नेत्र-रक्षा के उपाय

June 1946

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(1) गैस, बिजली, लैम्प आदि की तेज रोशनी के सामने बहुत देर तक पढ़ने, लिखने में प्रायः पीड़ा, हृदय और नाड़ियों में दुर्बलता या रक्तविकार आदि उपद्रव उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिये तेज रोशनी में कभी नहीं लिखना पढ़ना चाहिये।

(2) लेटकर, सोते हुये या ओंगते हुये शरीर में अधिक उत्तेजना अथवा थकावट के होने पर लिखने पढ़ने का काम नहीं करना चाहिये।

(3) घोड़ा, रेल, मोटर, हवाई जहाज, पैर गाड़ी आदि बहुत तेज चलने वाली सवारियों में बैठकर और भोजन करने के बाद तत्काल पढ़ने लिखने से नेत्रों को बहुत हानि पहुँचती है इसलिए उक्त समय में लिखना पढ़ना बन्द रखना चाहिये।

(4) बहुत बारीक अक्षरों की छपी या लिखी हुई पुस्तक को बहुत देर तक नहीं पढ़ना चाहिये। ऐसी पुस्तक अधिक देर तक पढ़ने से नेत्रों में पीड़ा होती है, नेत्रों में पानी भर आता है, पढ़ते-2 कभी लाइन छूट जाती है या कभी और लाइनों पर अचानक दृष्टि जा पड़ती है और चकाचौंध लगने लगती है। बार-बार नाटक बायस्कोप आदि खेल तमाशों को देखने के लिये रात्रि में जागना ठीक नहीं है। यदि कदाचित नाटक, वायस्कोप आदि में जाना हो तो जहाँ तक हो स्टेज से दूर और तिरछा होकर बैठे, उसके बिल्कुल सामने कभी न बैठे।

(5) मैले कुचैले रुमाल या कपड़े से अथवा मैले हाथों से आँखों को कभी नहीं मलना चाहिये।

(6) पढ़ते समय किताब को बिल्कुल आँखों से लगाकर या बहुत दूर रखकर नहीं पढ़ना चाहिये। ऐसा करने से आँखों पर बहुत जोर पड़ता है। अतएव किताब साधारणतः आँखों से बीस अँगुल दूर रखनी चाहिये। इस तरह एकाग्रचित्त होकर आध घन्टे तक पढ़ने से भी नेत्रों में थकावट नहीं मालूम होती और न नेत्रों में जल ही आता है।

(7) पढ़ने अथवा लिखने के समय जड़ भरत के समान बिल्कुल जम कर न बैठे, बीच-बीच में थोड़ा-2 आराम लेकर लिखने पढ़ने का काम करें।

(8) तेज धूप में बैठकर लिखना पढ़ना नहीं चाहिये और पढ़ते समय सूर्य की किरणों अथवा लैंप की रोशनी आँखों के ऊपर नहीं पड़नी चाहिये।

(9) यदि दाहिनी आँख में कोई चीज गिर गई हो तो बाई आँख में कुछ गिर जाने पर दाहिनी आँख को धीरे-धीरे मलना चाहिये और पलक को उलट कर साफ कपड़े के द्वारा अँगुली से उस चीज को कोने की तरफ धीरे-धीरे सरकाकर होशियारी के साथ निकाल देना चाहिये।

(10) आँखों के दुखने पर या अन्य किसी प्रकार की पीड़ा होने पर किसी अनाड़ी चिकित्सक की अथवा पास पड़ोस के किसी आदमी की बताई हुई या विज्ञापन बाजों की “चक्षुरोगों की औषध” कभी भूल कर भी नहीं डालनी चाहिये। प्रत्येक मनुष्य को यह स्मरण रखना चाहिये कि हीरे आदि रत्नों की अपेक्षा नेत्र रत्न अधिक मूल्यवान है। इसलिये जिस किसी व्यक्ति के कहने से अनाप-शनाप कोई चीज आँखों में डालकर इस अमूल्य रत्न को नहीं खो बैठना चाहिए। अर्थात् बिना सोचे समझे या किसी सुयोग्य चिकित्सक की सम्मति के बिना कभी कोई औषधि आँखों में नहीं डालनी चाहिये।

