ब्रह्माजी की मूर्तियों में हम उनके चार मुख देखते हैं। यह चतुर्मुखी ब्रह्मा परमात्मा की सत्ता का एक अलंकारिक चित्र है। चार मुख उसके चार भेदों का दिग्दर्शन कराते हैं। इन चार मुखों को (1) ब्रह्म (2) ईश्वर (3) विष्णु (4) भगवान् कहा जाता है। वह एक ही महातथ्य है तो भी समझने की सुविधा के लिए उसे चार भेदों के साथ वर्णन किया गया है।
(1)ब्रह्म—सात्विकता की ऊँची कक्षा को ब्रह्म कहते हैं। वैसे तो परमात्मा सत्, रज, तम तीनों गुणों में मौजूद है पर उसकी ब्राह्मी ज्योति सतोगुण में ही है। सात्विक विचार, सात्विक भाव, ब्रह्म केन्द्र से ही उत्पन्न होते हैं। मनुष्य के मन में यों तो अनेक प्रकार की इच्छाएं उत्पन्न होती रहती हैं पर जब सतोगुणी आकांक्षाएं उत्पन्न होती हैं तो उनका उद्गम केन्द्र-प्रेरक बिन्दु वह ब्रह्म ही होता है। ऋषियों में, महात्माओं में, संतों में, सत्पुरुषों में हम परमात्मा का अधिक अंश देखते हैं, उन्हें परमात्मा के समीप समझते हैं और ऐसा मानते हैं कि परमात्मा की उन पर कृपा है। परमात्मा की विशेष सत्ता उनमें मौजूद है इसका प्रमाण यही है उनमें सत तत्व अधिक मात्रा में मौजूद है। यह सत् का आधिक्य ही ब्राह्मी स्थिति है। पूर्ण सात्विकता में जो अधिष्ठित हो जाते हैं वे ‘ब्रह्म निर्वाण’ प्राप्त कहे जाते हैं।
मनुष्य की अन्तः चेतना प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से बनी हुई है। मन बुद्धि और चित्त अहंकार प्रकृति के भौतिक तत्वों द्वारा निर्मित हैं, जो कुछ हम सोचते, विचारते, धारण या अनुभव करते हैं वह कार्य मस्तिष्क द्वारा होता है। मस्तिष्क की इच्छा आकाँक्षा, रुचि तथा भावना इन्द्रिय रसों तथा साँसारिक पदार्थों की भली बुरी अनुभूति के कारण होती है। मस्तिष्क में जो कुछ ज्ञान, गति और इच्छा है वह साँसारिक, स्थूल पदार्थों के आधार पर ही बनती है, स्वयं मस्तिष्क भी शरीर का एक अंग है और अन्य अंगों की तरह वह भी पंचतत्वों से, प्रकृति से बना हुआ है। इस अन्तःकरण चतुष्टय से परे एक और सूक्ष्म चेतना केन्द्र है जिसे आत्मा या ब्रह्म कहते हैं। यह ब्रह्म सात्विकता के केन्द्र हैं। आत्मा में से सदा ही सतोगुणी प्रेरणाएं उत्पन्न होती हैं। चोरी, व्यभिचार, हत्या, ठगी आदि दुष्कर्म करते हुए हमारा दिल धड़कता है, कलेजा काँपता है, पैर थरथराते हैं, मुँह सूखता है, भय लगता है, और मन में तूफान सा चलता है, भीतर ही भीतर एक सत्ता ऐसा दुष्कर्म न करने के लिये रोकती है। यह रोकने वाली सत्ता-आत्मा है इसी को ब्रह्म कहते हैं, असात्विक कार्य-नीचता, तमोगुण, पाप और पशुता से भरे हुये कार्य-उसकी स्थिति से विपरीत पड़ते हैं, इसलिये उन्हें रोकने की भीतर ही भीतर प्रेरणा उत्पन्न होती है। यह प्रेरणा शुभ-सतोगुणी पुण्य कर्मों को करने के लिये भी उत्पन्न होती है। कीर्ति से प्रसन्न होने का मनुष्य का स्वभाव है और यह स्वभाव अच्छे-2 प्रशंसनीय, श्रेष्ठ कर्म करने के लिये प्रोत्साहन करता है। शुभ कर्मों से यश प्राप्त होता है और यश से प्रसन्नता होती है। यश न भी मिले तो भी सत्कर्म करने के उपरान्त अन्तरात्मा में एक शान्ति अनुभव होती है, यह आत्म तृप्ति इस बात का प्रमाण है कि अंतःकरण की अन्तरंग आकाँक्षा के अनुकूल कार्य हुआ है। दया, प्रेम, उदारता, त्याग, सहिष्णुता, उपकार, सेवा सहायता, दान, ज्ञान, विवेक की सुख शान्तिमयी इच्छा तरंगें आत्मा में से ही उद्भूत होती हैं। यह उद्गम केन्द्र ब्रह्म है।
