इस शिक्षा से क्या लाभ?

June 1946

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इस युग को शिक्षा और सभ्यता का युग कहा जाता है। चारों ओर शिक्षा और सभ्यता की धूम है। शिक्षित और सभ्य बनने तथा बनाने के लिए नाना विधि, आयोजन हो रहे हैं। बालक जैसे ही 5-6 वर्ष के होते हैं वैसे ही उन्हें शिक्षित बनाने के लिए स्कूल में भेज दिया जाता है। बालक पढ़ना आरम्भ करता है और पन्द्रह बीस वर्ष (अपने जीवन का लगभग एक तिहाई भाग) स्कूल कालेजों में व्यतीत करता हुआ शिक्षित बनकर निकलता है। उसके पास एम. ए., बी. ए. आदि की डिग्रियाँ होती हैं, जिन माता-पिता ने उन्हें पेट काट कर शिक्षा का अत्यन्त भारी खर्चा उठाया वे आशा करते हैं कि इतनी बड़ी साधना के बाद हमारा लड़का बहुत ही सुयोग्य बनकर निकलेगा। उसकी शिखा अपने शुभ परिणामों से आनन्दमय, वातावरण की सृष्टि करेगी।

परन्तु शिक्षा समाप्त करके निकले हुए छात्र की वास्तविक दशा देखकर अभिभावकों की आँखों तले अंधेरा छा जाता है। लड़के का स्वास्थ्य चौपट नजर आता है। हड्डियों का ढांचा एक पीले चमड़े के खोल में लिपटा होता है। ऐनक नाक पर रखे बिना उनकी आँखें काम नहीं करतीं। पिचका हुआ चेहरा, रोती सी सूरत, बैठी हुई आंखें, यह बताती हैं कि शिक्षा के अनावश्यक भार ने इनके स्वास्थ्य को चबा डाला। रहा बचा जीवन, रस कुसंग की शर्मनाक भूखों में बह गया। शारीरिक दृष्टि से वे इतने अशक्त होते हैं कि भारी परिश्रम के काम उनकी क्षमता से बाहर हो जाते हैं।

सभ्यता के नाम पर फैशन और उच्छृंखलता दो ही बातें वे सीख पाते हैं। बालों के सजाव शृंगार में वेश्याएं उनकी होड़ नहीं करतीं। अनावश्यक, असुविधाजनक, बेढ़ंगों, खर्चीली, यूरोपीय फैशन की, नये-नये तर्ज का पोशाक पहनने में वे बहुत आगे बढ़े-चढ़े रहते हैं। बड़ों के प्रति आदर भाव का दर्शन नहीं होता। यही इनकी सभ्यता है जीवन यापन के लिये क्लर्की करने के अतिरिक्त और कोई चारा इनके पास नहीं होता। जीवन भर पराई ताबेदारी करके पेट पालने के अतिरिक्त और साधन उनके पास नहीं होता। स्वर्गीय कविवर अकबर की उक्ति उनके विषय में पूरी तरह चरितार्थ होती हैं

“गुजर उनका हुआ कब,

कब आलमें अल्लाह अकबर में।

कालिज के चक्कर में,

मरे साहब के दफ्तर में॥”

जीविकोपार्जन की दिशा में वे सर्वथा लुँज पुँज, दूसरों की दया पर निर्भर होते हैं। जब किसी नौकरी के लिए कोई छोटा-मोटा स्थान खाली होने की सरकारी विज्ञप्ति अखबारों में निकलती है तो एक-2 जगह के लिए हजारों दरख्वास्तें पहुँचती हैं।

जिन्हें सरकारी नौकरी मिल जाती है वे समझते हैं कि इन्द्र का इन्द्रासन मिल गया। यदि वहाँ बुरी से बुरी परिस्थिति में रहना पड़े, दिन-रात अपमानित होना पड़े एवं आत्म हनन करके अनुचित काम भी करना पड़े तो भी इसे छोड़ने का साहस नहीं कर पाते, क्योंकि वे जानते हैं कि जितने पैसे यहाँ मिलते हैं अपनी हीन योग्यता और हीन अनुभव के आधार पर उतना भी कमाना उनके लिये कठिन है।

लार्ड मेकाले की निश्चित योजना के अनुसार वर्तमान अँग्रेजी शिक्षा पद्धति केवल अंग्रेजों लिए ही उपयोगी है। विदेशी शासन यंत्र ढोने के लिए खस्सी बैल उन्हें सुविधापूर्वक मिलते रहने के लिए यह फैक्टरी उनके बहुत काम की है। परन्तु भारतीय दृष्टिकोण से विचार करने पर वर्तमान शिक्षा पद्धति व्यर्थ ही नहीं हानिकर भी है। इनमें छात्र की व्यक्तिगत योग्यताएं विकसित होने के लिये गुंजाइश नहीं है। अनुपयोगी, अनावश्यक जीवन में कुछ काम न आने वाली बातें रटते-रटते लड़कों का दिमाग चट जाता है, स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है, जीवन का सबसे कीमती भाग नष्ट हो जाता है। बदले में एक सनद का कागज मिलता है जिसे दिखाकर किसी किसी को कहीं, “मोस्ट ओविडियन्ट सर्वेन्ट” कहाने का सौभाग्य प्रदान करने वाली नौकरी मिल जाती है। जिन्हें वह भी नहीं मिलती वे फटे हाल बाबू इधर से उधर जूतियाँ चटकाते फिरते हैं और उस सनद की निरर्थकता पर भारी पश्चात्ताप प्रकट करते हैं।