चश्मा कब लगाना चाहिए

(1) जब तुम दिन में 20 हाथ दूर के आदमी को एक बार देखकर नहीं पहचान सकते हो अथवा ऊँची दीवारों पर या दुकानों पर लगे हुए साइन-बोर्डों को चलते हुए आसानी से नहीं पड़ सकते हो या जब प्रकाश के सामने बारम्बार आँखें जाती हों और चकाचौंध लगती हो तब चश्मा लगाना चाहिए।

(2) जब किसी वस्तु को 2-3 मिनट तक टकटकी बाँधकर देखने से आँखों में जल भर आता हो, नेत्र भारी हो जाते हों और शिथिल पड़ जाते हों तो चश्मा लगाना ठीक है।

(3) जब आँखों के भीतर या कोनों में मन्द-2 पीड़ा हो अथवा सिर में दर्द रहता हो और उसका कोई कारण विदित न होता हो-और अनेक प्रकार के सुगन्धित तेल, चन्दन, कपूर आदि देशी और अंग्रेजी औषधियों का व्यवहार करने पर भी कुछ लाभ न होता हो तो चश्मा लगाने की आवश्यकता है।

(4) स्कूलों या ऑफिसों में काम करते-2 जब कि आँखें थककर डगमगाने लगें और मलने पर भी मिची जाती हों तब उनको थोड़ी देर के लिए आराम देना चाहिये।

(5) जबकि खूब कड़ी धूप पड़ती हो, नेत्र उसको सहन नहीं कर सकते हो और माथे पर हाथ रखकर या कपड़ा डालकर चलना पड़ता हो तो चश्मा लगाने की जरूरत है।

(6) जब किसी समय पढ़ते-2 किताब के अक्षर बिल्कुल भ्रमात्मक मालूम हो अर्थात् सब लाइन लिपी हुई सी दीखें और लिखते समय अक्षर आपस में मिल जायें तब चश्मा लगाना लाभदायक है।

(7) आँखों में पर बल होने के कारण या स्वभाव से ही जो लोग हर वस्तु को बिल्कुल आँखों पर रखकर देखते हैं उनको अथवा जो बहुत बारीक सिलाई या पढ़ाई आदि का काम करते हैं और जिनको अधिक प्रकाश (बिजली आदि की रोशनी) में काम करना पड़ता है उनके लिये चश्मा लगाना हितकर है।

(8) जब आँखें किसी कारण से या बिना कारण ही लाल हो जायें, उनमें जलन हो, दर्द हो, पानी निकलता हो, धुँधला-2 दीखता हो, पलक और भौओं में कम्प हो और अंधेरा ही अच्छा मालूम होता हो तो चश्मा लगाना चाहिये।

उक्त कारणों में से यदि किसी स्त्री या पुरुष के कोई कारण विद्यमान हो तो उसको शीघ्र ही चश्मा लेने का प्रयत्न करना चाहिये। जैसे बिना कारण चश्मा लगाने से हानि होती है, वैसे ही कारणों के विद्यमान होने पर चश्मा न लगाने से भी नेत्रों को हानि होती है।

