अध्यात्म अनावश्यक नहीं है।

September 1947

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हमारे सामने कई बार ऐसे प्रश्न उपस्थित किये जाते हैं कि “अध्यात्म की शिक्षा बुड्ढों के लिए है। युवकों को तो दूसरी शिक्षाएं दी जानी चाहिए।” दूसरी शिक्षाओं से उनका तात्पर्य व्यापार, युद्ध, लेखन, भाषण, शिल्प आदि से होता है। अध्यात्म को वे युवकों के लिए अनुपयोगी ही नहीं प्रत्युत हानिकार मानते हैं।

ऐसे प्रश्न कर्ताओं का दृष्टिकोण एक हद तक ठीक भी है। अध्यात्म का लोक व्यापी रूप, कथा, कीर्तन, हवन, जप, पूजा, प्रक्षालन, स्त्रोत, तिलक, छाप, स्नान, ध्यान, तीर्थ, श्राद्ध, तर्पण, शंख, घड़ियाल आदि कर्मकाण्डों तक सीमित है। लोग इसी को अध्यात्म समझते हैं। वे देखते हैं कि अनेकों कर्मकाण्डी-जो दीर्घकाल तक इस विधि व्यवस्था में तल्लीन रहे हैं कोई भौतिक या आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पाते। पंडे, पुजारी, कथावाचक, संत, महन्त साधारण मनुष्यों की अपेक्षा मनुष्यता की दृष्टि से गिरे दर्जे के देखे जाते हैं। इन सब बातों को देखते हुए प्रश्न कर्ताओं का यह अभिमत ठीक ही जंचता हैं कि कब्र में पैर लटकाये हुए बुड्ढ़े-टुड्ढ़े जिन्हें खाँसने और चारपाई पर पड़े रहने के अतिरिक्त और कोई काम नहीं इस अध्यात्म का सेवन करते रहें। युवकों को इसकी जरूरत नहीं। परलोक के संदिग्ध सपने देखने की अपेक्षा युवकों को तो जननी जन्म भूमि को स्वर्गादपि गरीयसी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।

प्रश्नकर्ताओं का जैसा अभिमत है कि धार्मिक कर्मकाण्ड ही अध्यात्म है। यदि वस्तुतः वैसी ही बात होती तो हमें उनके मत को अस्वीकार करने में तनिक भी आपत्ति न होती, क्योंकि हमारे अपने जीवन में हजारों लाखों आध्यात्मिक कहे जाने वाले व्यक्ति संपर्क में आये हैं। उनमें दंभ, अहंकार, असत्य, छल, कायरता, चाटुकारिता, पुजवाने की इच्छा, दीनता, अव्यवस्था, नशेबाजी आदि अनेकों दुर्गुण इतनी मात्रा में देखे जाते हैं जिसकी तुलना में उनका आध्यात्मिक ज्ञान या वेश नगण्य सा दिखता है। ऐसी दशा में हम इन प्रश्नकर्ताओं के अभिमत से किस प्रकार असहमत हो सकते हैं जो युवकों को अध्यात्म से अलग रखने का अभिमत प्रकट करते हैं।

परन्तु वस्तुस्थिति दूसरी है। अध्यात्म का वास्तविक अभिप्राय-’आत्मा के असली स्वरूप का सत् चित् आनन्द का विकास करना हैं।’ आत्मा का जो धर्म है जो स्वभाव है वह प्रायः मनुष्यों में पूर्ण रूपेण दृष्टिगोचर नहीं होता। उसी अविकसित अंश को विकसित करने के लिए आध्यात्मिक ज्ञान एवं साधन का प्रतिष्ठापन किया जाता है। मनुष्य सतोगुणी बने, चैतन्य बने, प्रसन्न रखने वाले स्वभावों और गुणों से सम्पन्न हो यह सच्चे अध्यात्म का कार्यक्षेत्र है।

