कपाल भांति क्रिया

June 1946

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(योगिराज श्री उमेशचन्द जी)

भस्त्रावल्लोहकारस्य रेचपूरो ससम्भ्रमौ

कपालभाँतिर्विक्ष्याता कफदोषविशोषणी।

(हठ योग प्रदीपिका)

अर्थात् लोहकार की भस्त्रा (धौंकनी) के समान अत्यन्त शीघ्रता से क्रमशः रेचक पूरक श्वास प्रश्वास को शान्तिपूर्वक करना, योगशास्त्र में कफ दोष का नाश कहा गया है। वह क्रिया ‘कपालभाति’ नाम से विख्यात है।

अपूर्ण कपालभाति कर्म करने की विधि-

प्रथम पद्मासन अथवा स्वस्तिकासन में बैठ जाना चाहिये। बायें घुटने पर बाई हथेली और दाहिने घुटने पर दाहिनी हथेली रखें। पीठ की रीढ़, कमर और शिर सम रेखा में रहे। किंचित छाती को फूली हुई रखने के बाद दस बार दोनों नथुनों से श्वास लेवें और छोड़ें, चक्षु बन्द रखें। दस बार श्वास क्रिया करने के बाद दो से तीन मिनट तक स्वाभाविक श्वास लेवें और उस समय आरोग्य के विचारों को करें यह क्रिया अपूर्ण कपालभाति कर्म कहलाती है।

सम्पूर्ण कपालभाति कर्म करने की विधि-

उपर्युक्त अपूर्ण कपालभाति कर्म प्रतिदिन प्रातः काल तीन बार करने के चौथे दिन दस बार घर्षण (एक बार श्वास फेफड़े में भरना और झट बाहर निकालना उसका नाम घर्षण है) करें और ग्यारहवें समय प्राणवायु को यथेच्छ फेफड़े में भर कर दोनों नथुनों को दाहिने हाथ के अँगुष्ठ तर्जनी और मध्यमा से पकड़े। सरलतापूर्वक जितनी देर श्वास रोक सकने की इच्छा हो उतनी देर जालंधर बन्ध करें। और फिर दोनों नथुनों से शनैः-शनैः रेचक करें। तब एक पूर्ण कपालभाति कर्म कहलाता है। इस तरह आठ दिन तक तीन सम्पूर्ण कपालभाति कर्म करें। आठ दिन से पन्द्रह दिन तक पाँच कपालभाति कर्म करें। और पन्द्रह दिन से एक महीने तक आठ करें। एक महीने के बाद प्रतिदिन शक्ति के अनुसार आठ से बारह बार कर सकते हैं। रेचक करने के समय उड्डियान बन्ध और मूलबन्ध रखें।

यदि प्रारम्भ में इस कर्म का अधिक वेगपूर्वक घर्षण किया जावे तो किसी नाड़ी में आघात पहुँचना सम्भव है और शक्ति से अधिक प्रमाण में करें तो फेफड़ों में शिथिलता आ जायगी। यह कर्म मध्यम गति से होना चाहिये। गर्भवती स्त्रियाँ, फेफड़ों से क्षत पड़ा हो, वमन रोग, मन की भ्रमित अवस्था, हृदय की निर्बलता आदि रोग से ग्रस्त हुए स्त्री, पुरुष इस कर्म को न करें।


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