वेदान्त दर्शन ने सारी शक्ति के साथ यही प्रतिपादित किया है कि आत्मा ही ईश्वर है। ‘तत्वमसि’, ‘सोऽहम्, शिवोऽहम’, ‘अयमाँत्मा ब्रह्म’ सरीखे सूत्रों का अभिप्राय यही है कि आत्मा ही ब्रह्म है। ईश्वर का प्रत्यक्ष अस्तित्व अपनी आत्मा में ही देखने की वेदान्त की साधना है। अन्य ईश्वर भक्त भी अन्तःकरण में परमात्मा की झाँकी करते हैं, असंख्यों कविताएं एवं श्रुतिवचन ऐसे उपलब्ध होते हैं जिनमें यह प्रतिपादन किया गया है कि “बाहर ढूँढ़ने से नहीं अन्दर ढूँढ़ने से परमात्मा मिलता है” संत कबीर ने कहा है कि परमात्मा हम से चौबीस अँगुल दूर है। मन का स्थान मस्तिष्क और आत्मा का स्थान हृदय है। मस्तिष्क से हृदय की दूरी 24 अँगुल है। इस प्रतिपादन में भी ईश्वर को अन्तःकरण में स्थित बताया है।
मनुष्य दैवी और भौतिक तत्वों से मिलकर बना है। इसमें मन भौतिक और आत्मा दैवी तत्व है। आत्मा के तीन गुण हैं सत्, चित् और आनन्द। वह सतोगुणी है श्रेष्ठ शुभ, दिव्य मार्ग की ओर प्रवृत्ति वाला एवं सतत हमेशा रहने वाला अविनाशी है। चित्-चैतन्य, जागृत, क्रियाशील, गतिवान है, किसी भी अवस्था में वह क्रिया रहित नहीं हो सकती। आनन्द, प्रसन्नता, उल्लास, आशा तथा तृप्ति उसका गुण है। आनन्द की दिशा में उसकी अभिरुचि सदा ही बनी रहती है, आनन्द अधिक आनन्द-अति-आनन्द उपलब्ध करना उसके लिए वैसा ही प्रिय है जैसा मछली के लिए जल। मछली जलमग्न रहना चाहती है आत्मा को आनन्द मग्न रहना सुहाता है, सत्, चित्, आनन्द गुण वाली आत्मा हर एक के अन्तःकरण में अधिष्ठित है। मन और आत्मा में जैसे जैसे निकटता होती जाती है वैसे ही वैसे मनुष्य अधिक सात्विक अधिक क्रियाशील और अधिक आनन्दमग्न रहने लगता है योगी जन ब्रह्म प्राप्ति के लिए साधना करते हैं, इस साधना का कार्यक्रम यह होता है कि आत्मा की प्रेरणा के अनुसार मन की सारी इच्छा और कार्य प्रणाली हो। भौतिक पदार्थों के नाशवान अस्थिर और हानिकर आकर्षणों की ओर से मुँह मोड़कर जब आत्मा की प्रेरणा के अनुसार जीवन चक्र चलने लगता है तो मनुष्य साधारण मनुष्य न रहकर महान मनुष्य बन जाता है। ऐसे महापुरुषों के विचार और कार्य सात्विकता, चैतन्यता और आनन्ददायक स्थिति से परिपूर्ण होते हैं। उन्हें, संत, महात्मा, योगी, तपस्वी, परमहंस, सिद्ध आत्मदर्शी या ब्रह्म परायण करते हैं। जिनका ब्रह्म भाव, आत्म विकास पूर्ण सात्विकता तक विकसित हो गया है समझना चाहिए कि उनने ब्रह्म को प्राप्त कर लिया उन्हें आत्म दर्शन हो गया।