नेत्रों का स्वास्थ्य

नेत्रों की स्वस्थता पूर्णरूप से तभी रह सकती है जब कि शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा हो। इसलिए प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति को चाहिये कि सदैव पौष्टिक पदार्थों का भोजन करें, नियम से परिश्रम, विश्राम और शयन करें, संयतेन्द्रिय होकर रहें, मल-मूत्रादि वेग को न रोकें और उनके स्थानों को अच्छे प्रकार से साफ रक्खें। इन नियमों का पालन करने से नेत्र स्वस्थ रहते हैं नेत्रों में कोई विकार उत्पन्न होने पर शरीर में भी कोई न कोई गड़बड़ अवश्य हो जाती है, इसलिये नेत्रों को स्वस्थ रखने वाले मनुष्य को पहले शारीरिक स्वास्थ्य ठीक रखना चाहिये। शरीर के आरोग्य, दीर्घजीवी और कर्मण्य रहने पर नेत्रों का स्वास्थ्य भी सुरक्षित रह सकेगा। जैसे बिल्कुल पड़े रहने से व कभी विश्राम न करने से शरीर कुछ दिनों में ही अस्वस्थ हो जाता है, नेत्रों के सम्बन्ध में भी बिल्कुल यही बात जाननी चाहिए। नियमानुसार खान-पान, स्नान, काम काज, विश्राम आदि करने पर भी नेत्रों की विकृति दूर न हो तो योग्य चिकित्सा करानी चाहिये।

एक चौड़े मुँह वाली और कुछ गहरी बाल्टी, टप, नाँद या किसी बर्तन में ठण्डा पानी भरकर उसमें रोज सुबह के वक्त 20-50 बार नाक बन्द करके सारे मुँह को गोते लगावे और नेत्रों को खूब अच्छी तरह मलकर धोवें। इसको चक्षुस्नान कहते हैं। इसके सिवा नेत्रों में दुर्बलता और कोई सामान्य विकार हो तो एक बर्तन में पानी भरकर और सैधें नमक की दो चार कंकड़ी डालकर उस पानी से नेत्रों को धोवें। इसके अतिरिक्त गंगा, यमुना आदि नदियों में सिर से स्नान नेत्रों के स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा है।

नेत्रों को शीतल और स्वस्थ रखने के लिए भोजन के साथ गाय का घी या मक्खन बादाम का तेल अथवा आँवले का तेल आदि शीतल और स्निग्ध चीजें खानी चाहिए तथा नारियल, बादाम, आँवले, तिल तथा सरसों का तेल सिर पर और कनपटियों पर मलना चाहिये। इससे नेत्रों की ज्योति स्थिर रहती है, नेत्रों की और मस्तिष्क की थकावट दूर होती है।

प्रायः कोष्ठबद्धता, परिपाक शक्ति की हीनता और स्निग्ध आहार न मिलना इत्यादि कारणों से नेत्र रोग उत्पन्न होते हैं। ऐसी अवस्था में अन्त्रधौति क्रिया (Colanflu Shing) करने से बहुत लाभ होता है।

सिफलिस, गनोरिया आदि इन्द्रिय सम्बन्धी रोगों के कारण प्रायः (नेत्रों के पलकों में फुन्सियाँ निकल आती हैं, रोये पड़ जाते हैं, नेत्रों के पहले और दूसरे पर्दे में अथवा नेत्रों के डेलों में दाह होती है, फोड़े निकल आते हैं, नेत्रों की नाड़ी और पेशियों में शिथिलता, अन्धता आदि) नाना प्रकार के यन्त्रणादायक और कृच्छ साध्य नेत्र रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में किसी सुयोग्य चिकित्सक के द्वारा चिकित्सा कराने के साथ-2 मूलकारण को भी विनाश करने का प्रयत्न करना चाहिये। इस बात का चिकित्सक को भी विशेष ध्यान रखना चाहिये कि मूलकारण के नष्ट हुए बिना कारणान्तर का नाश नहीं होता।

गैस, बिजली, मोटर आदि की तेज रोशनी नेत्रों के लिये बहुत ही हानिकर है। इनकी अपेक्षा सरसों का तेल, तिल का तेल या दुयें का तेल, नीम का तेल आदि देशी तेलों की रोशनी नेत्रों के लिये सबसे अच्छी होती है। मिट्टी के तेल की रोशनी सफर में जाने आने या आँधी, मेह के समय अथवा नाटक आदि खेल तमाशों में अच्छा काम देती है, किन्तु पढ़ने लिखने का काम करने पर नेत्रों को हानि पहुँचाती है। आज कल प्रकाश और वर्ण की वैज्ञानिक ढंग से परीक्षा करने वाले वैज्ञानिकों ने यह स्थिर किया है कि लाल और हल्दी के समान पीले वर्ण की मिश्रित कान्ति के बीच की शक्ति का प्रकाश नेत्रों के लिए सबसे अधिक हितकर और स्वास्थ्य प्रद है।

