अग्निहोत्र और शिवलिंग

May 1946

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परमात्मा भले बुरे सभी रूप में व्याप्त है, परन्तु पूजा के लिए उपयोगी तत्वों को ही ग्रहण किया गया है। पूजन, यज्ञ, अनुष्ठान में उपयोगी और उत्तम तत्व ही प्रयुक्त होते हैं। यद्यपि अनुपयोगी निकृष्ट और घृणित पदार्थ भी परमात्मा की वैसी ही कृति हैं जैसे के उत्तम पदार्थ। इसी प्रकार महत्वपूर्ण, सुन्दर उपयोगी पदार्थों में ही परमात्मा की झाँकी की जाती है यद्यपि हानिकर और असुन्दर पदार्थों में भी परमात्मा मौजूद है।

इस उपयोगिता बाद के अनुसार ऋषियों ने सबसे प्रथम ईश्वर को अग्नि रूप में देखा। आरंभिक युग में जब मनुष्य ने अग्नि को खोज निकाला तो यह आविष्कार उस समय असाधारण था। इसके अद्भुत शक्तिशाली, दिव्य शक्ति अग्नि को ईश्वर का प्रतिनिधि मान कर उसकी पूजा की गई।

आदि वेद, ऋग्वेद में प्रारंभिक मंत्र अग्नि की प्रार्थना में हैं।

“अग्नि मीले पुरोहितं यज्ञम्य देवमृत्विजम।”

“अग्ने नय सुपथारायेऽस्मान्॥”

प्रेम तेजस्वी एवं जीवन की अत्यंत उपयोगी अग्नि को विश्व के कोने-कोने में ईश्वरीय भाव के साथ देखा गया। आदि यहूदी-ईसराईली, चीनी, पारसी, रोमन ईसाई, यूनानी आदि के प्राचीन ग्रन्थों में अग्नि की प्रार्थना और पूजा के विषय में पर्याप्त साहित्य उपलब्ध होता है। हजरत मूसा को तूर पर्वत पर परमात्मा के दर्शन अग्नि के रूप में हुए थे। यूनान तथा रोम के मंदिरों में अग्नि को निरन्तर प्रज्वलित रखा जाता था, उसे कभी बुझने न देते थे। पारसियों में तो अब भी अग्नि मन्दिर, आतिशकदे, धार्मिक भावना के साथ उसी प्रकार प्रतिष्ठित होते हैं जैसे कि ईसाइयों में गिरजे।

अग्नि की प्रज्वलित ज्योति को अखण्ड रूप से जलती रखने का आर्यों का धार्मिक कृत्य था। इसी अग्नि में नित्य पंच यज्ञ होते थे। इस अखण्ड अग्नि को गार्हस्पति अग्नि कह जाता था, जन्म से लेकर अन्त्येष्टि तक हर एक संस्कार इसी अग्नि द्वारा होता था। अब तक मृतक का दाह करने के लिए घर से ही अग्नि ले जाने की प्रथा उस गार्हरपति अग्रि की महत्ता का स्मरण दिलाती है। संन्यासी लोग धूनी की अग्नि को बुझने न देना एक धार्मिक कृत्य मानते हैं।

इस अखण्ड अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए अग्नि कुण्ड के ऊपर एक तिपाई पर घृत से भरा हुआ घड़ा-घृत कुँभ-रख दिया जाता है। घड़े के पेंदे में एक छोटा छेद होता था जिसमें होकर थोड़ा-थोड़ा घी चुचाता रहता था और उसके कारण अग्नि की लौ जलती रहती थी। घड़ा इतना ऊँचा रखा जाता था कि घी अग्नि तक पहुँचने में सौ बूँदों की लड़ी बन जाती थी।

-पूर्णं नारि प्रभर कुँभमेतं घृतस्य धाराममृतेन संभृताम्।

अथर्व. 3-12-8

-एता अर्पन्ति शलब्रजाः ..................घृतस्य धाराः।

-एते अर्पन्त्युर्मयो घृतस्य मृगाइव।

-घृतस्य धाराः भिन्दन्नूर्मिभिः पिन्वमानः।

-अभि प्रवन्त समनवे योषा .......अग्निं घृतस्य धाराः।

ऋग् वे. 4-58-5, 8

इन श्रुतियों से अखण्ड अग्नि ज्योति प्रज्वलित रखने का उपरोक्त विधान भली प्रकार सिद्ध हो जाता है। मन्दिरों की ज्योति के स्वरूप वाले शिखर, शिर के ऊपर शिखा उसी ज्योति पूजा के चिन्ह हैं। किसी बड़े पर्व पर अग्नि पूजन के लिए अनेक धार्मिक व्यक्ति अपनी अग्नि ज्योतियों तथा कुँभों को ले लेकर एकत्रित होते थे। उसे कुँभ पर्व कहते थे। अब भी प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन आदि में कुँभ और कुँभी के मेले होते हैं। यद्यपि अग्नि पूजन के घृत कुँभ अब उन पर्वों पर नहीं पहुँचते तो भी कुँभ या कुँभी नाम का होना एक ऐतिहासिक तथ्य की स्मृति दिलाता है।

समय परिवर्तनशील है। अग्नि पूजन का वह विधान सुलभ न रहा। घृत की न्यूनता तथा अन्य कारणों से यह सब अधिक दिन तक चल न सका। तब चिह्न पूजा चलाना उचित प्रतीत हुआ। अग्नि ज्योति के स्थान पर पत्थर की ज्योति शिखा स्थापित की गई। घृत कुँभ के स्थान पर जल कुँभ रखे जाने लगे। अग्नि कुण्ड के स्थान पर जल हरी बनाई गई। शैव काल के शिव भक्तों ने इस अग्नि पूजन के चिह्नविशेष को अपने धर्म चिह्नों में सम्मिलित कर लिया अग्नि का स्थान रुद्र ने ग्रहण कर लिया।

- रुद्रमग्निं उमा स्वाहाम् प्रदेशेषु महावलम्।

महाभारत बन. 228-5

- रुद्रमग्निं द्विजा प्राहुः।

-रुद्रास्य वन्हेः स्वाहायाः षणाँस्त्रीणाँच भारत।

महा. बन. 229-27-31

अग्नि का रुद्र रूप में परिवर्तन हुआ। तृतीय नेत्र खुलने से अग्निकाण्ड होकर कामदेव का जल जाना, ताण्डव नृत्य से भयंकर अग्नि उत्पन्न होकर प्रलय होना। शंकर का संहारक देव होना। आदि गाथाएं रुद्र का अग्नि से संबंध बताती हैं। इस दृष्टि से वर्तमान शिव पूजन वैदिक अग्निहोत्रों का रूपांतर प्रतीत होता है। प्रधान शिव मन्दिरों को ‘ज्योतिर्लिंगम्’ कहा जाना भी इसी की परिपुष्टि करता है।


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