ईश्वर—इस समस्त विश्व के मूल में शासक, संचालक एवं प्रेरक शक्ति काम करती है। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, ग्रह, उपग्रह, निरन्तर अपनी नियत चाल से अविश्रान्त यात्रा जारी रखे हुए हैं। तत्वों के संमिश्रणं से एक नियत व्यवस्था के अनुसार तीसरा पदार्थ बन जाता है, बीज अपनी ही जाति के पौधे उत्पन्न करता है, सूर्य एक पल का विलम्ब किये बिना ठीक समय पर उदय और अस्त होता है। समुद्र के ज्वार भाटा नियम समय पर आते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश सब की क्रियाएं अचूक हैं। नन्हें-नन्हें अदृश्य परमाणु अत्यन्त द्रुत गति से हरकत करते हैं पर उनकी इस गति में रंच मात्र भी अन्तर नहीं आता। एक परमाणु को दूसरे परमाणु से लड़ाने का रहस्य को ढूँढ़ कर वैज्ञानिकों ने प्रलयकारी ‘परमाणु बम’ बनाये हैं। यदि यह एक सेकिंड में हजारों मील की गति से घूमने वाले यह परमाणु आपस में लड़ जाया करते तो आये दिन प्रलय उपस्थित हो जाया करती परन्तु हम देखते हैं कि प्रकृति का हर परमाणु अपने गुण, कर्म को ठीक प्रकार कर रहा है।
यदि सृष्टि में नियमितता न होती तो एक भी वैज्ञानिक आविष्कार सफल न होता। आग कभी गर्मी देती कभी ठण्डक, तो भला उसके भरोसे कोई काम कैसे होता। नित्य अनेकों वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे हैं इनका आधार इसी पर निर्भर है कि प्रकृति की दृश्य एवं अदृश्य शक्तियाँ अपने नियत नियमों से रंच मात्र भी विचलित नहीं होती। यह सर्व मान्य और सर्व विदित तथ्य है कि प्रकृति की समस्त क्रिया प्रणाली नियमित है, उसके मूलभूत नियमों में कभी अन्तर नहीं पड़ता।
इस नियमितता और गतिशीलता के मूल में एक सत्ता अवश्य है। विचार और प्राण से रहित जड़ प्रकृति अपने आप इस क्रिया कलाप को नहीं चला सकती। रेल, मोटर, इंजन हवाई जहाज, तलवार-कलम आदि जितने भी निर्जीव यन्त्र हैं उनको चलाने वाला कोई न कोई सजीव प्राणी अवश्य होता है, इसी प्रकार प्रकृति की नियमितता और गतिशीलता का उद्गम केन्द्र भी कोई न कोई अवश्य है। इस केन्द्र को हम ईश्वर कहते हैं। ईश्वर का अर्थ है स्वामी। जड़ प्रकृति के निर्माण, व्यवस्था एवं संचालन में जो शक्ति काम करती है वह ईश्वर है।
केवल जड़ प्रकृति का ही नहीं, चेतन जगत का भी वह पूरी तरह नियमन करती है। इसने अपने नियमों के अंतर्गत प्राणिमात्र को बाँध रखा है। जो उस ईश्वर के नियमों के अनुसार चलते हैं वे सुखी रहते हैं, विकसित होते हैं और जो उन नियमों को तोड़ते हैं वे दुख पाते और हानि उठाते हैं। स्वास्थ्य के नियमों पर चलने वाले, सदाचारी संयमी मिताहारी लोग स्वस्थ रहते हैं और चटोरे, दुराचारी, स्वेच्छाचारी लोग बीमारी, कमजोरी एवं अकाल मृत्यु के शिकार होते हैं। इसी प्रकार सामाजिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक क्षेत्रों में काम करने वाले ईश्वरीय नियमों को ठीक प्रकार पालन करते हैं वे उन क्षेत्रों में स्वस्थता, समृद्धि एवं उन्नति प्राप्त करते हैं जो उन नियमों के प्रतिकूल कार्य करते हैं, वे उन क्षेत्रों में दुष्परिणाम भुगतते हैं। पराक्रम, पुरुषार्थ, यत्न, लगन, साहस, उत्साह एवं धैर्य यह सब सफलता के मार्ग की ईश्वरीय पगडंडियाँ हैं। इन पर जो चलते हैं वे अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। जो इस राजमार्ग पर नहीं चलते थे पिछड़ जाते हैं।
