(श्री डा. दुर्गाशंकरजी नागर सं. ‘कल्पवृक्ष’)
मनुष्य का मस्तिष्क असंख्य सूक्ष्म जीवाणुओं का बना हुआ है और प्रत्येक अणु में असाधारण सामर्थ्य है। यह सब होते हुए भी मनुष्य हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, अपने आप को दीन हीन समझ रहे हैं। सोचते हैं कि हमारे अधीन कुछ नहीं है, भाग्य में लिखा है, सो होगा। मानवशास्त्र का सिद्धान्त है कि मनुष्य मन की सबल भावना से अपने तन, मन, धन व शरीर को दुःखमय स्थिति से बदल सकता है। हमारे अन्दर वह शक्ति है कि हम चाहे जो कर सकते हैं। मनुष्य में उत्पादक सामर्थ्य है। मन की इस प्रचंड शक्ति का विकास करने से मनुष्य के आगे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, बिजली हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं, हमारा मन, मनुष्य का मन अखिल विश्व में व्यापक परमात्मा की दैवी इच्छा द्वारा अपने ऐश्वर्य को प्रकट कर रहा है, प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर की विभूतियों का आविष्कार हो रहा है।
वर्तमान स्थिति को बदल देने का सामर्थ्य प्रत्येक मनुष्य के हाथ में है। मनुष्य एकाग्रतापूर्वक जिस किसी विषय में मन को स्थिर करता है तो अल्प समय में ही मस्तिष्क में ग्रहण करने वाले जीवाणु जाग्रत होकर सजातीय जीवाणुओं की वृद्धि करते हैं, और मानसिक शक्तियों का विकास होता है। पाठकों अपने को कभी परिस्थिति के वशीभूत मत समझो। तुम में एक विशेषता है। उसी को प्रकट करो। यह दृढ़ विश्वास करो कि तुम परिस्थिति पर अधिकार कर सकते हो। कभी भी निर्बल भावनाओं को, बुद्धि मंद है, अयोग्यता का अभाव है, ऐसे विचारों को मत आने दो।