सेवा, सहृदयता, कर्तव्य परायणता, जागरुकता, संयम शीलता, एवं आत्मनिर्भरता यह छः गुण मनुष्यता के लक्षण कहे जाते हैं। इस षट्गुण सम्पन्न मनुष्यता को एक शब्द में हम वास्तविक अध्यात्म कह सकते है। इस तत्व की उन्नति और रक्षा के लिए ही हमारे पूजनीय आचार्यों ने इस महाविज्ञान का अन्वेषण और आविष्कार किया था। पूजन-भजन भी इस महाविज्ञान का एक छोटा सा अंग है, एक छोटा सा परिधान है। पर आज तो प्राण निकल गया है और परिधान की पूजा हो रही है। सजीव षट्गुणमयी आध्यात्मिकता बहिष्कृत हो रही है और उसके स्थान पर निर्जीव कर्मकाण्डमयी अन्ध परम्परा प्रतिष्ठित हो रही है। जैसी पूजा है वैसा ही फल मिलेगा। उस फल को देखकर आज अनेकों प्रश्नकर्ता हमारे सामने अध्यात्म की निरर्थकता उपस्थित करते हैं। उसे सुनकर रुष्ट या असंतुष्ट होने का हम कोई कारण नहीं देखते।

पर हमें वस्तुस्थिति को देखना और समझना होगा। अध्यात्म हमारे जीवन का मेरुदंड है जिसके ऊपर प्रत्येक प्रकार की सफलता और सुस्थिरता निर्भर है। षट्गुण सम्पन्न मनुष्यता की वृद्धि और परिपक्वता के बिना अन्य सब योग्यताएं बालू की भीति के समान हैं। उनके ऊपर कोई सुदृढ़ व्यक्तित्व की, मानवोचित गुणों की आवश्यकता होती है। इन गुणों को विकसित करना ही आध्यात्म साधन या आत्म निर्माण कहलाता है। इस पथ की आरंभिक सीढ़ियां प्राथमिक साधनाएं यम, नियम हैं। दया पात्रों पर दया, सत्य व्यवहार, चोरी या छल न करना, शक्ति संचय, अत्यधिक लोभी न बनना, स्वच्छता, अनुद्विग्नता, परिश्रमशीलता, इन्द्रियों को वशवर्ती रखना, विद्या, कर्मफल की निश्चिंतता में विश्वास रखना, यह दस बातें यम और नियम हैं। इन पर आरुढ़ हुए बिना कोई व्यक्ति अध्यात्म जीवन में प्रवेश नहीं कर सकता।

यम-नियमों के तथा षट्गुण सम्पन्न मनुष्यता विकास के लिए अनेकों मार्ग हैं। आत्म निर्माण एवं लोक सेवा की सम्पूर्ण प्रवृत्तियाँ इसी उद्देश्य के लिए हैं। आत्म निर्माण के अनेकों साधनों में से एक साधन पूजन-भजन एवं धार्मिक कर्मकाण्ड परायणता भी है क्योंकि उनके द्वारा मन पर आस्तिकता के सात्विकता के संस्कार जमते हैं और मनुष्य सन्मार्ग की ओर अग्रसर होता है। यह कर्मकाण्ड एक प्रकार के आत्मिक व्यायाम हैं जिसके द्वारा आत्मबल की वृद्धि होती है। जैसे अमुक प्रकार का व्यायाम कोई व्यक्ति न करना चाहे और किसी अन्य प्रकार की कसरत करके शरीर को क्रियाशील रखे तो भी उसे स्वस्थता और सबलता का लाभ मिल सकता है। इसी प्रकार विविध धर्म सम्प्रदायों में विविध प्रकार के कर्मकाण्ड प्रचलित हैं और सभी लोग अपने-अपने तरीके से उद्देश्य की ओर बढ़ते हैं। कर्मकाण्ड साधन हैं, सात्विकता की, चैतन्यता की, आन्तरिक उल्लास की, अभिवृद्धि साध्य है। साध्य को प्राप्त करने के कई साधन या मार्ग हो सकते हैं। हमें साध्य का ध्यान रखना है।

