शास्त्र मंथन को नवनीत

September 1947

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नारिकेलसमाकारा दृश्यन्तेपि हि सज्जनाः।

अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहराः॥1॥

सज्जन नारियल के फल के समान बाहर तो कड़े परन्तु भीतर बहुत मधुर और कोमल होते हैं। और दुष्ट बेर के फल के समान बाहर तो मधुर परन्तु भीतर कड़े होते है।

सुहृदिनिरंतरचित्ते गुणवति भृत्येऽनुवर्तिनिकलत्रे।

स्वामिनि सौहृदयुक्ते निवेद्य दुःखं सुखी भवति॥2॥

अभिन्न हृदय मित्र से, गुणवान नौकर से, आज्ञाकारिणी स्त्री से और मित्रभाव रखने वाले स्वामी से अपने दुख की बात कहने से चित्त सुखी हो जाता है अर्थात् मन का क्लेश कम हो जाता है।

चलत्येकेन पादेन तिष्ठत्येकेन बुद्धिमान्।

न समीक्ष्य परं स्थानं पूर्वमायतन। त्यजेत्॥3॥

बुद्धिमान पुरुष एक पैर आगे रखता है, परन्तु दूसरा पैर पीछे जमाये रहता है। जब तक दूसरे स्थान की छान बीन अच्छी तरह नहीं कर लेता, तब तक वह पहले स्थान को नहीं त्यागता।

अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत्।

गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्॥4॥

बुद्धिमान् पुरुष अपने को अजर-अमर समझता हुआ विद्या और धन का संचय करे। परन्तु धर्मकार्य यह समझ कर करे कि मानो मृत्यु चोटी पकड़े हुए है।

यः समुत्पतितं क्रोधं मानच्चापि नियच्छति।

स श्रियोभाजनं पुँसाँ यश्चापत्सु न मुह्यति॥5॥

जो मनुष्य उठे हुए क्रोध और अभिमान को रोकता है और आपत्तियों में नहीं घबराता, वह पुरुषों में श्री अर्थात् लक्ष्मी का पात्र-धनवान् होता है।

नात्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्।

छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुबजास्तिण्ठन्ति पादपाः॥6॥

मनुष्य को अधिक सीधा भी न होना चाहिए, क्योंकि वन में जाकर देखो तो सीधे पेड़ ही काटे जाते है, टेढ़े पेड़ सब खड़े रहते हैं।

एह्यागच्छ समाश्रयासनमिदं

कस्माचिरात् दृश्यसे,

का वार्ता कुशलोसि बालसहितः

प्रीतोस्मि ते दर्शनात्

एवं ये समुपागतान्प्रणयिनः

प्रह्लादयन्तयादरात्,

तेषाँ युक्तमशंक्तेन मनसा

हर्म्याणि गन्तुँ सदा॥6॥

आइए, यहाँ पर विराजिए! यह आसन है, बहुत दिनों के पश्चात् दिखाई पड़े। क्या नई बात है! बाल बच्चों सहित कुशल से तो हो! मैं आपके दर्शन से बहुत प्रसन्न हुआ। इस प्रकार जो घर पर आये हुए का आदर से स्वागत करता है उसके घर पर निःशंक मन से सदा जाना चाहिए।

अतिपरिचयादवज्ञा सन्ततवगमनादनादरोभवति।

मलयेभिल्ल पुरंध्रीचन्दनतरुकाष्ठमिन्थनं कुरुते॥7॥

बहुत जान-पहचान से और बहुत आने-जाने से अनादर होता है, जैसे मलयाचल पर भील की स्त्री चन्दन की लकड़ियाँ जलाती है।

दीर्घदर्शी सदा च स्यात्प्रत्युत्पन्नमतिः क्वचित्।

साहसी सालसी चैव चिरकारी भवेन्नहि॥8॥

मनुष्य को बहुत दूर तक देखने वाला और समय पर सोचने वाला बनना चाहिए। असाहसी, आलसी और देर में सोचने वाला न बनना चाहिए।

न दर्शयेत्स्वाभिमतमनुभूताद्विना सदा।

प्रविचार्योप्तरं देयं सहसा न वदेत्क्वचित्॥9॥

बिना अनुभव के किसी बात में अपनी सम्मति न प्रकट करें, विचार करके उत्तर देना चाहिए और शीघ्र कुछ न कह डाले।


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