वासनाओं का त्याग ही सच्चा ‘त्याग‘ है।

June 1946

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आत्म-त्याग का सच्चा मतलब समझे बिना लोग उसके बदले में कई अन्य क्रियाओं का आचरण करके ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि कई लोगों ने तो उसका मतलब आत्मघात तक समझ रक्खा है। कितनों का विश्वास है कि बाह्य वस्तुओं-धन, कुटुम्ब, ऐश्वर्य और घर वार को छोड़कर जंगल में जा बैठना ही आत्मत्याग है। कितने नाना प्रकार की यातनाओं द्वारा शरीर को कष्ट देकर सुखा डालने को आत्मत्याग समझते हैं। कितने लौकिक यश की इच्छा से प्रेरित होकर अपने धन और प्राणों को समाज और देश के नाम पर न्यौछावर कर देने को आत्मत्याग मानते हैं। कहाँ तक कहें, दुनिया में जितने उत्तम कार्य हैं वे सब आत्म-त्याग के स्वरूप ही समझते जाते हैं।

आत्म-त्याग का सच्चा स्वरूप उपर्युक्त सब दृष्टांतों से भिन्न और विलक्षण है। आत्म-त्याग स्वार्थ त्याग का दूसरा नाम है और स्वार्थ कोई ऐसी वस्तु नहीं जो हृदय से बाहर फेंकी जा सकें। वह तो मन की एक अवस्था विशेष है जिसको दूसरे रूप में बदलने की आवश्यकता है। आत्म-त्याग का मतलब आत्मा का नष्ट करना नहीं, परन्तु वासनाओं और इच्छाओं से लिप्त आत्मा का त्याग है। स्वार्थ का ठीक अर्थ क्षणस्थायी सुखों में फंसकर सदाचरण और विवेक को भूलना है। स्वार्थ हृदय की उस वासनामय और लोभ-पूर्ण अवस्था का नाम है जिसका त्याग किये बिना सत्य का उदय नहीं हो सकता और न शान्ति और सुख का ही हृदय में संचार हो सकता है।

केवल वस्तुओं का त्याग ही सच्चा स्वार्थ त्याग नहीं कहला सकता, किन्तु वस्तुओं की इच्छा का त्याग करना ही वास्तविक त्याग है। मनुष्य अपने धन, कुटुम्ब, परिवार और घर को छोड़कर भले ही संन्यासी बन जाय, परन्तु जब तक मानसिक वासनाओं और इच्छाओं का दमन न किया जाय तब तक सारी बाह्य क्रियायें केवल ढोंग मात्र है। सब लोगों को विदित है कि महात्मा बुद्ध संसार को त्यागकर जंगल में भी आ बैठे, परन्तु छः वर्ष तक उनके हृदय में ज्ञान का उदय न हो सका, क्योंकि वे इतने दिन तक अपने मन को वश में न कर सके थे। ज्यों ही उनका हृदय शुद्ध हुआ त्यों ही एक दम उनके ज्ञान नेत्र खुल गये और चराचर जगत उन्हें प्रत्यक्ष हो गया।

यदि चित्त को वश में किये बिना कोई मनुष्य वस्तुओं का परित्याग कर दे तो उसे शान्ति के बदले क्षोभ और दुःख प्राप्त होगा। यही कारण है सैकड़ों नवयुवक साधु अपने वेश के प्रतिकूल आचरण करने लगते हैं। केवल मान बड़ाई अथवा यशः प्राप्ति के लिए छोड़ा हुआ संसार थोड़े ही समय में उनके हृदय पर ऐसा आकर्षण करता है कि वे बेचारे अपने आवेगों को सहने में असमर्थ हो जाते हैं। यदि बाह्य वस्तुओं की ममता नहीं घटी है तो उनका परित्याग करना ही मूर्खता है। मानसिक शाँति को नष्ट करने वाले बाह्य पदार्थ नहीं हैं। अपने हृदय में इन पदार्थों के प्रति जो इच्छा उत्पन्न होती है, वही सुख और शान्ति को चुराने वाली है।


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