उपार्जन की मर्यादा

May 1946

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हम देखते हैं कि आज मनुष्य को धन की अत्याधिक तृष्णा बुरी तरह बेचैन किए हुए है। सदा उसे धन की चिन्ता लगी रहती है और उसी के लिए वह सोचता, विचारता, योजनाएं बनाता तथा काम करता है। शरीर की अनिवार्य स्वभाविक क्रियाओं को छोड़ कर शेष समय का समस्त उपयोगी भाग प्रायः धनोपार्जन की प्रवृत्तियों में लगा रहता है। उसी योजना चक्र में प्रायः सारा जीवन समाप्त हो जाता है।

यह दूसरी बात है कि इतना प्रयत्न करते हुए भी कितने व्यक्ति धनवान बन पाते हैं और कितने ज्यों के त्यों रह जाते हैं, मुश्किल से निर्वाह हो पाता है और पूँजी के नाम पूरी झाँझ भी जमा नहीं हो पाती, कुछ व्यक्ति थोड़ा पैसा जमा भी कर लेते हैं और कई व्यक्ति किसी प्रकार कुछ अधिक बड़े धनवान बन जाते हैं। जिन्हें धन प्राप्त हो जाता है उन्हें शान-शौकत, ऐश-आराम के साधन प्राप्त हो जाते हैं। जो धनी नहीं हो पाते वे उनसे भी वंचित ही रह जाते हैं। जो धनी हैं वे दूर से देखने में सुखी और सम्पन्न दिखाई पढ़ते हैं पर निकट से देखने पर उन की भी शारीरिक एवं मानसिक दशा शोचनीय ही दृष्टिगोचर होती है। धन की अधिकता किसी को सुख शान्ति प्रदान नहीं कर सकती और न उन आनन्द उल्लासों को प्राप्त कर सकती हैं जिन्हें प्राप्त करने से जीवन सार्थक समझा जाता है।

यह ठीक है कि जीवन निर्वाह के लिए धन की आवश्यकता है। निश्चय ही इतना पैसा मनुष्य के पास होना चाहिए जिससे वह अपने अतिथियों का ठीक रीति से सत्कार कर सके, परिवार का भली प्रकार भरण पोषण कर सके, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा विवाह आदि की व्यवस्था हो सके। बीमारी मुकदमा, अकाल, आकस्मिक दुर्घटनाओं से बचाव किया जा सके तथा मान मर्यादा की रक्षा एवं दान पुण्य की उमंग के समय मन मसोस कर न रहना पड़े। यदि मनुष्य अपनी शारीरिक और मानसिक योग्यताओं को शिक्षा काल में समुचित रीति से विकसित कर ले तो इतना द्रव्य उपार्जन करने में साधारणतः कुछ कठिनाई नहीं होती।

साधारणतः जीवन निर्वाह का काम साधारण की उपार्जन शक्ति न्यून है वे अपने खर्चों को घटा कर काम चला सकते हैं। जीवन की जिन आवश्यकताओं के लिए पैसे की आवश्यकता है वे आवश्यकतायें एकाँगी हैं। केवल उन्हें ही पूर्ण करने के लिये सारी शक्तियों का खर्च कर डालना जीवन के वास्तविक आनन्द से वंचित होना है। मानव तत्व के अनेक पहलू ऐसे हैं जिनमें पैसे का कुछ विशेष महत्व नहीं है। अमीर गरीब बिना भेद भाव के उनका आनन्द उपलब्ध कर सकते हैं।

गरीब लोग भी अच्छा स्वास्थ्य रख सकते हैं। गायन, वाद्य तथा ललित कलाओं का रसास्वादन कर सकते हैं, मनोविनोद के प्राकृतिक साधन सभी को समान रूप से उपलब्ध हैं, परिवार में प्रेम, एकता, सेवा, सहयोग होने पर जो सुख मिलता है। उसमें अमीरी गरीबी का कोई प्रश्न नहीं। स्वाध्याय सत्संग, प्रवचन आदि का आनन्द अपने ढंग का अनूठा है। सच्चे मित्रों की मैत्री, दंपत्ति का हार्दिक एकीकरण, परिजनों की सद्भावनाएं भूतल के स्वर्ग सुख हैं। हृदय की पवित्रता, निष्कपटता, सेवाभाव, धर्म, साहस, सद्-विवेक, प्रसन्नता, सत्यनिष्ठा, त्याग, तप, मधुर भाषण, उदारता, सद्भावना आदि दैवी सम्पतियों के कारण जो आत्म शान्ति, प्रतिष्ठा, कीर्ति एवं श्रद्धा प्राप्ति होती है उसका सुख अपने ढंग का अनोखा है। समान श्रेणी के मित्रों के सहचर्या में कार्य करते हुये समय बिताते हुए जो आनन्द मिलता है उसकी मिठास भी बड़ी ही स्वादिष्ट होती है। किसी का उपकार करने के पश्चात, प्रलोभन और भयों पर विजय प्राप्त करके अपने कठोर कर्त्तव्य पालन करने के पश्चात, जो आनन्द आता है जो सन्तोष होता है उसका महत्व वे ही लोग समझ सकते हैं जिन्हें उस दिव्य रस का आस्वादन करने का अवसर तथा अनुभव प्राप्त हुआ।

