स्वर्ण का लोभ

September 1947

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एक राजा बड़ा लालची था। वह चाहता था कि मैं सबसे बड़ा धनवान बन जाऊं, जो सम्पदा किसी के पास नहीं हैं वह मुझे मिल जावें। मेरी सम्पत्ति का पारावार न रहे।

एक दिन किसी बड़े सिद्ध पुरुष से उसकी भेंट हुई। राजा ने अपनी अभिलाषा उन महात्मा से कह सुनाई और कहा कृपा कर किसी प्रकार मेरी इच्छा पूर्ण कर दीजिए।

योगी ने उसे समझाया कि यह इच्छा ठीक नहीं। संपत्ति की एक सीमा तक ही उपयोगिता है, उसकी अति से सुख नहीं दुख मिलता है। पर राजा की समझ में न आई, वह अपनी इच्छा पूर्ति के लिए ही अनुरोध और आग्रह करता रहा।

राजा ने योगी से याचना की कि उसे ऐसी सिद्धि प्राप्त हो जाय कि-”जिस वस्तु को छूवे वही सोने की हो जाय।” राजा के अति हठ को देख कर योगी ने उसे वैसा ही वरदान दे दिया। राजा की प्रसन्नता की सीमा न रही।

वह जिस वस्तु से हाथ लगा देता वही सोने की हो जाती। थोड़ी ही देर में उसके महल त्रिवारें रथ, पात्र, पलंग सभी सोने के हो गये। चारों ओर स्वर्ण ही स्वर्ण था, राजा स्वर्ण के समुद्र में उतराता हुआ आनन्द विभोर हो रहा था।

पर यह क्या? यह आनन्द तो थोड़ी देर भी स्थिर न रह सका। राजा का छोटा सा बच्चा दौड़ता चला आया और पिता की गोद में चढ़ गया, राजा ने उसे गोदी में उठाया ही था कि वह सोने का निर्जीव खिलौना मात्र रह गया। पुत्र चला गया, सोने की मूर्ति हाथ में रह गई। पुत्र की मृत्यु का समाचार पाकर रानी पागल की भाँति दौड़ी आई। राजा की गोदी से मृत पुत्र की लाश को उठाने ही जा रही थी कि वह वह भी राजा के हाथ से छू गई। बस, छूने की देर थी कि रानी भी सोने की पुतली हो गई। वह बहुमूल्य धातु की जरूर थी पर उसमें से प्राण विदा हो गया।

राजा किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो रहे थे। स्त्री और पुत्र की मृत्यु से उनका शरीर जलने लगा। तृषा शान्त करने के लिए पानी का गिलास उठाया तो वह भी सोने का हो गया। भोजन के लिए ग्रास तोड़ा तो वह भी सोने का। पसीना सुखाने को पंखा उठाया तो वह भी स्वर्ण का भारी एवं कठोर सा औजार मात्र रह गया। हवा करने के काम का वह बिल्कुल न था। कपड़ों से हाथ लगा तो वे कवच की तरह शरीर पर मढ़ गये। बिना काटे वे वस्त्र उतरने वाले न थे। मल-मूत्र त्यागना कठिन हो गया। लेटने और आराम करने की भी स्थिति न रही। सोने के मोटे-मोटे भारी कपड़े उसे जहाँ का तहाँ जकड़े बैठे थे।

यह स्थिति राजा के लिए नरक की जलती हुई ज्वाला के समान दारुण दुख देने लगी। उसका एक-एक पल कल्प के समान बीतने लगा।

योगिराज अपनी दिव्य दृष्टि से यह सब देख रहे थे। वे हंसते हुए राजा के सम्मुख फिर उपस्थित हुए। उन्हें देखते ही राजा फूट-फूट कर बालकों की तरह रोने लगा। चरणों पर गिरना चाहता था पर यह हो नहीं सकता था। सोने के कपड़े उसे जहाँ का तहाँ जकड़े बैठे थे। असहाय राजा के एक-एक आँसू में से दारुण व्यथा का एक-एक समुद्र फूटा पड़ रहा था।

योगी ने हंसते हुए कहा-राजन् अब क्या और चाहिए। क्या अभी कोई और सिद्धि की आवश्यकता है?

राजा की आत्मा क्रन्दन करने लगी- प्रभो, इस समय व्यंग न कीजिए। अब तो प्राणों पर बीत रही है, किसी प्रकार इस सिद्धि से बचा दीजिए। योगी दया से द्रवित हो गये उनने अपनी माया समेट ली। सिद्धि का प्रभाव चला गया। सब वस्तुएं यथावत हो गई। राज परिवार ने संतोष की साँस ली मानो उन्हें उबलते हुए तेल के कढ़ाव में से निकाल लिया गया हो।

योगी ने कहा- मैं पहले ही कहता था कि तुम्हारे लिए सिद्धियाँ सुखदायक नहीं दुखदायक होंगी। जब तक वासनाओं का पूर्ण क्षय नहीं हो जाता तब तक सिद्धि का अधिकार प्राप्त नहीं होता। अनधिकारी व्यक्ति अपनी योग्यता से बहुत ऊंची सिद्धि पाकर उसे संभाल नहीं सकते, उसके बोझ से दब कर पिस जाते हैं। मैं अब जाता हूँ तुम भविष्य में अनधिकार चेष्टा न करना।


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