वासना की तृप्ति का तात्पर्य

May 1946

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(प्रोफेसर रामचरण महेन्द्र एम.ए.डी.लिट्)

मनोविज्ञान के अध्ययन द्वारा हमें मनुष्य की स्वयंभू वृत्तियों (Instincts) तथा अनेक वासनाओं का ज्ञान होता है। मनोविज्ञान मनुष्यों को एक उन्नत पशु के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। वह हमें बताता है कि कितनी भावनाएँ अतृप्त इच्छाएँ भावना ग्रन्थियों के रूप में अचेतन मन में पड़ी रहती हैं। जिस व्यक्ति के मानसिक संस्थान में ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, वासना, मद, मत्सर, छिद्रान्वेषण, से संश्लिष्ट मानसिक गाठें जितनी ही अधिक संख्या में प्रस्तुत रहती हैं, उसी अनुपात में इस मनुष्य का हृदय कलुषित कहा जायगा। ऐसा व्यक्ति जिस कार्य में हाथ डालता है सदा संशयापन्न रहता है, हृदय में पाप का डर लगा रहता है। अतएव, वह उस कार्य को छोड़ कर पुनः नवीन कार्य आरंभ करता है। उसमें भी पूरी तरह लग नहीं पाता। वह अपने निश्चय पर दृढ़ नहीं रह पाता।

जहाँ मनोविज्ञान हमें मनुष्य के अन्तस्थल के अनेक विकार स्पष्ट करता है, अन्तर्द्वन्द्व के रहस्य समझाता है। वासना का ताँडव, इच्छा का घात-प्रतिघात, इन्द्रिय भोग का परिणाम बताता है, वहाँ साथ ही वह वासना के रूपांतर के उच्च स्तर (॥द्बद्दद्धद्गह् ष्द्धड्डठ्ठठ्ठद्गद्यह्य) भी स्पष्ट करता है। मनुष्य पशु है। अतः उसमें पशुत्व की वासनाएँ होना अवश्यम्भावी है। इस मनुष्य रूपी पशु ने बहुत उन्नति की है, पशुत्व से देवत्व की ओर चला है किन्तु फिर भी उसमें पशुत्व का कुछ अंश शेष है। मनोविज्ञान यह नहीं चाहता कि आप वासना की तृप्ति के लिए पशु मय जीवन व्यतीत कीजिए, अथवा “भोगवाद” को ही जीवन का प्रधान लक्ष्य बना लीजिए। वह तो कहता है कि वासना को संयत कर उसे प्रकाशित होने के उच्चतर देवोपम मार्ग दीजिए। इन्द्रियों को निम्न क्षेत्रों से उठा कर ऊँचे मार्ग दीजिए। पशुत्व की श्रेणी से उठिये और वृत्तियों को पवित्रता से प्रकाशित कीजिए।

वासना को पशु की तरह प्रकट करना समाज, देश, राष्ट्र, विश्व तक के लिए हानिकर है। यदि सब के सब मनुष्य वासना की पशु वाली तृप्ति करने निकलें, तो कदाचित् सभ्यता का वही प्रारम्भिक काल फिर से आ जाय, जिससे हम उन्नति की ओर बढ़े थे। “वासना” तो सृजनात्मक शक्ति (ष्टह्द्गड्डह्लद्बक्द्ग द्गठ्ठद्गह्द्दब्) है। इस शक्ति का उपयोग आप उच्च या निम्न, किसी भी भाँति कर सकते हैं। आपके पास शुद्ध घृत है। उसे रेत में मिलाकर रेत को चिकना कर लीजिए। यह उस शक्ति का बुरा प्रयोग होगा। उसी से मिष्ठान्न इत्यादि उत्तम वस्तुएं भी बना सकते हैं। वासना की शक्ति का जो दुष्प्रयोग करते हैं या उसे “भोगवाद” का पर्याय मानते हैं वे भारी भूल करते हैं।