हाथ से काम करना अपमान जनक अनुभव होता है बाबूजी के लिए अपना सूट केस लेकर आधे मील चलना अपमानजनक है। घर के काम काज करते हुये, परिश्रम पड़ने वाले कामों में हाथ डालते हुये उन्हें ऐसी लज्जा लगती है मानो कोई भयंकर पाप कर रहे हों। ऐसी दशा में कोई स्वतन्त्र कारोबार उनके द्वारा होना भला किस प्रकार सम्भव है। बिना पढ़े ताँगे वाले, खोमचे वाले, कुली, गाड़ी वाले, मजूर आदि उससे कहीं अधिक कमा लेते हैं जितना कि बाबू लोगों को तनख्वाह मिलती है। स्वस्थता एवं दीर्घ जीवन का उपयोग भी इन शिक्षितों की अपेक्षा वे अशिक्षित अधिक करते हैं।

लड़कियाँ भी इस शिक्षा प्रणाली के दोषों से अधिक बच नहीं पाती। पढ़ लिखकर जहाँ उन्हें गृहलक्ष्मी बनना चाहिये वहाँ वे फैशन परस्त तितलियाँ बन जाती हैं। हाथ से काम करने में वे अपनी हेठी समझती हैं। उच्छृंखलता, तुनकमिज़ाजी, अवज्ञा एवं विलासिता के कुसंस्कार उन्हें भी सफल गृहस्थ जीवन के सुसंचालन में अयोग्य बना देते हैं। यूरोप में भी दुखदायी वातावरण वहाँ के गृहस्थ जीवनों को नरक बनाये हुए हैं उसकी छाया किन्हीं अंशों में इस शिक्षा पद्धति द्वारा भारतीय गृहस्थों में भी जा पहुँचती है।

माता-पिता अपने बालकों को इसलिये पढ़ाते हैं कि पढ़ लिखकर अधिक सुयोग्य बनें। परन्तु जिस शिक्षा के द्वारा सुयोग्यताओं का लोप होकर अयोग्यताऐं उपलब्ध होती हैं। उसके लिए अभिभावकों का पैसा और बालकों का समय बर्बाद होने से क्या लाभ? अब तक ‘कोई अच्छी सरकारी नौकरी” मिलने की एक आशा प्रधान रूप से रहती थी पर अब तो उसका भी मार्ग बन्द हो चला है। क्योंकि एक तो अंग्रेजी शिक्षा का प्रचलन इतना अधिक हो गया है कि उनमें से एक प्रतिशत को भी सरकारी नौकरियाँ नहीं मिल सकती, दूसरे सेना से लौटे हुए व्यक्तियों को उन नौकरियों में प्रथम स्थान मिलेगा। इसके अतिरिक्त भारत, स्वशासन प्राप्त करने की दिशा में बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। जैसे-जैसे इस दिशा में प्रगति होगी वैसे ही वैसे विदेशी भाषा जानने वालों को जो महत्व अब प्राप्त है वह घटेगा। इन सब कारणों से सरकारी नौकरी के लिए पढ़ने वालों का मार्ग क्रमशः अधिक कंटकाकीर्ण होता जायगा।

इन सब बातों पर विचार करते हुए अभिभावकों को यह विचारना होगा कि अपने बालकों को क्या पढ़ायें? अब ऐसी शिक्षा पद्धति अपनाने की आवश्यकता है जिसके द्वारा बालक अपनी शारीरिक, मानसिक, साँस्कृतिक, आर्थिक और आत्मिक उन्नति कर सके। समर्थ स्वावलम्बी और व्यवहार कुशल और पुरुषार्थी बन सके। ऐसी शिक्षा ही सच्ची शिक्षा कहला सकने की अधिकारिणी है।

एक अनुभवी शिक्षा शास्त्री का मत है कि—”शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ही यह है कि वह मनुष्य की बुद्धि तथा हृदय की गुप्त शक्तियाँ पूर्ण विकास करें और उसे सर्वांग सुन्दर नागरिक बनावें।” जो मानव जीवन को सब दृष्टियों से विकसित करे, ऊँचे उठावे और आगे बढ़ावे उसी को सच्चे अर्थों में शिक्षा कहा जा सकता है, वर्तमान अंग्रेजी शिक्षा पद्धति इस दृष्टि से निकम्मी साबित हुई है। अपने प्राणप्रिय बालकों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए हमें उनके लिए समुचित शिक्षा की ही व्यवस्था करनी चाहिये।


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