परलोक कहाँ है?

September 1947

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स्वः लोक अपने अन्दर है।

अपने आप में, अपने अन्तःकरण में एक जबरदस्त लोक मौजूद है। उस लोक की स्थिति इतनी महत्वपूर्ण है कि उसके सामने भू लोक और भुवः लोक तुच्छ हैं। निस्संदेह बाहर की परिस्थितियाँ मनुष्य को आन्दोलित, तरंगित तथा विचलित करती हैं। परन्तु संसार के समस्त पदार्थों का जितना भला या बुरा प्रभाव होता हैं उससे अनेकों गुना प्रभाव अपने निज के विचारों तथा विश्वासों द्वारा होता है।

गीता में कहा है कि-मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र और स्वयं ही अपना शत्रु है। कोई मित्र इतनी सहायता नहीं कर सकता जितनी कि मनुष्य स्वयं अपनी सहायता कर सकता है। इसी प्रकार कोई दूसरा उतनी शत्रुता नहीं कर सकता जितनी कि मनुष्य खुद अपने आप अपने से शत्रुता करता है। अपनी कल्पना शक्ति, विचार और विश्वास के आधार पर मनुष्य अपनी एक दुनिया निर्माण करता है। वही दुनिया उसे वास्तविक सुख-दुख दिखाया करती है।

एक व्यक्ति सुनसान रात में मरघट के पास से निकलता है। उसके मन में कोई आशंका नहीं, तारागणों की सुन्दरता निहारता हुआ, रात्रि की नीरवता और शीतलता को निरखता हुआ, मन्द स्वर से गीत गुनगुनाता हुआ खुशी-खुशी चला जाता है। परन्तु दूसरा व्यक्ति उसी रास्ते जाता है तो मरघट में भूत लोटते दिखाई पड़ते हैं, झाड़ियों में से मसानी और चुड़ैलें झाँकती दिखती हैं, उनके मारे डर थर-थर पैर काँपने लगते हैं, कण्ठ सूख जाता है, निगाह चूकने से एक पेड़ के ठंठ से टकरा जाता है। बस भूत के भयंकर आक्रमण का प्रत्यक्ष दृश्य दिखाई पड़ता है। वह बीमार पड़ जाता है, महीनों चारपाई सेता है, मुश्किल से अच्छा हो पाता है या मर जाता है। रास्ता वही था, रात वही थी, एक आदमी खुशी-खुशी उसी रास्ते चला आया, दूसरे आदमी की जान पर बन आई। यह भेद क्यों हुआ? इसका कारण मनुष्यों की भिन्न मानसिक स्थिति थी। जिसके मन में से भय उत्पन्न हुआ वह भय ही उनकी छाती पर भयंकर मसान बन कर चढ़ बैठा और उसे प्राण घातक संकट में फाँस दिया।

रस्सों को साँप समझ कर अनेक आदमी भयभीत होकर मूर्छित हो जाते हैं। चूहे के काट जाने पर अपने आपको साँप का काटा समझा कर कई मनुष्य मृत्यु के मुख में चले जाते हैं। साधारण रोग को असाध्य रोग मानकर अनेकों रोगी घबरा जाते हैं और वह घबराहट ही उनकी जान की ग्राहक बन जाती हैं। यह आफत के पहाड़ कौन ढ़ाता है? मनुष्य अपने आप अपने विचार बल से उन आफत के पहाड़ों का निर्माण करता है और खुद अपने ऊपर पटककर स्वयमेव चकनाचूर हो जाता है। मनुष्य के मन में प्रचण्ड शक्ति भरी हुई है वह इस शक्ति द्वारा अपने लिये अत्यन्त अनिष्ट कर और अत्यन्त उपयोगी तथ्य निर्मित कर सकता है।

