अधीरता एक छिछोरापन है।

September 1947

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अधीरता की अशाँत दशा में कोई व्यक्ति न तो साँसारिक उन्नति कर सकता है और न आध्यात्मिक। कारण यह है कि उन्नति के लिए, ऊंचा उठने के लिए, आगे बढ़ने के लिए, जिस बल की आवश्यकता होती है, वह बल मानसिक अस्थिरता के कारण एकत्रित नहीं हो पाता। जब हाथ काँप रहा हो उस समय बन्दूक का ठीक निशाना नहीं साधा जा सकता। आवेश की दशा में मानसिक कम्पन की अधिकता रहती है। उस उद्विग्नता की दशा में यह नहीं सूझ पड़ता कि क्या करना चाहिए, क्या न करना चाहिए।

अधीर होना, हृदय की संकीर्णता और आत्मिक बालकपन का चिन्ह है। बच्चे जब बाग लगाने का खेल खेलते हैं तो उनकी कार्य प्रणाली बड़ी विचित्र होती है। अभी बीज बोया, अभी उसमें खाद पानी लगाया, अभी दो-चार मिनट के बाद ही बीज को उलट-पलट कर देखते हैं कि बीज में से अंकुर फूटा या नहीं। जब अंकुर नहीं दिखता तो उसे फिर झाड़ देते हैं और दो-चार मिनट बाद फिर देखते हैं। इस प्रकार कई बार देखने पर भी जब वृक्ष उत्पन्न होने की उनकी कल्पना पूरी नहीं होती तो सारे उपाय काम में लाते हैं। वृक्षों की टहनियाँ तोड़कर मिट्टी में गाढ़ देते हैं और उससे बाग की लालसा को बुझाने का प्रयत्न करते हैं। उन टहनियों के पत्ते उठा-उठा कर देखते हैं कि फल लगे या नहीं। यदि दस-बीस मिनट में फल नहीं लगते तो कंकड़ों को डोरे से बाँध कर टहनियों में लटका देते हैं। इस अधूरे बाग से उन्हें तृप्ति नहीं मिलती। फलतः कुछ देर बाद उस बाग को बिगाड़-बिगूड़ कर चले जाते हैं। कितने ही जवान और वृद्ध पुरुष भी उसी प्रकार की बाल क्रीड़ाएं अपने क्षेत्र में किया करते हैं किसी काम को बड़े उत्साह से आरम्भ करते हैं, इस उत्साह की- अति ‘उतावली’ बन जाती है। कार्य आरम्भ हुए देर नहीं होती कि यह देखने लगते हैं कि सफलता में अभी कितनी देर है। जरा भी प्रतीक्षा उन्हें सहन नहीं होती। जब उन्हें थोड़े ही समय में रंगीन कल्पनाएं पूरी होती नहीं दिखतीं तो निराश होकर उसे छोड़ बैठते हैं। अनेकों कार्यों को आरम्भ करना और उन्हें बिगाड़ना-ऐसी ही बाल-क्रीड़ाएं वे जीवन भर करते रहते हैं। छोटे बच्चे अपनी आकांक्षा और इच्छा पूर्ति के बीच में किसी कठिनाई, दूरी या देरी की कल्पना नहीं कर पाते, इन बाल-क्रीडा करने वाले अधीर पुरुषों की भी मनोभूमि ऐसी ही होती है। यदि हथेली पर सरसों न जमी तो खेल बिगाड़ते हुए उन्हें कुछ देर नहीं लगती।

