मन, बुद्धि, चित्त अहंकार का स्वरूप

May 1946

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए. डी. लिट्)

हमारे मन के चमत्कार-

मन मानव जीवन की सूक्ष्मतम शक्तियों का स्थूल स्वरूप, अतंप्रकाश का ज्योर्तिमय पिंड, मस्तिष्क का जाज्वल्यमान नक्षत्र है। यदि शरीर रथ है, नेत्र, कर्ण, नासिका, जिह्वा और त्वचा- ये पाँच अश्व जुड़े हैं, बुद्धि लगाम है, तो हमारा मन सामर्थ्यवान सारथी है। इस सुदिव्य रथ पर आरुढ़ हो आत्मा अज्ञान रूपी घोर शत्रु को पराजित कर अपने यथार्थ पर आसीत होता है। उपर्युक्त रथ के अश्व अत्यन्त द्रुतगामी हैं। उन्हें व्यवस्थित रखने के लिए बुद्धि को दृढ़ रखना आवश्यक है। इस बुद्धि का व्यवस्थापक मन है। मन एक महा प्रचण्ड शक्ति वाला डाइनमो (Dynamo) समझिये। यह विपुल सामर्थ्यों का वृहत भण्डार है और नियमों को उत्पन्न करने वाला यन्त्र है। सुख, दुख की प्रतीति, चिंता, हास्य का संचार, संकल्पों एवं आत्म बल का उदय अस्त इसी यन्त्र से सम्पन्न होता है। इसी के प्रताप से बुद्धि ज्ञान संचय करती है एवं प्रेरणा (Inspiration) की ज्योति उद्भूत होती है। धारणा, बुद्धि एवं चित्त इन तीनों की समष्टि का प्रतीक मन है। अज्ञान रूपी शत्रु साम्राज्य के विघटन के लिए इसका नियमन प्रधान सम्मान है। यह अजर अमर ज्योतिः स्वरूप सतत् व्यापार शील तथा नवीन अनुभवों का प्रेमी है। इसकी सामर्थ्य महोदधि सी अगाध एवं व्योम सी निःसीम है।

पाश्चात्य मनोविज्ञान वेत्ताओं ने मन के तीन भाग किये हैं-भावना (Felling), बुद्धि (Thinking) और चित्त (Willing) हमारे आर्य शास्त्रकारों ने अन्तःकरण को चार भागों में विभक्त किया है-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मनस्त्व इन्द्रियों द्वारा उद्भूत रूप-रस-गन्ध-स्पर्श तथा शब्दमयी ज्ञान सामग्रियों की गतिविधि तथा हेयत्व और उपादेयत्व की विवेचना करना है। संसार का कोई पदार्थ ऐसा वेगवान नहीं है।

तुम मन की क्रियाओं का निरीक्षण कर सकते हो। वह कैसा उछल कूद मचाता है, कहाँ-कहाँ भागता है मालूम कर सकते हो। जो मन की नाना प्रकार की क्रियाओं का निरीक्षण करने वाला है, वह मन से कोई पृथक सत्ता है। यह हमारी चेतना (Consciousnes) है। चेतना ही मन की दृष्टा है। चेतना ही शरीर, इन्द्रिय, मन, तथा बुद्धि की इष्टा है। चेतना तो केवल निरीक्षण करती है। वह मन के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर पाती। मन स्वयं जड़ है, इसका विकास क्रमिक और वातावरण सापेक्ष है। भोजन, वस्त्र, स्थान तथा साहचर्य का इस पर अमिट प्रभाव पड़ता है। दृश्य, स्पृश्य, भोज्य पेय श्राव्य तथा सूँघने योग्य वस्तुओं में प्रवृत्त होने वाली इन्द्रियों को यदि अधिकार योग्यता और स्थिति के विपरीत लक्ष्यों में प्रवृत्त न होने दिया जाय। जो वस्तु, व्यक्ति, अथवा तत्व जैसा है, उसके विपरीत उसमें कल्पना के लिए इन्द्रिय परवश मन को अवसर यदि न दिया जाय तो मन मनुष्य को ईश्वर बना सकता है।

मन की प्रवर्त्तक सत्ता उसके गर्भ भाग में स्थित है। वह उसी प्रवर्त्तक सत्ता की प्रेरणा एवं आधार पर विविध व्यापार करता है। यह अगम्य सत्ता अमृत कुँड नामक स्थल में निवास करती है। यह महासत्ता हमारी आत्मा है। आत्मा ही मन की चालक सत्ता है। वह इसे गति (Motion) प्रदान करती है। मन का प्राण आत्मतत्व ही है। यह आत्मा ही देखने सुनने वाला, छूने वाला, विचार करने वाला, जानने वाला, क्रिया करने वाला विज्ञान युक्त है।

