यज्ञ द्वारा रोगों की चिकित्सा

June 1946

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तत्वों में वायु बहुत सूक्ष्म है। पृथ्वी, जल अग्नि की अपेक्षा वायु की सूक्ष्मता अधिक है इसलिये उसका गुण और प्रभाव भी अधिक है अन्न और जल के बिना कुछ समय मनुष्य जीवित रह सकता है पर वायु के बिना एक क्षण भर भी काम नहीं चल सकता। शरीर में अन्य तत्वों के विकार उतने खतरनाक नहीं होते जितने कि वायु के विकार। जिस स्थान पर वायु विकृत होगी वही अंग तीव्र वेदना का अनुभव करेगा और अपनी समस्त शक्ति खो बैठेगा। वायु प्राण है इसलिये प्राणवायु पर जीवन की निर्भरता मानी जाती है। साँस रुक जाय या पेट फूल जाय तो मृत्यु को कुछ देर नहीं लगती। लोग वायु सेवन के लिये जरूरी काम छोड़ कर समय निकालते हैं। जहाँ की हवा खराब हो जाती है वहाँ नाना प्रकार की बीमारियाँ, महामारियाँ फैलती हैं इसलिये बुद्धिमान व्यक्ति वहाँ रहना पसन्द करते हैं जहाँ की वायु अच्छी हो। प्राणायाम करने वाले जानते हैं कि विधिपूर्वक वायु साधना करने से उन्हें कितना लाभ होता है। निस्सन्देह वायु का स्वास्थ्य से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है और वायु के प्रयोग द्वारा मनुष्य अपनी बिगड़ी हुई तन्दुरुस्ती को ठीक कर सकता है।

चिकित्सा जितनी स्थूल होती है उतना ही कम प्रभाव डालती है। चूर्ण चटनी, अवलेह आदि के रूप में ली हुई दवा पहले पेट में जाती है, वहाँ पचती है तब रक्त बनकर समस्त शरीर में फैलती और अपना असर दिखाती है। यदि पाचन न हुआ तो वह दवा मल मार्ग से निकल जाती है और अपना असर नहीं दिखाती। जितनी पाचन शक्ति ठीक नहीं होती उन्हें ‘पुष्ठाई के पाक’ कुछ भी फायदा नहीं करते क्योंकि वे दवायें बिना पचे मल द्वारा बाहर निकल जाती हैं। ऐसी दशा में पतली पानी के रूप में तैयार हुई दवाएं अधिक काम करती हैं क्योंकि स्थूल आहार की अपेक्षा जल जल्दी पच जाता है। इंजेक्शन द्वारा खून में मिलाई हुई दवाएं और भी जल्दी शरीर में फैल जाती हैं। हवा का नम्बर इससे भी ऊँचा है वायु द्वारा साँस के साथ शरीर में पहुँचाई हुई हवा बहुत जल्दी असर करती है। जुकाम जैसे रोगों में सूँघने की दवाएं दी जाती हैं। क्लोरोफार्म सुँघाने से जितनी जल्दी बेहोशी आती है उतनी जल्दी उसे खाने से नहीं आ सकती।

इन सब बातों को ध्यान रखते हुए भारतीय ऋषि मुनियों ने यज्ञ हवन की बड़ी ही सुन्दर वैज्ञानिक विधि का आविष्कार किया है। हवन में जलाई हुई औषधियाँ नष्ट नहीं होती वरन् सूक्ष्म रूप धारण करके अनेक गुनी प्रभावशालिनी हो जाती हैं और अनेकों को आरोग्य प्रदान करती हैं। लाल मिर्च के एक टुकड़े को जब आग में डाला जाता है तो वह सूक्ष्म होकर हवा में मिलकर चारों ओर फैलती है और दूर तक बैठे हुए लोगों को खाँसी आने लगती है। इससे प्रकट है कि जलने पर कोई वस्तु नष्ट नहीं होती वरन् सूक्ष्म होकर वायु में मिल जाती है और उस वायु के संपर्क में आने वालों पर उस वस्तु का असर पड़ता है। हवन के धार्मिक रूप को छोड़ दें तो भी अग्निहोत्र सम्बन्धी महत्ता स्वीकार करनी ही पड़ती है।

बाजार में कृमि नाशक फिनाइल की भाँति की एक अंग्रेजी दवा फार्मेलिन बिकती है। इससे बीमारियों के कीड़े नष्ट हो जाते हैं। यह दवा फार्मिक आलडी हाइड गैस से बनती है। फ्राँस के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉक्टर ट्रिले ने बताया है कि उपरोक्त गैस लकड़ियां जलाने या खाँड़ जलाने से उत्पन्न होती है। जो काम बहुत कीमत खर्च करने पर फार्मेलिन जैसी दवाओं से होता है वह कार्य अग्निहोत्र द्वारा अधिक उत्तमता से हो जाता है। दवा तो वहीं असर करती है जहाँ छिड़की जाती है पर अग्निहोत्र द्वारा तो वह कार्य वायु द्वारा बड़े पैमाने पर हो जाता है।

फ्राँसीसी वैज्ञानिक टिलवर्ट की शोध है कि शक्कर जलाने से जो गैस उत्पन्न होती है उससे हैजा, तपैदिक चेचक आदि रोगों का विष दूर होता है। डॉक्टर हेफकिन का परीक्षण है कि घी जलाने से उत्पन्न गैस चर्मरोग रक्त विकार, शुष्कता, दाह एवं अंत्र रोग उत्पन्न करने वाले विष कीटाणुओं को नष्ट करती है। डॉक्टर टाटलिंट ने दाख के धुँऐ को टाइफ़ाइड और निमोनिया ज्वर को मिटाने वाला बताया है।