मनुष्य पशुओं का सम्राट् है। वह सम्राट कैसे बना? उसने इन्द्रिय निग्रह, संयम, इन्द्रिय दमन, सदाचार द्वारा अपनी शक्ति को व्यर्थ व्यय हो जाने से रोका। अन्य निम्न कोटि के पशुओं की बहुत सी शक्ति निरर्थक भोगवाद में खर्च हो गई। फलतः वे यों ही रह गए। मनुष्य ने वासना को कलाओं-संगीत, चित्रकारी, कविता, खुदाई, नक्काशी, विज्ञान, ज्ञान की प्राप्ति में व्यय किया। निम्न मार्गों से बचा कर उच्च भूमिका में लगाया। आज उस इन्द्रिय निग्रह, सदाचार एवं संयम के चमत्कार विश्व में हम आश्चर्य भरी आँखों से देख रहे हैं।

मनोविज्ञान कहता है- हे मनुष्य, तू पशुओं का राजा अपनी वासनाओं के रूपांतर से बना है। निरन्तर नीचे से ऊपर की ओर बढ़ और हानिकारक क्षेत्रों से बचा कर वासना रूपी शक्ति को उच्च कलाओं में व्यय करे। ब्रह्मचर्य, इन्द्रिय निग्रह, संयम सदाचार-ये ऐसी रीतियाँ तेरे पास हैं, जिनकी सहायता से तू अपरिमित शक्तियों का संयम कर सकता है। ये विधियाँ तुझे रंक से राजा बना सकती हैं। ये तुझे शक्तियाँ संचय का दिव्य संदेश देती हैं।

वासना की निम्न प्रकार की तृप्ति में पशुओं की तरह जुटा रहने वाला कलुषित मन आत्मा को यन्त्रणा देने वाला घोर नर्क है। ऐसा व्यक्ति अपनी पशुत्व की श्रेणी (Stage) में ही पड़ा हुआ है जब कि उसके आत्म संयमी भ्राता गण बहुत दूर निकल गए हैं।

पाप, विकार तथा आत्मघात की इच्छा उसी मनुष्य के मन में उठती है, जिसके मन में दूसरे के विनाश करने की इच्छा आई है। मनोविज्ञान हमें बतलाता है कि दूसरे को मारने की प्रवृत्ति तथा अपने आपको मारने की इच्छा का मूल एक ही है। यह मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त उस आध्यात्मवाद का समर्थन करता है जिसमें बताया गया है कि निज कल्याण दूसरों के कल्याण में ही निहित है। झूठ बोलने, दूसरों का गला काटने या अत्याचार कर वासना तृप्ति से कोई मनुष्य सभ्य नहीं बन सकता। स्वार्थपरता, ईर्ष्या एवं द्वेष के कारण ही अन्तर्द्वन्द्व चलते हैं और मनुष्य दूसरे की निंदा करता है।

वासना को उच्च मार्गों में प्रकाशित होने का अवसर देकर ही हम आत्मोन्नति कर सकते हैं। सर्व प्रथम सदाचार संयम, इन्द्रिय निग्रह से वासना को निम्न मार्गों से रोकिये, व्यर्थ अपनी शक्ति का अपव्यय न कीजिए, फिर उस संग्रहीत शक्ति को दूसरों के हित, समाज सेवा, ललित कलाओं की प्राप्ति में, ज्ञान विज्ञान के संचय में, व्यय कीजिए। आपके हृदय में दूसरों के प्रति जो अभद्र विचार आते हैं, उन्हें विश्व प्रेम, भ्रातृभाव की विपरीत भावनाओं से सुसंस्कृत कीजिए। जो सदाचार के मार्ग में लग कर दूसरों के हित चिंतन में मग्न रहता है, उसके अन्तर प्रवेश में उपरोक्त प्रकार की-ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध आदि की जटिल ग्रन्थियाँ उत्पन्न ही नहीं होती। भगवान श्रीकृष्ण का प्रवचन है-

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।

नहि कल्याण कृत्कश्चिद्दुर्गति तात गच्छति॥

कल्याण मार्ग में जाने वाले की कभी दुर्गति नहीं होती। अतः वासना की तृप्ति का वास्तविक अर्थ है उसे उच्च आत्म कल्याण के मार्ग में खोल देना, शुभ चिंतन, शुभ कार्यों में व्यय करना, नीचे से ऊपर की ओर उठना, पशुत्व से देवत्व प्राप्त करना। वासनाओं की तृप्ति का अर्थ है उनका शोध आत्मविद्या द्वारा ही संभव है।


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