इस प्रकार जीवन के अनेक पहलू अनेक प्रकार के आनन्दों से परिपूर्ण हैं। इन सभी दशाओं में हमारी शक्तियाँ और प्रकृतियाँ लगनी चाहिये। जैसे शरीर के सभी अंग स्वस्थ एवं पुष्ट रहते हैं तो मनुष्य सुडौल सुन्दर आकर्षक दीखता है यदि उसका एक अंग काफी पुष्ट हो जरूरत से ज्यादा मोटा हो और अन्य अंग दुर्बल हो रहे हों तो आदमी कुरूप दिखाई देगा। किसी आदमी की नाक तो लोटे की बराबर हो और अन्य सब अंग दुर्बल हो रहे हों तो वह उपहासास्पद होगा। इसी प्रकार जिसने धन तो काफी जमा कर लिया है पर जीवन के अनेकानेक आनन्दों से वंचित है वह सुखी नहीं कहा जा सकता। उसकी यह उन्नति उपहासास्पद, जीवन को कुरूप बनाने वाली है।

धन कमाना भी आवश्यक है पर यह स्मरण रखना चाहिये कि धन कमाना ही आवश्यक नहीं है। जीवन अनेक मुखी है, उसका सभी दिशाओं में विकास होना चाहिये। जो व्यक्ति दिन-रात धन उपार्जन के लिए ही सोचते, विचारते, काम करते एवं मरते जीते हैं वे भारी भूल में हैं। उन्हें पता नहीं कि इस कमाई की धुन में कितनी महत्वपूर्ण चीजें गँवाई जा रही हैं। आज पैसे की महिमा को जो इतना ऊँचा स्थान दिया जा रहा है यह जीवन कला के सिद्धान्तों से विपरीत है। इस मार्ग पर चलने वाले, दिन रात पैसे की चिन्ता में घुलने वाले व्यक्ति एक निरर्थक अशाँति का बोझ सिर पर लादते हैं। आवश्यकता से अधिक जमा हुआ पैसा आनन्द नहीं देता वरन् नाना प्रकार के अनिष्ट खतरे, पाप एवं कुविचारों को उत्पन्न करता है अध्यात्म मार्ग के पथिकों को मध्यम श्रेणी का सद्गृहस्थ बनने का लक्ष्य सामने रख कर धन उपार्जन करने का प्रयत्न करना चाहिए। यह लक्ष्य आसानी से पूरा भी हो जाता है। अमर्यादित धनी बनने की लालसा कभी पूरी होने वाली नहीं है क्योंकि सम्पत्ति वृद्धि के साथ-साथ वह तृष्णा भी बढ़ती जाती है। फिर यह बात भी है कि ईमानदारी के साथ कोई व्यक्ति बहुत बड़ा धनी आसानी से हो भी नहीं सकता। धन लालसा से अन्धे होकर अनर्थ करने वाले व्यक्ति ही अधिकाँश में धनी पाये जाते हैं।

सुख शान्ति का सन्तुष्ट जीवन जीने की इच्छा करने वाले पाठको! जीवन की चतुर्मुखी उन्नति करो उन रसों का भी आस्वादन करो जो अमीर गरीब सभी के लिये समान रूप से इस सृष्टि में मौजूद हैं। अपनी शक्तियाँ और प्रवृत्तियों को उनको ओर भी लगाओ पैसे की अति लोलुपता तृष्णा और चिन्ता कम करो। अर्थोपार्जन के लिए मर्यादित शक्तियाँ व्यय करो, सीमित समय लगाओ। बचा हुआ समय उन कामों में लगाओ जो आन्तरिक उल्लास को प्रोत्साहन देते हैं जो लोक और परलोक को आशा मय, उज्ज्वल एवं सुख शाँति से परिपूर्ण बनाते हैं।


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