सूर्य के द्वारा पृथ्वी पर जो गर्मी आती है उसे उपयुक्त मात्रा में कायम रखने के लिये कार्बनडाइआक्साइड गैस बड़ा महत्वपूर्ण कार्य करती है। यह गैस हवा में करीब 1/330 होती है। यदि यह परमाणु थोड़ा भी घट बढ़ जाता है तो उसका पृथ्वी के मौसम पर बड़ा असर पड़ता है। यदि यह परिमाण दूना हो जाय तो इतनी गर्मी बढ़ सकती है कि कहीं बर्फ के दर्शन भी न हों और यदि यह आधी रह जाय तो समस्त भूमण्डल बर्फ से ढ़क जावे।

उपरोक्त गैस जहाँ ज्यादा बनती है वहाँ आकाश में गर्मी ज्यादा बढ़ जाती है फलस्वरूप वर्षा भी अधिक होती है। ज्वालामुखी पहाड़ों से यह वायु निकली है इसलिये वहाँ वर्षा भी अधिक होती है और हरियाली छाई रहती है। फ्राँस के यूबरीन चश्मे से यह गैस निकलती है फलस्वरूप वहाँ वर्षा और वनस्पति की अधिकता रहती है। हवन द्वारा भी यही कार्बन डाई आक्साइड गैस उत्पन्न होती है। जहाँ हवन अधिक होते हैं वहाँ वर्षा और वनस्पति की अधिकता रहती है फलस्वरूप वहाँ की आवोहवा भी स्वास्थ्यकारक होती है। गीता में भी ऐसा ही संकेत किया गया है।

हवन जहाँ एक धार्मिक कृत्य है वहाँ वह मानसिक और शारीरिक-स्वस्थिता प्रदान करने वाला भी है। यज्ञ में लोक कल्याण के लिये समिष्टि आत्मा-परमात्मा की उपासना के लिए अपनी वस्तुओं का त्याग-समर्पण होम करने से परमार्थ, त्याग, उदारता एवं पवित्रता की मनोभावनाएं उत्पन्न होती हैं ऐसी भावनाओं का उदय होना अनेक प्रकार के मानसिक रोगों को निर्मूल करने के लिए सर्वश्रेष्ठ उपचार है। कार्बन डाई आक्साइड गैस बढ़ने से वर्षा की अधिकता द्वारा संसार की समृद्धि बढ़ती और आवो-हवा शुद्ध होती है। स्वस्थता प्रदान करने वाला और रोग नाशक औषधियाँ अग्नि की सहायता से सूक्ष्म रूप धारण करके शरीर में व्याप्त हो जाती हैं और निरोगता की स्थापना में बड़ा महत्वपूर्ण कार्य करती हैं। फेफड़े और मस्तिष्क के रोगों के लिये तो हवन द्वारा पहुँची हुई औषधि मिश्रित वायु बहुत ही हितकर सिद्ध होती है। होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति के आविष्कारक डाक्टर हनीमैन ने अपनी पुस्तक आर्गेनन आफ दी मेडीसन्स की 190 वीं धारा में औषधियों सूँघने की महत्ता को स्वीकार किया है। ऐलौपैथिक डाक्टर भी Kreosote और Eucalyptus Oil आदि का Inhalation बनाकर सुँघाते हैं। आयुर्वेद तो धूनी देने, धूम्रपान करने आदि के विधानों से भरा पड़ा है।

जिन स्थानों की आबोहवा स्वास्थ्य के लिए विशेष रूप से लाभदायक मानी जाती है वहाँ की हवा में ओजोन (zone) नामक एक गैस पाई जाती है यह एक प्रकार की तीव्र ऑक्सीजन है। यदि हवा में इसका पच्चीस लाखवाँ भाग हो तो भी वहाँ की वायु बहुत उपयोगी होती है। हवन द्वारा ओजोन गैस उचित मात्रा में प्राप्त होती है। इस प्रकार साधारण स्थानों में भी शिमला, नैनीताल जैसी शुद्ध हवा घर बैठे मिल जाती है।

सोने का एक टुकड़ा यों ही किसी को खिला दिया जाय तो कुछ लाभ न होगा। किन्तु उसी सोने को सूक्ष्म करके भस्म या वर्क बनाकर खिलाया जाय तो अधिक फायदा होगा। बादाम यों ही खाये जायें तो उतना लाभ न होगा पर यदि उन्हें पत्थर पर पानी में घिसकर खाया जाय तो अधिक लाभ हो। कारण यह है कि किसी वस्तु को जितना सूक्ष्म बना लिया जाता है उतनी ही वह लाभदायक हो जाती है। औषधियों के बारे में भी यही बात है, पीपल का एक टुकड़ा यों ही खा लें तो उसकी कुछ विशेष उपयोगिता नहीं परन्तु चौसठ प्रहर लगाकर घोटने के बाद जो “चौहठ पहरा पीपल” बनती है वह बहुत लाभप्रद सिद्ध होती है। सूक्ष्मता से शक्ति उत्पन्न होती है। होम्योपैथी में सूक्ष्मता के अनुपात से ही पाटेन्सी पढ़ती जाती है। यज्ञ द्वारा औषधियाँ सूक्ष्म होकर बहुत उपयोगी हो जाती हैं और तुरन्त लाभ दिखाती हैं। जो पोषक पदार्थ हवन में जलाये जाते हैं वे रोगी के शरीर में प्रवेश करके उसकी बलवृद्धि करते हैं। ग्लूकोज का एक छोटा इंजेक्शन एक सेर अंगूर खाने की अपेक्षा अधिक शक्तिवर्धक होता है। इसी प्रकार छटाँक भर घी खाने की अपेक्षा रोगी व्यक्ति उसके हवन द्वारा अधिक बल प्राप्त कर सकता है।

—क्रमशः


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