हर मनुष्य की अपनी एक अलग दुनिया होती है। जानकारी, इच्छा एवं कल्पना के आधार पर हम अपनी मनोभूमि का, निर्माण करते हैं। यह मनोभूमि का ही अपनी दुनिया है। इसमें जैसे इरादे, मनसूबे, यकीदे जम जाते हैं उसी दृष्टिकोण से संसार के समस्त पदार्थों जो वह देखता है। आँखों पर पीला चश्मा पहन लेने से सभी दुनिया पीली दिखाई पड़ती हैं और नीला चश्मा पहन लेने पर हर चीज नीली दिखने लगती है। साधुओं की दृष्टि में यह संसार परमात्मा की पुनीत प्रतिमा है, सिंह की दृष्टि में सब मनुष्य स्वादिष्ट माँस के चलते फिरते लोथड़े हैं, दुकानदारों की निगाह में ग्राहक, वेश्या की दृष्टि में व्यभिचारी, कलार की दृष्टि में नशेबाज, इस दुनिया में भरे हुए है। भीतरी मन की दुनिया जैसी होती है बाहर की दुनिया भी उसी के अनुरूप दिखाई देने लगती है।

मनुष्य को अपनी रुचि जिधर होती है, उधर ही उसका मस्तिष्क ढूँढ़ खोज जारी रखता है। और यह एक प्रकट तथ्य है कि कुछ ढूँढ़ा जाता है वह मिलता है। अपने स्वभाव और विचारों के मनुष्यों को, स्थानों को, वातावरणों को, उसकी अदृश्य चेतना ढूँढ़ती रहती है। और धीरे-धीरे उसे अपने अनुकूल वातावरण मिल जाता है। चोरों को अपने साथी अन्य चोरों का सहयोग हर जगह मिल जाता है और वे चाहे कहीं चले जायें चोरी करने का अवसर या स्थान भी मिल जाता है। इसी प्रकार भले, बुरी, सभी प्रकृति के मनुष्य अपने रुचिकर स्थान को प्राप्त कर लेते हैं। साँसारिक परिस्थितियाँ दोनों ही प्रकार की होती हैं। सात्विक परिस्थितियों में सुख-शान्ति, प्रसन्नता तथा तृप्ति का अनुभव होता है। इसके विपरीत तामसिक परिस्थितियों में क्लेश, अशाँति दुख, दरिद्र तथा असन्तोष छाया रहता है, चोर स्वभाव का मनुष्य चोरी करेगा, फलस्वरूप उसे भय, अशान्ति, निन्दा, अविश्वास, राज दण्ड एवं कर्म के कठोर परिपाक का भागी बनना पड़ेगा। इसी प्रकार सदाचारी स्वभाव का मनुष्य सत्कर्म करेगा और फल स्वरूप प्रसन्नता, सन्तोष, प्रशंसा, विश्वास, स्वास्थ्य एवं समृद्धि प्राप्त करेगा। चोर को अपने स्वभाव के लोगों के बीच रहना पड़ेगा और उनका व्यवहार उसके साथ वैसा ही दुखदायक रहेगा जैसा दुष्टों के साथ दुष्टों का रहता हैं। इसके विपरीत सज्जन पुरुष के समीपवर्ती लोग भी वैसे ही होंगे और उनका व्यवहार वैसा ही संतोषजनक रहेगा जैसा सज्जनों का होता है।

चोर और सदाचारी को जो साँसारिक परिस्थितियाँ प्राप्त हैं वह एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत हैं। परन्तु इसका मूल कारण मनुष्य का अपना मन है। वह चोर स्वभाव को अपनावे या सदाचार की ओर झुके यह पूर्णतया उसकी इच्छा के ऊपर निर्भर है। मनः लोक का जैसा निर्माण किया जाता है बाहरी दुनिया वैसी ही बन जाती है। मन में यदि शान्ति है तो बाहर भी शान्ति का वातावरण होगा यदि मन में आकुलता है तो बाहर भी आकुलता से भरी हुई घटनाएं चारों ओर मंडरा रही होगी। जिसने मनः लोक में स्वर्ग स्थापित कर लिया है उसके लिए इस संसार में सर्वत्र स्वर्ग है, जिसके मन में नरक है उसे सब ओर नरक की ज्वाला जलती हुई दृष्टि-गोचर होती रहेगी।

