अहिंसा

May 1946

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योग के आठ अंगों में पहला अंग ‘यम’ है। अहिंसा, सत्य, असत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, यह पाँच यम कहे जाते हैं। इन पंक्तियों में प्रतिमास एक-एक करके पाँचों की विवेचना करेंगे। नीचे की पंक्तियों में अहिंसा पर प्रकाश डाल रहे हैं।

साधारण रीति से ‘दुख न देने’ को अहिंसा कहते हैं। ‘हिंसा’ का अर्थ है मारना, सताना, दुख देना। ‘अ’ का अर्थ हैं ‘रहित’। इस प्रकार अहिंसा का अर्थ हुआ, न मारना, न सताना, दुख न देना। ऐसे कार्य जिनके द्वारा किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचता हो हिंसा कहलाते हैं। इसलिए उनका करना अहिंसा व्रत पालन करने वाले के लिए त्याज्य है। महात्मा गान्धी के मतानुसार-कुविचार मात्र हिंसा है, उतावलापन हिंसा है, मिथ्या भाषण हिंसा है, द्वेष हिंसा है, किसी का बुरा चाहना हिंसा है, जिसकी दुनिया को जरूरत है उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है इसके अतिरिक्त किसी को मारना, कटु वचन बोलना, दिल दुखाना, कष्ट देना तो हिंसा है ही। इन सब से बचना अहिंसा पालन कहा जायगा।

सामान्य प्रकार से उपरोक्त पंक्तियों में अहिंसा का विवेचन हो गया पर यह अधूरा और असमाधान कारक है। कोई व्यक्ति लोगों के संपर्क से बिल्कुल दूर रहे और बैठे-बैठे भोजन वस्त्र की पूरी सुविधाएं प्राप्त करता रहे तो शायद किसी हद तक ऐसी अहिंसा का पालन कर सके, पूर्ण रीति से तो तब भी नहीं कर सकता क्योंकि साँस लेने में अनेक जीव मरेंगे पानी पीने में सूक्ष्म जल जन्तुओं की हत्या होगी, पैर रखने में, लेटने में कुछ न कुछ जीव कुचलेंगे, शरीर और वस्त्र शुद्ध रखने में जुएं आदि मरेंगे, पेट में कभी-कभी कृमि पड़ जाते हैं मल त्यागने पर उनकी मृत्यु हो जायगी। स्थूल हिंसा से कुछ हद तक बच जाने पर भी उस एकान्त सेवी से पूरी अहिंसा का पालन नहीं हो सकता। तब क्या किया जाय? क्या आत्म हत्या कर लें? या योग मार्ग की पहली ही सीढ़ी पर चढ़ना असंभव समझ कर निराश हो बैठें?

केवल शब्दार्थ से अहिंसा का भाव नहीं ढूँढ़ा जा सकता, इसके लिए योगिराज कृष्ण द्वारा अर्जुन को दी हुई व्यवहारिक शिक्षा का आश्रय लेना पड़ेगा। अर्जुन देखता है कि युद्ध में इतनी अपार सेना की हत्या होगी, इतने मनुष्य मारे जाएंगे, यह हिंसा है इससे मुझे भारी पातक लगेगा, वह धनुष बाण रखकर रथ के पिछले भाग में जा बैठता है और कहता है कि-हे अच्युत! मैं थोड़े से राज्य लोभ के लिए इतना बड़ा पाप न करूंगा, इस युद्ध में मैं प्रवृत्त न होऊँगा। भगवान कृष्ण ने अर्जुन की इस शंका का समाधान करते हुए गीता के अठारह अध्यायों में योग का उपदेश दिया, उन्होंने अनेक तर्क, प्रमाण, सिद्धान्त और दृष्टिकोणों से उसे यह भली प्रकार समझा दिया कि कष्ट न देने मात्र को अहिंसा नहीं कहते दुष्टों को, दुराचारियों, अन्यायी, अत्याचारियों को, पापी और पाजियो को मार डालना भी अहिंसा है। जिस हिंसा से अहिंसा का जन्म होता, जिस लड़ाई से शान्ति की स्थापना होती, जिस पाप से पुण्य का उद्भव होता है उस में कुछ अनुचित या अधर्म नहीं है।

कृष्ण ने अर्जुन से कहा इस मोटी बुद्धि को छोड़ और सूक्ष्म दृष्टि से विचार कर, अहिंसा की प्रतिष्ठा इसलिए नहीं है कि उससे किसी जीव का कष्ट कम होता है, कष्ट होना न होना कोई विशेष महत्व की बात नहीं है क्योंकि शरीरों का तो नित्य ही नाश होता है और आत्मा अमर है, इसलिए मारने न मारने में हिंसा अहिंसा नहीं है। अहिंसा का तात्पर्य है ‘द्वेष रहित होना’। निजी राग द्वेष से प्रेरित होकर संसार के हित-अनहित का विचार किये बिना जो कार्य किये जाते हैं वे हिंसा पूर्ण हैं। यदि लोक कल्याण के लिए, धर्म की वृद्धि के लिए किसी को मारना पड़े या हिंसा करनी पड़े तो उसमें दोष नहीं है। अर्जुन ने भगवान के वचनों का भली प्रकार मनन किया और जब उसकी समझ में अहिंसा का वास्तविक तात्पर्य आ गया तो महाभारत में जुट पड़ा। अठारह अक्षौहिणी सेना का संहार हुआ तो भी अर्जुन को कुछ पाप न लगा।

