(गोस्वामी श्री बिन्दुजी)
(1) गुरु ब्रह्म है, क्योंकि जिज्ञासु के हृदय में विशुद्ध कल्पना की सृष्टि रचता है।
(2) गुरु विष्णु है, क्योंकि साधक के विश्वास, एवं उत्साह का पालन और पोषण करता रहता है।
(3) गुरु रुद्र है, क्योंकि शिष्यों की कुप्रवृत्तियों का संहार किया करता है।
रत्न से जौहरी बड़ा हैं, क्योंकि जौहरी के बिना रत्न पहिचाना नहीं जा सकता। विद्या से अध्यापक बड़ा है, क्योंकि अध्यापक के बिना विद्या पढ़ी नहीं जा सकती। औषधि से वैद्य बड़ा है, क्योंकि वैद्य के बिना औषधि का सेवन नहीं हो सकता। इसी प्रकार ईश्वर से भी गुरु देव बड़े हैं, क्योंकि बिना गुरु देव के हमें ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता। परन्तु यदि जौहरी कहे कि, मैं ही रत्न हूँ, मुझे ही खरीदो। तो लोग उसे पागल समझेंगे।
यदि अध्यापक कहे कि मैं ही विद्या हूँ, मुझे ही पढ़ो तो लड़के बस्ता बाँधकर घर चल देंगे। यदि वैद्य कहे कि, मैं ही औषधि हूँ, मुझे ही पियो, तो रोगी वैद्य का ही इलाज करने लगेगा। इसी प्रकार यदि गुरु भी कहे कि, मैं ही इस संसार का कर्त्ता, धर्त्ता संहर्त्ता हूँ, मुझे ही ईश्वर मानो, तो शिष्य उसका उपहास ही करेंगे।
तात्पर्य यह है कि, यदि गुरुदेव हमें ईश्वर का बोध कराते हैं, तो वे ईश्वर से भी अधिक मान्य हैं, परन्तु यदि ईश्वर से भी अधिक महत्ता बतला कर, अपने ही पार्थिव की पूजा कराने लगें, तो अवश्य यह उनका ढोंग हैं, शिष्यों को ठगना है, अतः ऐसे गुरु देवों से मुमुक्षु जीवों को दूर ही रहना चाहिये।