संसार के समस्त दुख मिलकर मनुष्य को उतना दुखी नहीं कर सकते जितना कि भीतर के अन्तर्द्वन्द्व उसे दुखी करते हैं। मृत्यु स्वयं उतना कष्ट नहीं देती जितनी कि मृत्यु का भय दुखी बनाता है। व्यापार में घाटा हो जाने पर भी एक व्यापारी के सामने ऐसा अवसर नहीं आता कि उसे जीवन-यापन में असुविधा हो। तो भी वह इतनी चिन्ता करता है कि सूखकर काँटा हो जाता है। उस घाटे वाले व्यापारी की जो स्थिति है उससे भी बहुत गिरी हुई स्थिति के मजूर हंसते-खेलते प्रसन्नता का जीवन बिताते हैं। घाटे वाले व्यापारी को साँसारिक विपत्ति वास्तव में नहीं आई, केवल उसके मन में विपत्ति की एक झाड़ी उग आई। ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, शोक, चिन्ता, कुढ़न, निराशा, भय, आशंका, प्रतिहिंसा स्पर्धा आदि दुर्भावों के कारण कितने ही मनुष्य बुरी तरह व्याकुल रहते हैं, उनके मन में सदा एक बेचैनी, आकुलता, अशान्ति एवं पीड़ा उठती रहती है, जिनके कारण उनका मनः लोक बहुत ही नीरस, गन्दा, शुष्क धुँधला एवं अन्धकार पूर्ण हो जाता है। उन्हें हर घड़ी अशान्ति घेरे रहती है।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, छल, पाखण्ड, असंख्य, शोषण, अपहरण, दुराचार, व्यभिचार आदि के कुविचार एक प्रकार के मानसिक शत्रु हैं वे मनः लोक में निशाचरों की भाँति छिपे बैठे रहते हैं और जब भी अवसर मिलता है, दल-बल सहित पूरी तैयारी के साथ निकल पड़ते हैं और जीवन के सुकोमल तन्तुओं को अस्त-व्यस्त कर डालते हैं। जैसे पेट में कोई विषैला पदार्थ पहुँच जाय तो वहाँ बड़ी जलन होती हैं, दस्त या उलटी होने लगती हैं। रक्त में कोई विषैला विजातीय पदार्थ पहुँच जाय तो फोड़े-फुन्सी चकते, कोढ़ आदि पैदा हो जाता है। माँस में काँटा घूस जाय तो जब तक वह निकल नहीं जाता निरन्तर पीड़ा होती रहती है। ठीक यही हाल इन कुविचार रूपी तामसिक, नीच, विजातीय, दानवों के मनः लोक में घुस जाने से होता है, यह कुछ न कुछ खुद-बुद किया ही करते हैं। आँख में पड़ी हुई कंकड़ी की भाँति वे अन्तः चेतना को हर समय घायल ही करते रहते हैं। जैसे कोई आदमी लाल मिर्चों की बुकनी मर्म छिद्रों में भर लेने के बाद तड़पता फिरता है, चैन और आराम उसके लिए स्वप्न हो जाता है वैसे ही दुःस्वभावों को अन्तःकरण में स्थान देने से आत्मा में तीव्र जलन होती रहती है, शान्ति के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं ऐसी स्थिति मानसिक नरक ही कही जायगी।