एक आप्त वचन है कि-”वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति” अर्थात् विवेक पूर्वक की हुई हिंसा, हिंसा नहीं हैं। जिह्वा की चाटुकरता के लोभ में निरपराध और उपयोगी पशु-पक्षियों का माँस खाने के लिए उनकी गरदन पर छुरी चलाना पातक है, अपने अनुचित स्वार्थ की साधना के लिए निर्दोष व्यक्तियों को दुख देना हिंसा है। किन्तु निस्वार्थ भाव से लोक कल्याण के लिए तथा उसी प्राणी के उपकार के लिए यदि उसे कष्ट दिया जाय तो वह हिंसा नहीं वरन् अहिंसा हो होगी। डॉक्टर निस्वार्थ भाव से रोगी की वास्तविक सेवा के लिए फोड़े को चीरता है एक न्याय मूर्ति जज समाज की व्यवस्था कायम रखने के लिए डाकू को फाँसी की सजा का हुक्म देता है, एक धर्म प्रचारक अपने जिज्ञासु साधक को आत्म कल्याण के लिए तपस्या के कष्टकर मार्ग में प्रवृत्त करता है। मोटी दृष्टि में देखा जाय तो यह सब हिंसा जैसा प्रतीत होता है पर असल में यह सच्ची अहिंसा है। गुण्डे बदमाशों को क्षमा कर देने वाला, हरामखोरों को दान देने वाला, दुष्टता को सहन करने वाला देखने में अहिंसक सा प्रतीत होता है पर असल में वह घोर पातकी, हिंसक हत्यारा है क्योंकि बुज़दिली और हीनता को अहिंसा की टट्टी में छिपाता हुआ, अप्रत्यक्ष रुप से पाजीपन की मदद करता है, एक प्रकार से अनजाने में दुष्टता की जहरीली बेल को सींचकर दुनिया के लिए प्राण घातक फल उत्पन्न करने में सहायक बनता है, ऐसी अहिंसा को जड़ बुद्धि अज्ञानी ही अहिंसा कह सकते हैं।

पातंजलि योग दर्शन के पाद 2 सूत्र 35 में कहा गया है कि-”अहिंसा प्रतिष्ठायाँ तत्सन्निधौ बैर त्यागः” अर्थात् अहिंसा की साधना से उस योगी के निकट- मन में-बैर भाव निकल जाता है। बैर भाव, द्वेष, प्रतिशोध की दृष्टि से किसी के चित्त को दुखाना, या शरीर को कष्ट देना सर्वथा अनुचित है, इस हिंसा से सावधानी के साथ बचना चाहिए। अहिंसक का अर्थ है प्रेम का पुजारी, दुर्भावना से रहित। सद्भावना और विवेक बुद्धि से यदि किसी को कष्ट देना आवश्यक जान पड़े तो अहिंसा की मर्यादा के अंतर्गत उसकी गुंजाइश है। अहिंसक को बैर भाव छोड़ना होता है, क्रोध पर काबू करना होता है, निजी हानि लाभ की अपेक्षा कुछ ऊँचा उठना पड़ता है, उदार निष्पक्ष, और न्याय मूर्ति बनना पड़ता है, तब उस दृष्टिकोण से जो भी निर्णय किया जाय वह अहिंसा ही होगी। परमार्थ के लिए की हुई हिंसा को किसी भी प्रकार अहिंसा से कम नहीं ठहराया जा सकता।

महात्मा गान्धी का कथन है कि-”अहिंसा से हम जगत को मित्र बनाना सीखते हैं, ईश्वर की- सत्य की-महिमा अधिकाधिक जान पड़ती है संकट सहते हुए भी शान्ति और सुख में वृद्धि होती है हमारा साहस-हिम्मत बढ़ती है। हम कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का विचार करना सीखते हैं। अभिमान दूर होता है, नम्रता बढ़ती है परिग्रह सहज ही कम होता है और देह के अन्दर भरा हुआ मल रोज कम होता जाता है।” अहिंसा कायरों का नहीं, वीरों का धर्म है। वैर त्यागकर, प्रेम भावना को आत्मीयता को प्रमुख स्थान देते हुए बुराई का मुकाबला करना अहिंसा है। बहादुरी, निर्भीकता, स्पष्टता, सत्यनिष्ठा, इस हद तक बढ़ा लेना कि तीर तलवार उसके आगे तुच्छ जान पड़े अहिंसा की साधना है। शरीर की नश्वरता को समझते हुए उसके न रहने का अवसर आने पर विचलित न होना अहिंसा है। अहिंसक की दृष्टि दूसरों को सुख देने की होती है, अधर्म और अज्ञान को हटाने से ही दुख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति हो सकती है। अहिंसा का पुजारी अपने और दूसरे के अधर्म और अज्ञान को हटाने का अविचल भाव से प्रबलतम प्रयत्न करता है जिससे सच्चा और स्थायी सुख प्राप्त हो, इस महान कार्य के लिए यदि अपने को या दूसरे को कुछ कष्ट सहना पड़े तो उसे उचित समझकर अहिंसक उसके लिए सदा तैयार ही रहता है।


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