दो तीन रत्ती बोरिक एसिड को शुद्ध पानी में मिलाकर उससे अथवा त्रिफला नीम के जल से रोज दो बार आँखों को धोवें या रुई के फोये को पानी में भिगो-2 कर पलकों के ऊपर फिरावे इससे नेत्रों में से पानी निकलना, जाला, फूला, लाली आदि नेत्रों के छोटे-2 विकार दूर हो जाते हैं। गुलाब जल और शहद भी नेत्रों के उपद्रवों को शान्ति करने के लिये विशेष उपयोगी हैं।

नेत्रों से अधिक काम लेने के बाद दो चार बार उन पर शुद्ध शीतल जल के छपके मार कर खूब धोना चाहिये। यदि नेत्रों में पीलापन हो तो देशी तेल के दीपक के ऊपर पारी हुई स्याही दो बार आँखों में डालनी चाहिये। यदि बालकों की आँखों में से दिन रात बिना किसी कारण के पानी निकलता हो तो ठण्डे पानी में गेरू को घिस कर उसका पलकों के ऊपर लेप करे। साधारणतः आँखों के दुखने पर त्रिफले के पानी से नेत्रों को धोवें, गुलाबजल में गुलाबी फिटकरी का बारीक चूर्ण मिलाकर उसकी 5-6 बूँदें दिन में तीन बार आँखों में डाले और रसौत, हरड़ फिटकरी, हल्दी, दारु हल्दी और लाल चन्दन इनमें से किसी औषधि को या सबको एकत्र घिस कर पलकों पर लेप करने से शीघ्र आराम होता।

यदि नेत्रों की ज्योति बढ़ानी हो और नेत्रों को तीक्ष्ण आकर्षण शक्ति से सम्पन्न करना हो तो प्रतिदिन निम्नलिखित नेत्र रक्षा सम्बन्धी व्यायाम करने चाहिये प्रातः काल सोकर उठते ही एक मेज या पलंग के ऊपर को मुँह करके चित्त लेट जाय, अथवा पैर फैलाकर बैठ जाय, फिर दो तीन हाथ दूर पर आँखों के सामने रक्खी हुई किसी छोटी चीज को दीवार पर लगे हुए पैसे की बराबर काले दाग को या और किसी वस्तु को टकटकी बाँधकर पाँच मिनट तक देखें। इसी प्रकार सायंकाल के समय कोई गज भर के फासले पर एक मोमबत्ती जलाकर रक्खें और उस की ओर 5 मिनट तक निगाह बाँधकर देखे। ऐसा करने पर पहले दिन तो एक दो मिनट के बाद ही पलक झप जाते हैं, आँखें लपलपाने लगती हैं और पानी निकलने लगता है, किन्तु नित्य थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करते रहने में कोई तीन महीने के भीतर आध घण्टे तक बिना पलक दृष्टि स्थिर रह सकती है और अधिक अभ्यास करने से इससे भी ज्यादा देर तक दृष्टिशक्ति बढ़ सकती है।

जमीन पर चित्त लेटकर एक बार मकान की कड़ियों की ओर देखें फिर बिना मुँह फेरे ही एक बार दाहिनी ओर और एक बार बाई ओर को खूब जोर से घूरे, इस तरह 30 सेकेण्ड तक करें। फिर घर के ऊपर नीचे के कोनों की ओर चारों तरफ को टकटकी बाँधकर देखे। इसके बाद नेत्रों को कुछ देर तक खोलें, मीचें और चारों ओर को जल्दी-2 दृष्टि दौड़ाता हुआ देखें। यह क्रिया दिन में एक बार चार, पाँच मिनट तक रोज करनी चाहिये। इसके सिवा हाथ के अंगूठे या अँगुली से धीरे-2 नेत्रों के पलकों को सहलाना चाहिये।


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