इस षट्गुण सम्पन्न मनुष्यता की वृद्धि और सुरक्षा हर प्रकार की उन्नति के लिए आवश्यक है। सचाई, ईमानदारी, खरा व्यवहार, औचित्य, समाज का हित इन बातों का ध्यान रखकर जो भी कार्य किये जाते हैं वे अधिक समय तक टिकते हैं, अधिक लाभदायक होते हैं, अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं, अपनी और दूसरों की सुख-शान्ति में अधिक लाभदायक होते हैं, अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं, अपनी और दूसरों की सुख-शान्ति में अधिक वृद्धि करते हैं। इसके विपरीत नैतिक दृष्टि से गिरे हुए मनुष्यों द्वारा जो भी काम होते हैं वे अस्थायी, थोड़े दिन चमक कर पीछे बिल्कुल अस्त हो जाने वाले, निन्दनीय, अनीतिवर्धक तथा विपत्ति उत्पन्न करने वाले होते हैं। योग्यताएं एक प्रकार के शास्त्र हैं उनका परिणाम, उपयोग करने वाले की स्थिति के ऊपर निर्भर है। सुई से एक आदमी सुन्दर वस्त्र सी सकता हैं, दूसरा उसी सुई से किसी की आँखें फोड़कर भारी विपत्ति खड़ी कर सकता है। योग्यताएं प्राप्त करना उचित है पर साथ ही उन योग्यताओं को धारण करने वाले की विवेकशीलता में अभिवृद्धि भी उचित है।

हम देखते हैं कि अनात्मवान व्यक्तियों के हाथ में जाकर योग्यताएं, विपत्ति का कारण बन जाती हैं। डाकू के हाथ में जाकर बन्दूक कहर बरसाती है, चोरों का संगठन बन जाय तो वह आफत खड़ी कर देता हैं, बेईमान दुकानदार भली-बुरी चीजें बेचकर ग्राहकों को दुख देता है, कायर सेनापति जीती बाजी को हरा देता है, एक रूपवती वेश्या अनेकों को व्यभिचारी बना देती है। इसी प्रकार लेखनी की, वाणी की, विद्या-वृद्धि की योग्यताएं अवाँछनीय व्यक्तियों के हाथ में जाकर भयंकर परिणाम उपस्थित करती हैं। यदि यही शक्तियां, यही योग्यताएं चरित्रवान व्यक्तियों के हाथ में हों तो उससे व्यक्तिगत और सामूहिक सुख-शान्ति में वृद्धि होती है। इसलिए योग्यताओं की जितनी आवश्यकता हैं उससे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि उनके हाथ में योग्यता रूपी शस्त्र थमाया जाय, जो उसके अधिकारी हों। यदि पात्रता उत्पन्न किये बिना शक्तियों का, योग्यताओं का सम्पादन किया तो परिणाम बहुत बुरा होगा। परमाणु शक्ति जैसी महाशक्ति को प्राप्त करके मनुष्य ने उसका उपयोग नाश के लिए, विपत्ति के लिए ही किया है।

हमसे कहा जाता है कि युवकों को अध्यात्म की शिक्षा मत दीजिए। उन्हें व्यापार, युद्ध, चिकित्सा, शिल्प, विज्ञान, लेखन, भाषण, राजनीति आदि की शिक्षा दीजिए। इसके उत्तर में हमारा विनम्र निवेदन यही है कि इन सब शिक्षाओं की निश्चय ही आवश्यकता है और अनेक सरकारी, अर्धसरकारी तथा धनीमानी सज्जनों द्वारा संचालित शिक्षालय इस प्रकार की शिक्षा दे भी रहे हैं। जिनके पास साधन हो वे अधिक तेजी से उन शिक्षाओं को जारी रखें, यहाँ तक तो सब कुछ ठीक हैं पर यह कथन ठीक नहीं कि युवकों को अध्यात्म की शिक्षा मत दीजिए। बिना मानवोचित गुणों का विकास हुए सभी शिक्षाएं निरर्थक ही नहीं अपितु हानिकर भी साबित होंगी।

यदि प्रश्नकर्ता सज्जन अध्यात्म को पंडे, पुजारी, भिक्षुक, बाबा जी आदि तक सीमित रहने वाला कर्मकाण्ड समझते हैं तो उनके कथन के विरुद्ध हमारे पास कोई दलील नहीं हैं। पर सच्चा अध्यात्मवाद दूसरी वस्तु है वह जीवन का मेरुदंड है, उसके बिना कोई व्यक्ति सच्चे अर्थों में न तो उन्नतिशील बन सकता है और न सुख शान्ति प्राप्त कर सकता है। वह आत्मा का भोजन है। अध्यात्म-जीवन की सर्वांगीण उन्नति और सुख−शांति का वैज्ञानिक साधन है इस साधन को अपनाने की जीवन क्षेत्र में प्रवेश करने वाले युवकों को ही सबसे अधिक आवश्यकता है।


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