सात्विक कमाई का प्रभाव

June 1946

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(श्री पं. परमानन्द पाण्डेय शास्त्री, वैद्यरत्न)

एक सौ पाँच वर्ष का बूढ़ा एक बार किसी मरीज की सिफारिश करने मेरे पास आया। बूढ़े के मुख पर तेज था, सारे दाँत साबुत थे, बाल भी काले थे और रंगपट्ठो में बल सुरक्षित था। मैंने उससे पूछा—”बाबा! आप क्या खाते हैं? उन्होंने कहा—’दाल रोटी और वह भी रूखी सूखी ईमानदारी से कमाई हुई। मेरी धर्मपत्नी के प्रेम पूर्ण हाथों से बनाई हुई और बड़ी शान्ति और संयम से ग्रहण की गई। वैद्य जी! लोग समझते हैं कि बहुत बढ़िया भोजन खाने से शरीर में बल आता है परन्तु मेरा तो अनुभव यह है कि मनुष्य को कोई क्लेश न हो, चिन्ता न हो, ईमानदारी से वह मेहनत करता हो, शुद्ध उसकी भावना हो, तो वह चाहे चने चबाये, उसका शरीर लोहे का सा बन जायगा एक तो मेरी परिश्रम की सात्विक कमाई है, दूसरे मेरे स्वास्थ्य का श्रेय, मेरी धर्मपत्नी को है जिस समय मैं थका थकाया शाम को घर पहुँचता हूँ तो उनके प्रेमपूर्ण दर्शन से मैं इतना स्वस्थ हो जाता हूँ जितना अमृतपान करने वाला देवता। जिस समय जिस वस्तु की मुझे आवश्यकता होती है, उसका प्रबन्ध मेरे घर को स्वामिनी ने ऐसा किया होता है मानो वह मेरे हृदय में घुलकर प्रबन्ध करता हो। कभी आज तक मुझे अपनी आवश्यकता कठिन स्वर से नहीं कहनी पड़ी। बच्चों की देखभाल, घर का प्रबन्ध, मेरी सेवा, यह सभी जिस गृहलक्ष्मी के हाथों से होते हैं, उसे देखकर मैं इतने वर्षों से जी रहा हूँ—सुख से जी रहा हूँ और इतना तन्दुरुस्त होकर जी रहा हूँ कि मुझे आज तक किसी औषधि की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।”

सात्विक कमाई और दांपत्ति प्रेम से सचमुच मनुष्य दीर्घजीवी हो सकता है।


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