विवाहित जीवन सुखमय कैसे बनता है?

May 1946

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(लेखक-एन्ड्री मौटिस)

जिस प्रकार जिस उद्यान का माली उसका ध्यान नहीं रखता वहाँ बहुत सी घास फूस उग आती है, उसी प्रकार जब पति पत्नि दाम्पत्य प्रेम की ध्यान पूर्वक रक्षा नहीं करते, तो वह शीघ्र ही कटु भावों से परिपूर्ण हो जाता है। प्रत्येक बात आलस्य, नीरसता, रोग, पर पुरुष या पर स्त्री की चाह इसे हानि पहुँचाने की धमकी देने लगती है। दाम्पत्य जीवन का पथ कंटक पूर्ण हो जाता है।

इस भयानक स्थिति से बचने के लिए मुझे केवल दो ही इलाज प्रतीत होते हैं सर्वप्रथम तो वह है जो गृहस्थ जीवन का सच्चा सार है- अर्थात् यह प्रतिज्ञा कि “हम कभी एक दूसरे का परित्याग नहीं करेंगे, हम अपने सुख और संयोग की, अपने प्रेम और स्नेह की रक्षा करेंगे, हम गिरी हुई प्रत्येक दीवार को, उसके प्रत्येक भाग की निरन्तर प्रयत्न और भक्ति से मरम्मत करेंगे।”

दूसरा इलाज है- पूर्ण अनन्यभाव। जहाँ हल्का और अस्थिर प्रेम हो वहाँ भेद रखना शायद उचित हो परन्तु विवाहित जोड़े का तो आपस में पूरा-पूरा विश्वास और प्रतीति होना परमावश्यक है। जो दो प्राणी एक दूसरे को आत्म-समर्पण करते हैं, कपट भाव उनका कुछ भी बिगाड़ने न पावे। केवल इस प्रकार ही वह प्रशंसनीय अनुराग संभव हो सकता है। जिस का समझना उन लोगों के लिए कठिन है जो अपने अनुभव से इस प्रेम और मित्रता के, विषय वासना और सम्मान के, आसक्ति और प्रशंसा के विचित्र मिश्रण को मानव और दिव्य के विस्ममोत्पादक संभोग को, जिसका नाम सच्चा विवाह है, नहीं जानते।


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