किसी भी अनुभूत विषय की मन में आवृत्ति होने लगती है। आवृत्ति के कारण बुद्धि पर उसका संस्कार संचित हो जाता है। संस्कार के दृढ़ हो जाने पर वह वस्तु अथवा अनुभूत व्यापार उद्भावक सामग्री प्रस्तुत होने पर स्मृति पट पर व्यक्त होने लगता है और क्रमश, मनुष्य के बाह्य जीवन में उसका अवतरण होने लगता है। मन मानस से भी अधिक निर्मल, सूर्य सादीप्त और वायु से भी अधिक गतिशील है। यह मन ही मनुष्य के मोक्ष और बन्धन दोनों का साधन है। बाह्य अवयवों की समता होने पर भी मनुष्य असाधारण मन के कारण ही असामान्य बन जाता है। मन की प्रायः अवस्था तीन प्रकार की होती है। पहली अन्धकारमय अवस्था जिसमें मन की स्थिति जड़ निष्क्रिय जैसी बन जाती है। यह अन्धकारमय स्थिति है। तमोगुण के कारण हम इस अवस्था को प्राप्त होते हैं। ऐसे व्यक्ति उत्तम विचार करना नहीं जानते। मन की दूसरी अवस्था राजसिक अवस्था है। ऐसा व्यक्ति दौड़ धूप करता है और अपना प्रभुत्व दूसरों पर जमाता है। बलवान बनने की महत्वाकाँक्षा उसके मन में आरुढ़ रहती है। मन की तीसरी अवस्था अत्यन्त उज्ज्वल एवं पवित्र है। यह सर्वोच्च भूमिका शनैः शनैः अभ्यास से प्राप्त होती है। इसे तुरीयावस्था कहते हैं। धीरे-धीरे मन के दृष्टा बनने से तुरीयावस्था में प्रवेश होता है। इसी अभ्यास से हम राजयोग की सर्वोच्च समाधि प्राप्त करते हैं।

मन की तीन भूमियाँ -पूर्तीय शास्त्रकारों के अनुसार मन की तीन भूमियाँ होती हैं -स्मृति, जागृति तथा धृति। स्मृति भूमि में मानव लोक के ज्ञान तथा अनुभव की खोज की वह दुर्लभ मंजूषा रहती है, जिसे जागृत मन ने अतीत काल में प्राप्त किया था। “जागृति” में मन ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा केवल हृदय जगत से सन्नद्ध रहता है। धृति में पाँच ज्ञानेन्द्रियों के उपयोग के बिना ही सहानुभूति पद्धति से मन में विचार जानने की शक्ति के इतने अधिक उदाहरण उपस्थित हुए हैं कि संसार को मन के इस प्राकृतिक वेग का पूर्ण विश्वास हो गया है। यह निःसन्देह सिद्ध हो चुका है कि मन में पंच ज्ञानेन्द्रियों को साधन सामग्री के बिना स्वतंत्र रूप से अपने चहुँ ओर जो नाना प्रकार की क्रियाएं सम्पन्न करता है, उसे जान लेने की शक्ति है।

धृतिवस्था मन अथवा ध्यानस्थ आत्मा मनुष्याकार के तुल्य सत्य है, तो भी उसका कोई वजन या तोल नहीं है तथा न वह दृश्य, स्पृश्य अथवा विभाज्य पदार्थ के समान ही है। सूक्ष्म दर्शक यंत्र में वह दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। गंभीर विचार तथा विशुद्ध विवेक भी उसके मूल को, स्वभाव को तथा उसके अन्त को ढूंढ़ने में असमर्थ है, तथापि वह मानव के मन में स्थित है एवं अत्यन्त प्रकाशवान है।

शरीर में नाना विकारों का प्रवेश होता है, विचार के तूफान, भ्रान्ति के बवंडर भीमा कार होकर प्रविष्ट होते हैं, आशा निराशा, संकल्प, इच्छा के झंझावात हृदय में आन्दोलित होकर ठहरते, चाहते, उद्वेग उत्पन्न करते तथा अन्ततः चिर शान्ति में विलीन होते हैं किन्तु इस दृष्यमान जगत के नित नए-नए परिवर्तित होते हुए दृश्यों में श्रेष्ठ हमारे भीतर एक अवर्णनीय सत्ता है-जो शाश्वत है, सत्य है एवं मन के चमत्कृत प्रदेशों में निज रहस्यमय प्रकाश विकीर्ण करता है। धृतिस्थ मन के माध्यम द्वारा मनुष्य का अनन्त शक्ति से जागृत सम्बन्ध हो जाता है, जिससे सम्पूर्ण स्वाभाविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यथेष्ट बल खींचा जा सकता है। केवल मन में बुराई से इन्कार करना यथेष्ट नहीं है। इसी प्रकार केवल मन में भलाई को स्वीकार करना ही यथेष्ट नहीं है, निरन्तर उसको समझने और प्रवृत्ति में लाने का उद्योग करना चाहिये।


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