(श्री भगवतीचरण वर्मा)
कुछ क्षण, जीवन के कुछ छोटे से क्षण
अस्तित्व-ज्ञान के कुछ बिखरे से माँगी
जिनमें कुरूपता जंग की, अपने पन की-
प्रतिबिम्बित है वे क्षत विक्षत दर्पण ये।
लेकर निज उर में आग, नयन में पानी,
कहने बैठा हूँ इनकी आज कहानी!
यह जीवन क्या है? केवल एक पहेली,
यह यौवन क्या है? विस्मृति की रंगरेली,
यह आत्म ज्ञान, तो भ्रम है केवल भ्रम है-
ममता रहती है निशिदिन यहाँ अकेली।
जी भर कर मिल लो आज, ठिकाना कल का?
युग का वियोग, संयोग एक ही पल का?
जग क्या है? उसको जान नहीं पाता हूँ,
मैं निज को ही पहचान नहीं पाता हूँ,
जग है तो मैं हूँ, मैं हूँ तो यह जग है-
जग मुझमें मैं भी जग में मिल जाता हूँ।
यह एक समस्या कठिन जिसे सुलझाना!
सुलझाने वाला हाय, बना दीवाना!
दीवाना पन है पाप? नहीं जीवन है,
ज्ञानी का केवल ज्ञान व्यर्थ क्रन्दन है,
ममता पर प्रति पल हंस-2 कर घुल-घुल कर-
मरने वाले का यहाँ मृत्यु ही धन है,
कामना कसक है और तृप्ति सूनापन,
हंसना ही तो है मृत्यु, रुदन है जीवन,
के पास बहुत ड़ड़ड़ड़ युग युग भर का देख,
हुए भी उसे नगण्रु ड़ड़ड़ड़ का लेखा,
डडडड डडडड डडडड डडड
डडडड डडडड डडडड डडडड
उर की लाली से मुख की कालिख ड़ड़ड़
सर आज हथेली पर है बोली बोलो!
यह खेल नहीं है, प्राणों का विक्रय है,
जीवन पर मिट-मिट जाओ किसका भय है,
यदि आज नहीं हो निश्चय जानो कल ही-
ले लेगा तुम को काल खड़ा निर्दय है!
मिटने वालों को मरने से क्या डरना?
जिसमें ममता है, उसको ही है मरना!
है एक सत्य विश्वास, चलो खुल खेलो !
निर्भय ही खग के कठिन वार को झेलो!
है ‘अविश्वास, भय, पाप, छोड़कर इनको-
यश अपयश जो कुछ मिले उसे ही ले लो!
हैं अमर यहाँ पर खुल कर करने वाले!
पग पग पर मरते रहते डरने वाले!
मस्ती से हस्ती भरी हुई गाफिल की,
मत बात चलना अरे अभी मंजिल की!
चलना है-हमको बरबस जाना होगा-
फिर क्यों रह जाने पाये दिल में दिल की?
मैं समय सिन्धु में डुबा चुका अपना पन!
कल एक कल्पना और आज है जीवन!
-मानव से,
*समाप्त*