ईश्वर पूर्णतया निष्पक्ष, न्यायकारी, नियत रूप है। वह किसी के साथ रत्ती भर रियायत नहीं करता। जो जैसा करता है वह वैसा भोगता है। अग्नि या बिजली के नियमों के अनुसार यदि उनसे काम लिया जाय तो वे हमारे लिये बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती है पर यदि अग्नि का या बिजली का दुरुपयोग किया जाय तो वह भयंकर दुर्घटना उपस्थित कर देती है। इसी प्रकार जो लोग ईश्वरीय नियमों के अनुसार काम करते हैं उनके लिये ईश्वर वरदाता, त्राता, रक्षक, सहायक, कृपा सिन्धु, भक्त वत्सल है पर जो उसके नियमों में गड़बड़ी करता है उसके लिये वह यम, काल, अग्नि, शंकर, वज्र एवं दुर्दैव बन जाता है। मनुष्य को स्वतन्त्र बुद्धि देकर ईश्वर ने उसे काम करने के लिये स्वच्छन्द अवश्य बना दिया है पर नियमन अपने ही हाथ में रखा है। वह जैसे को तैसा फल दिये बिना नहीं छोड़ता। आग और लकड़ी को इकट्ठा करना या न करना यह हमारी इच्छा पर निर्भर है पर उन दोनों के इकट्ठा होने पर ईश्वरीय नियमों के अनुसार जो ज्वलन क्रिया होगी उसे रोकना अपने बस की बात नहीं है। इसी प्रकार शुभ-अशुभ कर्म करना तो हमारे अपने हाथ में है। पर उनसे जिन भले बुरे परिणामों की उत्पत्ति होगी वह ईश्वरीय नियामक शक्ति के हाथ में है।
जैन और बौद्ध कर्म के फल की अनिवार्यता स्वीकार करते हैं। अतएव वे ईश्वर को, ब्रह्म को द्वितीय सत्ता को—मानते हैं। सत्कर्म करना प्रकृति के कठोर अपरिवर्तनशील नियमों का ध्यान रखना, अपने आचरणों और विचारों को ईश्वरीय नियमों की मर्यादा में रखना ईश्वर पूजा है। अपनी योग्यता और शक्तियों को समुन्नत करना, बाहुबल के आधार पर आगे बढ़ना, अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करना ईश्वर वादियों का प्रधान स्वभाव होता है क्योंकि वे जानते हैं कि सबलों क्रियाशीलों और जागरुकों को बढ़ाना और कमजोरों, अकर्मयमों एवं असावधानों को नष्ट करना प्रकृति का नियम है। इस कठोर नियम में किसी के बूते कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। ईश्वरवादी इस नग्न सत्य को भली भाँति जानते हैं कि—”ईश्वर उन्हीं की मदद करता है जो अपनी मदद आप करता है।” इसलिए वे ईश्वरीय कृपा प्राप्त करके उसके नियमों से लाभ उठाने के लिए सदा शक्ति संचय करने एवं आगे बढ़ने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। आत्म निर्भर और आत्मावलम्बी होते हैं। अपने भाग्य का आप निर्माण करते हैं। ईश्वरीय नियमों को ध्यानपूर्वक देखते, परखते और हृदयंगम करते हैं तथा उनकी वज्रोपम कठोरता एवं अपरिवर्तनशीलता का ध्यान रखते हुए अपने आचरणों को “औचित्य” की, धर्म की, सीमा के अंतर्गत रखते हैं।
क्रमशः यदि तुम संसार में कुछ करना चाहते हो तो महत्ता के विचारों को ही सदा सर्वदा मस्तिष्क में संग्रह करो। तुम्हारे मस्तिष्क में किसी प्रकार की न्यूनता नहीं है। तुम दुर्भाग्य की ठोकरें खाने के लिये नहीं उत्पन्न हुए हो।