मानसिक स्वर्ग का अर्थ हैं अपने अन्तःकरण में सात्विक विचारों, सद्भावों और सद्गुणों को धारण करना। ईमानदारी की पवित्रता हिमि सी शीतल, पुष्प सी कोमल, चन्दन सी सुगन्धित और नवनीत सी स्वच्छ होती है उसे धारण करते ही आत्मा को बड़ी राहत मिलती है। हिमालय की तपोभूमि में नयनाभिराम प्राकृतिक दृश्य देखते हुए कन्द-मूल-फल खाते हुए, भगवती भागीरथी, के तट पर निवास करने वाले तपस्वियों को जो शान्ति मिलती है उसी शान्ति को हम ईमानदारी की पवित्रता ग्रहण करके प्राप्त कर सकते हैं। सच्चा मनुष्य विश्वास करता है कि- “ईमानदारी का पवित्र जीवन ही मुझे जीना है, मैं सच्चाई और नेकी से भरे हुए ही अपने विचार रखूँगा, न्याय के ऊपर ही मेरी जीवन नीति निर्भर रहेगी, मैं सत्य को ही सोचूँगा, सत्य के आधार पर ही विचार करूंगा, भलाई नेकी, उदारता और क्षमा का आश्रय ग्रहण करूंगा कुविचार पाप, द्वेष और तुच्छ स्वार्थों से ऊंचा उठकर आध्यात्मिक जीवन जीऊंगा। यह भावनाएं उसके अन्तःकरण में सात्विकता का शीतल झरना प्रवाहित कर देती है।

सत्य, प्रेम और न्याय के जीवन तन्तुओं को झंकृत करते ही आत्मा में एक मधुर संगीत बजने लगता है। पवित्रता का आध्यात्मिक संगीत ही भगवान कृष्ण की त्रिभुवन मोहिनी मुरली का मधुर वेणु नाद है। इसका रस जिसने अनुभव किया है वह धन्य है। आत्मा पवित्र है, उसका मनुष्य के लिए सन्देश है कि “पवित्रता को विचार और कार्यों में ओत-प्रोत करें” यह ईश्वरीय सन्देश जिसने सुन लिया वह बड़भागी है, जिसने सुनकर हृदयंगम कर लिया और तदनुकूल आचरण करना आरम्भ कर दिया वह परमात्मा का सच्चा भक्त है। ऐसे भक्तों के बीच में ही भगवान खेला करते हैं। जिनका हृदय पवित्रता की भावनाओं से भरपूर है वह ईश्वरी लीलाओं का क्रीड़ा-क्षेत्र है। महात्मा ईसा कहा करते थे कि इस पृथ्वी का स्वर्ग भोले बालकों में मौजूद है। सचमुच जिनका हृदय बालकों की तरह कोमल एवं पवित्र है ये स्वयं स्वर्ग रूप हैं, स्वर्ग में जाने की उन्हें कुछ भी आवश्यकता नहीं, क्योंकि जिन तथ्यों के आधार पर स्वर्ग के सुख का निर्माण होता है वे दृश्य इसके हृदय में मौजूद हैं और हर घड़ी स्वर्ग के सुख को उत्पन्न करते रहते हैं।

जो दूसरों को कष्ट में देखकर दया से द्रवित हो जाता है, जो असहायों की सहायता के लिए सदा तत्पर रहता है, जो संसार के सुख में अपना सुख अनुभव करता है, दूसरों को हानि पहुँचाने की जिसे कभी इच्छा नहीं होती, सत्य की बढ़ोत्तरी देखकर जिसे आन्तरिक सुख होता है, जिसे पर स्त्री माता के तुल्य है, जो पर धन को धूलि के तुल्य समझता है, इन्द्रियों को जो मर्यादा से बाहर नहीं जाने देता, चुगली, निन्दा, ईर्ष्या, एवं कुढ़न से जो दूर रहता है, संयम जिसका व्रत है, प्रेम करना जिसका स्वभाव है, मधुरता जिसके होठों से टपकती है, स्नेह एवं सज्जनता से जिसकी आँखें भरी रहती हैं, जिसके मन में केवल सद्भाव ही निवास करते हैं, अनीति की ओर झुकने का जिसे कभी लालच नहीं आता, सादगी सरलता, शिष्टता जिसके रहन-सहन की अंग होती है, ऐसे पवित्र आत्मा व्यक्ति इस लोक के देवता हैं। वे जहाँ रहेंगे, छाया की तरह उनका स्वर्ग उनके साथ रहेगा।

