आत्मिक स्वतंत्रता

June 1946

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(श्री रामचन्द्रजी त्रिवेदी, उदयपुर)

आज सब ओर से राजनैतिक स्वतंत्रता की आवाज बुलन्द हो रही है। किन्तु हम देखते हैं कि बाह्य स्वतन्त्रता ही पर्याप्त नहीं है। स्वतन्त्रता का दावा करने वाले देशों को क्या हम पूरा पक्का स्वतन्त्र कह सकेंगे? आज तो दुनिया का कोई भी राष्ट्र सच्चे अर्थों में स्वतन्त्र नहीं कहा जा सकता। बालक पर प्रौढ़ की प्रभुता है, युवा गलत विचारों और गलत रास्ते ले जाने वाले नेताओं का गुलाम है, बुड्ढ़े अन्ध विश्वासों और दकियानूसी विचारों से जकड़ा हुआ है। हमारी आत्मा बंधन में है। हमारी बुद्धि विकार ग्रस्त है, हमारा हृदय तमसाच्छन्न है। हम आज अपने आप पर से विश्वास खो बैठे हैं और हरदम भयाक्रांत रहते हैं। चिन्ताऐं हमें घेरे हुए हैं और स्वार्थ हमें जकड़े हुए है। हम इन्द्रियों के क्रीतदास हैं। हम अपने आप पर काबू नहीं कर पाये हैं। हम आन्तरिक दृष्टि से गुलाम हैं और यह केवल हिन्दुस्तान की बात नहीं—स्वतंत्र कहे जाने वाले सभी देशों की बात है। इसलिये केवल स्वराज्य—बाह्य शासन से मुक्ति ही पर्याप्त नहीं है। बाह्य स्वतंत्रता तो, आन्तरिक स्वतंत्रता, आत्मिक स्वतंत्रता का प्रवेश द्वार है। जब तक पृथ्वी तल पर प्रत्येक व्यक्ति यह आन्तरिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक मानव का भविष्य रक्त से लोहित और अक्षु से सिंचित होता रहेगा। आन्तरिक स्वतन्त्रता से मतलब है—अपने आप पर काबू, शरीर और मन पर अपना शासन जब मनुष्य सम्पूर्ण सृष्टि को बदल सकता है तो वह अपने आपको भी बदल सकता है। गीता कहती है मनुष्य ईश्वर हो सकता है, वही ईश्वर है। जीवन को पराधीन और पंगु बनाने वाली सारी दुर्बलताओं पर विजय कर पा लेना-यही आत्मिक स्वतंत्रता है। यही हमारा ध्येय है।


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