प्राचीन समय में जब शिष्य विद्याध्ययन के लिए जब गुरु के पास जाता था तो उसे पहले अपने धैर्य की परीक्षा देनी होती थी। गौएं चरानी पड़ती थीं, लकड़ियाँ चुननी पड़ती थीं, उपनिषदों में इस प्रकार की अनेकों कथाएं हैं। इन्द्र को भी लम्बी अवधि तक इसी प्रकार तपस्या पूर्ण प्रतीक्षा करनी पड़ी थी, जब वह अपने धैर्य की परीक्षा दे चुका, तब उसे आवश्यक विद्या प्राप्त हुई। प्राचीन काल में विज्ञ पुरुष जानते थे कि धैर्यवान् पुरुष ही किसी कार्य में सफलता प्राप्त कर सकते हैं, इसलिये धैर्यवान् स्वभाव वाले छात्रों को ही विद्याध्ययन कराते थे। क्योंकि उनके पढ़ाने का परिश्रम भी अधिकारी छात्रों द्वारा ही सफल हो सकता था। चंचल चित्त वाले, अधीर स्वभाव के मनुष्य का पढ़ना न पढ़ना बराबर है। अक्षर ज्ञान हो जाने या अमुक कक्षा का सार्टीफिकेट ले लेने से कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। प्रमाण प्रत्यक्ष है। आज लाखों करोड़ों ‘पढ़े गधे’ इधर से उधर घूरे के तिनके चरकर लदते मरते रहते हैं। कोई कहने लायक पुरुषार्थ उनसे नहीं हो पाता।

आतुरता एवं उतावली का स्वभाव जीवन को असफल बनाने वाला एक भयंकर खतरा है। कर्म का परिपाक होने में समय लगता है। रुई को कपड़े के रूप तक पहुँचने के लिए कई कड़ी मंजिले पार करनी होती हैं और कठोर व्यभिधानों से होकर गुजरना पड़ता है, जो संक्राँति काल के मध्यवर्ती कार्यक्रम को धैर्यपूर्वक पूरा होने देने की जो प्रतीक्षा नहीं कर सकता, उसे रुई को कपड़े के रूप में देखने की आशा न करनी चाहिए। किया हुआ परिश्रम एक विशिष्ट प्रक्रिया के द्वारा फल बनता है। इसमें देर भी लगती है और कठिनाई भी आती है। कभी-कभी परिस्थितिवश यह देरी और कठिनाई आवश्यकता से अधिक भी हो सकती है। उसे पार करने के लिए समय और श्रम लगाना पड़ता है। कभी-कभी तो कई बार का प्रयत्न भी सफलता तक नहीं ले पहुँचाता, तब अनेक बार अधिक समय तक अविचल धैर्य के साथ जुटे रहकर अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त करना होता है। आतुर मनुष्य इतनी दृढ़ता नहीं रखते, जरा सी कठिनाई या देरी से वे घबरा जाते हैं और मैदान छोड़कर भाग निकलते हैं। यही भगोड़ापन उनकी पराजयों का इतिहास बनता जाता है।

चित्त का एक काम पर न जमना, संशय और संकल्पों-विकल्पों में पड़े रहना एक प्रकार का मानसिक रोग है। यदि काम पूरा न हो पाया तो? यदि कोई आकस्मिक आपत्ति आ गई तो? यदि फल उलटा निकला तो? इस प्रकार की दुविधापूर्ण आशंकाएं मन को डाँवाडोल बनाये रहती हैं। पूरा आकर्षण और विश्वास न रहने के कारण मन उचटा-उचटा सा रहता है। जो काम हाथ में लिया हुआ है, उस पर निष्ठा नहीं होती। इसलिये आधे मन से वह किया जाता है। आधा मन दूसरे नये काम की खोज में लगा रहता है। इस डाँवाडोल स्थिति में एक भी काम पूरा नहीं हो पाता। हाथ के काम में सफलता नहीं मिलती। बल्कि उल्टी भूल होती जाती है, ठोकर पर ठोकर लगती जाती है। दूसरी ओर आधे मन से जो नया काम तलाश किया जाता है, उसके हानि-लाभों को भी पूरी तरह नहीं विचारा जा सकता। अधूरी कल्पना के आधार पर नया काम वास्तविक रूप में नहीं वरन् आलंकारिक रूप में दिखाई पड़ता है। पहले काम को छोड़कर नया पकड़ लेने पर भी उस नये काम की भी वहीं गति होती है, जो पुराने की थी। कुछ समय बाद उसे भी छोड़कर नया ग्रहण करना पड़ता है। इस प्रकार ‘काम शुरू करना और उसे अधूरा छोड़ना’ इस कार्यक्रम की बराबर पुनरावृत्ति होती रहती है और अन्त में मनुष्य अपने असफल जीवन पर पश्चाताप करता हुआ, इस दुनिया से कूँच कर जाता है।


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