अन्तःकरण की शान्ति बाहरी दुनिया को स्वर्गीय आनन्द से परिपूर्ण बना देती है। जिसके मन में सात्विकता है उसे दूसरों का धन, वैभव, ज्ञान, रूप, यौवन, देखकर प्रसन्नता होगी कि परमात्मा के इस पुनीत उद्यान का एक पौधा सुविकसित तथा पल्लवित हो रहा है, उस नयनाभिराम दृश्य से शान्त पुरुष का हृदय तृप्त एवं प्रफुल्लित हो जाता है। परन्तु जिसके मन में अशान्ति व्याप रही है, ईर्ष्या की डायन नंगा नृत्य कर रही है उसे दूसरों की बढ़ोत्तरी नहीं सुहाती। भीतर ही भीतर भारी कुढ़न होती है और उस कुढ़न की अग्नि से उसकी छाती भभकने लगती है। जिसकी बढ़ोत्तरी हो रही है उसे नीचा दिखाने के लिए तरह-तरह के षड़यन्त्र रचता है और अनिष्ट कर पथ पर अग्रसर होता है।

जो क्रोधी है उसे दूसरों की ओर से क्रोध पूर्ण व्यवहार अपने ऊपर होता हुआ दृष्टिगोचर होगा। जो अनुदार है उसके साथ में अन्य व्यक्तियों को अनुदारता पूर्ण व्यवहार होगा। झूठे और लाचार व्यक्ति जहाँ जायेंगे वहीं देखेंगे कि उनके ऊपर अविश्वास एवं निन्दा की बौछार हो रही है व्यभिचारी व्यक्ति को भले घरों में प्रवेश नहीं होने दिया जाता चुगलखोर और यहाँ की बात वहाँ करने वालों के सामने लोग अपने मन की बात नहीं करते। बेईमान आदमी के कार्यों को लोग अविश्वास के साथ देखते हैं और जब तक अनेक प्रकार जाँच-पड़ताल नहीं कर लेते, तब तक भरोसा नहीं करते। इस प्रकार के अपमानजनक व्यवहार दूसरों की ओर से होते देखकर आम तौर से लोग मन ही मन कुड़कुड़ाते हैं और जमाने को, युग को, लोगों को, दुनिया को दोष देते हैं। परन्तु वे अपने निजी दोषों को देखना भूल जाते हैं। वास्तव में अपनी निजी दोष असुखकर, अप्रिय, अपमानजनक, संघर्षमय वातावरण उत्पन्न करते हैं। यदि अपने हृदय में सात्विकता की पर्याप्त मात्रा विद्यमान हो तो दुनिया की ओर से अधिकाँश आक्रमण तो अपने आप ही बन्द हो जाते हैं। जो थोड़े बहुत आक्रमण नितान्त दुष्टों की ओर से किये जाते हैं वे प्रायः असफल होते हैं। यदि उन आक्रमणों से कुछ कष्ट भी उठाना पड़े तो वह धर्म-प्रतिरोध करता है। इन आक्रमणों या प्रतिरोधों से उसकी मानसिक शान्ति नष्ट नहीं हो पाती।

स्वः लोक का स्वर्ग अपने भीतर है। यदि हम प्रेम, उदारता, ईमानदारी और भलमनसाहत का व्यवहार दूसरों से करें तो दूसरों के हृदयों में से भी वैसी ही आवाज हमारे लिए आवेगी। अपने मन में पवित्रता, निष्कपटता, सत्यता, संयम एवं निस्वार्थता के भाव विद्यमान हों तो वे सद्भाव ही अपने को सदा प्रफुल्लित एवं सन्तुष्ट रख सकते हैं। बारहसिंगा की नाभि में कस्तूरी होती है, वह अपने ही अन्दर नन्दन वन की सुगन्धि का रसास्वादन करता है। जिस सुगन्ध के लिए दूसरे लोग तरसते हैं और प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार के उपाय करते हैं वह बारहसिंगा को अपने अन्दर ही मिल जाती है वह अपनी मस्ती में मस्त हुआ उछलता फिरता है। फिर तुम्हीं दिन-रात दूसरों को हानि पहुँचाने के दुष्प्रयत्नों में मग्न रहकर अपने हृदय को अशान्त क्यों रखते हो? चलो, अपने स्वः लोक को पहचानो और उसमें प्रवेश करो।


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