्म की तरफ ले जाय वह ब्रह्मचर्य है। इसमें ज्ञानेंद्रिय का संयम आ जाता है। वह संयम मन वाणी, और कर्म से होना चाहिये। अगर कोई मन से भोग करे और वाणी व स्थूल कर्म पर काबू रखे तो यह ब्रह्मचर्य में नहीं चलेगा। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ मन पर पूरा काबू हो जाय, तो वाणी और कर्म का संयम बहुत आसान हो जाता है। मेरी कल्पना का ब्रह्मचारी, कुदरतन तन्दुरुस्त होगा, उसका सिर तक नहीं दुखेगा, वह कुदरती तौर पर लम्बी उमर वाला होगा, उसकी बुद्धि तेज होगी, वह आलसी नहीं होगा, जिस्मानी या दिमागी काम करने में थकेगा नहीं और उसकी बाहरी सुघड़ता सिर्फ दिखावा न होकर भीतर का प्रतिबिम्ब होगी। ऐसे ब्रह्मचारी में स्थितप्रज्ञ के सब लक्षण देखने में आवेंगे।

ऐसा ब्रह्मचारी हमें कहीं दिखाई न पड़े, तो उसमें घबराने की कोई बात नहीं।

जो स्थिर वीर्य हैं, जो ऊर्ध्वरेता हैं, उनमें ऊपर के लक्षण देखने में आवें तो कौन बड़ी बात है? मनुष्य के जिस वीर्य में अपने जैसा जीव पैदा करने की ताकत है, जिस वीर्य के एक बूँद में इतनी ताकत है, उस वीर्य को ऊंचे ले जाना ऐसी-वैसी बात नहीं हो सकती। जिस वीर्य के एक बूँद में इतनी ताकत हैं, उसके हजारों बूँदों की ताकत का माप कौन लगा सकता है?

यहाँ एक जरूरी बात पर विचार कर लेना चाहिये। पतंजलि भगवान के पाँच महाव्रतों में से किसी एक को लेकर उसकी साधना नहीं की जा सकती। यह हो सकता है तो सिर्फ सत्य के बारे में ही, क्योंकि दूसरे चार तो सत्य में छिपे हुये हैं। और इस युग के लिये तो पाँच की नहीं, ग्यारह व्रतों की जरूरत है। विनोबा ने उन्हें मराठी में सूत्ररूप में रख दिया है।

अहिंसा सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य असग्रंह,

शरीरश्रम अस्वाद, सर्वत्र भयवर्जन।

सर्वधर्मो समानत्व, स्वदेशी स्पर्शभावना,

ही ऐकादश सेवावीं नम्रत्वें व्रतश्चियें॥

ये सब व्रत सत्य के पालन में से निकालें जा सकते हैं। मगर जीवन इतना सरल नहीं। एक सिद्धान्तों में से अनेक उप-सिद्धान्त निकाले जा सकते हैं। तो भी एक सबसे बड़े सिद्धान्त को समझने के लिए अनेक उप सिद्धान्त जानने पड़ते हैं।

यह भी समझना चाहिये कि सब व्रत समान हैं। एक टूटा कि सब टूटे। हमें आदत पड़ गई है कि सत्य और अहिंसा के व्रत भंग को हम माफ कर सकते हैं। इन व्रतों को तोड़ने वाले की तरफ हम उंगली नहीं उठाते। अस्तेय और अपरिग्रह क्या हैं, सो तो हम समझते ही नहीं। मगर माना हुआ ब्रह्मचर्य का व्रत टूटा, तो तोड़ने वाले का बुरा हाल होता है। जिस समाज में ऐसा होता है। उसमें कोई बड़ा दोष होना चाहिये। ब्रह्मचर्य का संकुचित अर्थ लेने से वह निस्तेज बनता है। उसका शुद्ध पालन नहीं होता, सच्ची कीमत नहीं आँकी जाती और दम्भ बढ़ता है कम से कम इस व्रत का पूरा स्थूल पालन भी अशक्य नहीं, तो बहुत कठिन तो होता ही है। इसलिए सब व्रतों को एक कर लेना चाहिये।


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