स्त्री और पुरुष

May 1946

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(ले.- डा. विश्वामित्र वर्मा मानस चिकित्सक)

संसार बनाकर उसका संचालन करने के लिये स्रष्टा ने मनुष्य को बनाया। परन्तु मनुष्य बना देने के पश्चात् जब स्त्री बनाने का विचार किया तो मालूम हुआ कि संसार और मनुष्य के बनाने में ही उसकी सब सामग्री, मसाला, साधन खत्म हो गया, स्त्री कैसे बनावें? स्रष्टा तो स्रष्टा ही है, उसने सोचा, अब और चीजें कहाँ से लावे जिससे स्त्री बने? अस्तु संसार की ही बनी हुई सामग्री में से उसने थोड़े-थोड़े अंश नोंच लिए और स्त्री को बनाया। बहुत गंभीर विचार और आविष्कार के पश्चात् ही उसने ऐसा किया। सृष्टि करना खिलवाड़ नहीं है।

उसने चन्द्रमा में से कुछ अंश लेकर सौंदर्य, आकर्षण, शीतलता का समावेश स्त्री में किया। तारों की जगमगाहट का कुछ अंश लेकर उसने स्त्री की मुस्कान दृष्टि तथा चाल में जुगनू के गुण डाल दिये। लताओं में से कोमलता तथा प्रस्तार सौंदर्य लेकर स्त्री में डाली जिससे उसके शरीर में लचीलापन आया।

लौकी, ककड़ी, काशीफल आदि जैसे फल वाली लताओं में स्थान-स्थान पर एक छोटी सी नरम ऐसी शाखा अंकुरित होती है जो अन्य सहयोगी वृक्ष की टहनियों पत्तों डालियाँ को पकड़ कर उसमें अच्छी तरह लिपट जाती है इस प्रकार अपनी लता से ऊपर चढ़ कर बढ़ने में मदद करती है, स्रष्टा ने वह अंकुरित शाखा भी स्त्री में डाली है जिससे वह मनुष्यों को जैसे अपने चंगुल में फंसा लेती है। स्रष्टा ने घास जैसी काँपने वाली, फूलों के समान खिलने वाली, पत्तों जैसी हल्की, हाथी की सूंड़ जैसी सुडौल और लचीली, हिरन, जैसी दृष्टि वाली, मधुमक्खियों के समान आपस में मिलकर मेले जैसा दृश्य बनाने वाली, जाड़े में सूर्य किरणों जैसी सुहानी और आनन्द दायक, बरसते हुए बादलों के समान आँसू बहाने वाली, वायु के झोंके के समान सब दिशाओं में चलने वाली, अनिश्चित मार्गी, खरगोश के समान डरपोक, मयूर के समान हाव भाव करने वाली, तोते के समान नम्र हृदय वाली, अभेद्य धातु जैसी कठोर चरित्र वाली, मधु जैसी मिठास वाणी वाली, व्याघ्र के समान निर्दयी स्वभाव वाली, अग्नि के समान उपयोगी तथा विनाशकारी, हिम के समान शाँतिदायी, चिड़ियों जैसी व्यर्थ बकवाद, चें-चें करने वाली, कोयल सी गाने वाली, बगुले के समान भक्ति करने वाली तथा चकई के समान श्रद्धालु संगिनी-बनायी। अर्थात् संसार के उपरोक्त वस्तुओं एवं प्राणियों में से अमुक अमुक गुण लेकर स्रष्टा ने सब का सम्मिश्रण करके स्त्री की रचना कर उसको मनुष्य के हाथ सौंप दिया।

मनुष्य स्त्री को पाकर प्रसन्न हुआ-चला गया। परन्तु पन्द्रह दिन बाद वह वापस आया और कहने लगा, हे रहस्यमय सृष्टि कर्ता, तूने संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य और रहस्य का प्रदर्शन किया है। ले तू यह स्त्री, जो तूने मुझे दी थी। मुझे नहीं चाहिये। उसके साथ रहते मुझमें उत्तेजना होती है, मुझे वह चिड़ाती है, तंग करती है, मुझे थका देती है, सब कुछ करती है, वह क्या करती है, क्या नहीं करती है। मैं उससे तंग आ गया हूँ, उसके साथ मैं नहीं रह सकता।

स्रष्टा ने औरत वापस ले ली। आदमी चला गया। परन्तु दो सप्ताह पश्चात् मनुष्य वापस आया और स्रष्टा से कहा, जो स्त्री आपने बनायी है और मुझे पुन दे दीजिये, मैं उसके बिना नहीं रह सकता।

स्रष्टा ने कहा, ऐ तुम तो औरत वापिस कर गये थे, कहा था कि मैं इसके साथ नहीं निभा सकता और आज वापस लेने आये, बात क्या है?

मनुष्य ने कहा मैं स्वयं नहीं जानता, क्या बताऊं, मेरा अजीब हाल है। न तो मैं उसके साथ रह सकता हूँ, न उसके बिना रह सकता हूँ।

स्रष्टा ने कहा, ठीक है, औरत ले जाओ। तुम दोनों खूब मिल-जुलकर अच्छी तरह साथ रह कर जीवन निभाओ, क्योंकि मैंने तुम्हारे लिए उसको तथा उसके लिये तुम्हें बनाया है। तुम दोनों हमेशा साथ रहो, तभी पूर्णता है। अलग रहोगे तो अपूर्ण निष्क्रिय, असफल रहोगे।

मनुष्य स्त्री को लेकर चला गया और दोनों साथ रहने लगे। तब से अब तक दुनिया में इतने लोग इतनी भीड़-भाड़ हो गई।


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