(योगिराज श्री उमेशचन्द्र जी)
प्राणायाम करने की जगह सर्दीली या भीगी नहीं होना चाहिये, हवा का झपटा शरीर को अधिक जोर से न लगे तथा बिल्कुल हवा न लगे ऐसा स्थान नहीं होना चाहिये अर्थात् मध्यम हवा भान होना चाहिये, गरमी के दिनों में अभ्यास करते समय शरीर पर जितने कपड़े कम हों उतना ही अच्छा, और जाड़े के दिनों में सर्दी शरीर को न लगे मात्र इतने कुरते कपड़े रखना चाहिये। जिसके फेफड़े अत्यंत कमजोर हों उन्हें प्राणायाम अत्यंत आहिस्ते से करना चाहिये, जिससे फेफड़ा, हृदय, अवयवों के साधें पेट वगैरह को आराम के साथ फायदा मालूम हो, प्राणायाम करते समय अपने शरीर को सीधा और स्थिर रखना चाहिए अभ्यास की जगह अगरबत्ती, धूप, चंदनादि सुगंधी पदार्थ का धूप करना चाहिये, जिससे मनोभावना पवित्र रहे और शुभ विचारों का प्रवाह चालू रहे, अभ्यास करने के स्थान (कमरे) में अधिक स्त्री पुरुष नहीं होने चाहिये, अनुकूल विचार वाले यदि रहे तो हर्ज नहीं प्रतिकूल विचार वालों को वहाँ खड़े भी नहीं रहने देना चाहिये, कारण इससे किसी समय ग्लानि पैदा होने की संभावना रहती है जमीन पर चटाई गलीचा व ऊन का कंबल आदि बिछाना चाहिये।
सूर्यभेदन प्राणायाम
पद्मासन सिद्धासन या सुखासन से बैठना बाँये हाथ के अँगूठे के बीच की लकीर पर तर्जनी अंगुली रखना, बाकी की तीनों अंगुलियाँ सीधी रखना और हाथ को बाँये घुटने पर रखना, गर्दन बरडा कमर सम रेखा में समान रहना चाहिये दाहिने हाथ की कनिष्ठता तथा अनामिका अंगुलियों द्वारा बाँयी नासिका को दबाकर दाहिनी नासिका से श्वांस फेफड़े में भरना, भरे हुये श्वांस को रोक रखने के बाद बाँई नासिका से श्वांस धीरे-धीरे निकाल डालना। इसी प्रकार दाहिनी नासिका से श्वाँस भर कर बाँई से निकाले उसे एक सूर्यभेदन कहते हैं। परन्तु खास ध्यान रखने की बात है कि हर प्राणायाम के वक्त तीन उड्डियान, जालंधर और मूलबन्ध रेचक, पूरक, कुम्भक और मात्रा सहित करने में आवे तब ही शास्त्रोक्त पद्धति प्रमाण प्राणायाम किया कहलाता है ऐसा करने से अनहद लाभ मिलता है।
मूलबंध यानी गुदाद्वार (मलद्वार) को संकोचन करना, उड्डियान बंध याने पेट को अन्दर ले जाना, जलंधर बंध याने डाढ़ी को कंठ कूप में लगाना।
तीन बंध कब करना
प्राणायाम के आरंभ से अन्त तक मूलबंध कायम रखना कुँभक (श्वाँस फेफड़े में रोके रखना) करते समय जालंधर बन्ध और रेचक करते समय (श्वाँस बाहर निकालते समय) उड्डियान बन्ध करना।
भस्त्रिका प्राणायाम (नं. 1 ला)
पद्मासन, स्वस्तिकासन अथवा सिद्धासन में बैठना दाहिने हाथ में अंगूठे से दाहिनी नासिका को दबा कर बायीं नासिका से दस वक्त श्वास फेफड़े में भरना और छोड़ना ग्यारहवीं वक्त श्वाँस फेफड़े में भरकर यथाशक्ति कुँभक करने के बाद दाहिनी नासिका द्वारा धीरे-धीरे श्वाँस बाहर निकाल देना और फौरन ही दाहिनी नासिका से दस वक्त श्वाँस भरना और छोड़ना, दाहिनी नासिका से श्वाँस लेते समय बायीं नासिका को अनामिका तथा कनिष्ठिका अंगुलियों से दबा रखना दस बार घर्षण होने के बाद दाहिनी नासिका से श्वांस भर लेना और यथा शक्ति कुँभक करने के बाद बायीं नासिका से श्वांस आहिस्ते-आहिस्ते निकाल देना इस तरह दोनों नासिका से एक के बाद दूसरी से दस वक्त घर्षण दो वक्त अन्तर कुँभक करने में आवे तब एक भस्त्रिका प्राणायाम (नं 1 ला) से पूर्ण हुआ कहलाता हैं घर्षण करते समय नासिका से साधारण आवाज आनी चाहिये।
पूर्ण पद्मासन
पद्मासन में बैठ कर दाहिने हाथ को पीठ के पीछे से लाकर दाहिने पैर के अंगूठे को पकड़ना और बायें हाथ को पीठ के पीछे से लाकर बायें पाँव के अंगूठे को पकड़ना कदाचित पाँव मोटा होने के कारण अंगूठे न पकड़ लेना उसके बाद श्वास फेफड़े में भर कर सिर जमीन पर टिकाना श्वाँस रोक सको वहाँ तक सिर जमीन को अड़ा कर रखना और फिर पूर्व असल स्वरूप में ले आने के बाद धीरे-धीरे श्वांस बाहर निकाल देना इस तरह एक वक्त करने में आवे तब एक पूर्ण पद्मासन से पूर्ण होता है।
भस्त्रिका प्राणायाम (नं 2 रा)
पद्मासन या सुखासन में बैठ कर दाहिने हाथ के अंगूठे से दाहिनी नासिका को दबा रखना बायीं नासिका से श्वाँस फेफड़े में भरना और फौरन अनामिका और कनिष्ठिका अंगुली से बायीं नासिका को दबा कर दाहिनी नासिका से श्वाँस फेफड़े में से निकाल देना इस तरह श्वास दस वक्त लेना और छोड़ना (एक वक्त लेकर छोड़ने में आवे तब एक घर्षण हुआ ऐसा समझे) ग्यारहवीं वक्त बायीं नासिका से श्वाँस लेकर यथा शक्ति कुँभक करके दाहिनी नासिका से धीरे-धीरे श्वांस बाहर निकाल देना बायीं नासिका से रेचक करना चाहिये इस प्रकार इस वक्त करने के बाद शीघ्र ही दाहिनी नासिका से पूरक करके यथाशक्ति कुँभक करने के बाद बायीं नासिका से शनैः शनैः रेचक करना चाहिये तब 1 भस्त्रिका प्राणायाम नं 2 रा संपूर्ण हुआ कहलाता है।
इन प्राणायामों को नित्य करने से फेफड़े मजबूत होते हैं। हृदय को बल मिलता है। दिल की धड़कन, श्वांस, क्षयी आदि दुष्ट रोगों से इन प्राणायामों को करने वाला बचा रहता है और उसमें साहस, संयम, उत्साह आदि हृदय से संबंध रखने वाले गुणों की वृद्धि होती रहती है।